शेरो-शायरी से गूंजता है पंजाब विश्वविद्यालय में उर्दू का जुनून

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 19-04-2023
शेरो-शायरी से गूंजता है पंजाब विश्वविद्यालय में उर्दू का जुनून
शेरो-शायरी से गूंजता है पंजाब विश्वविद्यालय में उर्दू का जुनून

 

तृप्ति नाथ / चंडीगढ़

‘‘खाकसर को दिनेश कहते हैं. मैं उर्दू का अदना सा तालिबे-इल्म हूं.’’ हरियाणा के जींद के एक युवा छात्र ने प्रतिष्ठित पंजाब विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में एक कक्षा के दौरान अपना ‘तआरुफ’ (परिचय) इस तरह दिया. इस साधारण कमरे की दीवार पर प्रसिद्ध भारतीय शायर मिर्जा गालिब की तस्वीर और अनुभवी शिक्षकों के मार्गदर्शन के साथ छात्रों को उर्दू सीखने के लिए प्रेरित होना तय है.

जब यह संवाददाता हाल ही में डॉ जरीन फातिमा की नेम प्लेट वाले एक कमरे में दाखिल हुई, तो वह असिस्टैंट प्रोफेसर की डेस्क के चारों ओर एक अनौपचारिक सेटिंग में बैठे आठ छात्रों को देखकर हैरान रह गई. डॉ. फातिमा इस स्थान को एक फारसी शिक्षिका के साथ साझा करती हैं.

डिप्लोमा कोर्स का छात्र दिनेश उन आठ छात्रों में शामिल था, जो डॉ. फातिमा की मेज के आसपास बैठे थे. पहले साल के सर्टिफिकेट कोर्स में उसके पांच सहपाठी पंजाब के अलग-अलग इलाकों से हैं, जहां जमीनों का रिकॉर्ड आज भी उर्दू में है. यद्यपि छात्र और शिक्षक एक व्याख्यान कक्ष के लायक हैं, लेकिन जो भी उपलब्ध है, वे उसका सर्वोत्तम उपयोग कर रहे हैं. गौरतलब है कि कई वर्षों से विभाग विवि प्रशासन से लेक्चर हॉल के लिए गुहार लगा रहा है.

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छात्र ज्यादातर पंजाब से हैं और उत्सुक और उत्साही शिक्षार्थियों के रूप में सामने आते हैं. जैसा कि डॉ. फातिमा कहती हैं, ‘‘हमारे छात्रों को बेसब्री से उर्दू पाठों का इंतजार करते हैं.’’

यद्यपि 1978 में पंजाब विश्वविद्यालय में डॉ हारून अयूब द्वारा उर्दू विभाग की स्थापना की गई थी, लेकिन इसे अभी तक उचित स्थान नहीं दिया गया है. यह केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के एक विंग के तीन कमरों से चल रहा है. चालू शैक्षणिक सत्र में, 64 छात्रों को एक वर्षीय सर्टिफिकेट कोर्स और उन्नत डिप्लोमा कोर्स में नामांकित किया गया है. अन्य 22 छात्र उर्दू में स्नातकोत्तर कर रहे हैं.

उर्दू के लिए डॉ फातिमा के जुनून का अंदाजा उनकी आखिरी सांस तक उर्दू की सेवा करने के उनके दृढ़ संकल्प से लगाया जा सकता है, क्योंकि परिवार उर्दू से आजीविका कमा रहा है. वह मुस्कराते हुए कहती हैं, ‘‘मैं तो जिंदगी की आखिरी सांस तक उर्दू की खिदमत करना चाहूंगी. हमारे घर में तो लोग उर्दू की रोटी खाते हैं. हम लोग तो उर्दू के खिदमतगार हैं.’’

एक साल के सर्टिफिकेट कोर्स के लिए नामांकित छात्रों को सोमवार से शुक्रवार तक कम से कम एक कक्षा में भाग लेना चाहिए. डिप्लोमा कोर्स में नामांकित छात्रों के लिए भी यही सच है. जिन आठ छात्रों से मैं मिली, उन्होंने बताया कि वे उर्दू से प्यार करते हैं और यह नहीं सोचते कि यह एक मरती हुई भाषा है. 22 साल से पंजाब यूनिवर्सिटी में उर्दू पढ़ा रही डॉ. फातिमा का मानना है कि उर्दू का भविष्य उज्ज्वल है. चंडीगढ़ साहित्य अकादमी द्वारा 2020 में उर्दू में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित, डॉ फातिमा कहती हैं, ‘‘यह कहना गलत है कि उर्दू एक मरती हुई भाषा है.’’

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डॉ. फातिमा ने एक शेर पढ़कर मुझे और आश्वस्त किया, ‘‘उर्दू फकत जुबान नहीं मेरे दोस्त, उर्दू हमारे मुल्क की तहजीब भी तो है.’’ उन्होंने कहा, ‘‘उर्दू कल भी बहुत ज्यादा उरूज पर थी. कभी पेस्टी में नहीं जाएगी. ना मिट्टी थी, ना मिट्टी है, ना मिटेगी उर्दू, चाहने वालों के लबों पर रहेगी उर्दू. जो शीरीनी, नजाकत, लताफत, उर्दू में है, वो कहीं नहीं मिलती है.’’ उन्होंने कहा कि लोगों को प्रभावित करने के लिए उर्दू से बेहतर कोई भाषा नहीं है.

वे एक प्रसिद्ध खकानिगर (पेन पोट्रेट के लेखक) गुलाम रिजवी की बेटी हैं, जिन्हें उनके कलम नाम ‘गार्डिश’ से बेहतर जाना जाता था. डॉ फातिमा को इस बात पर बहुत गर्व है कि वह उनकी समृद्ध विरासत को आगे बढ़ाने वाली उनकी इकलौती संतान हैं. ‘‘मैंने अपने पिता और अपनी माँ,वसीम रिजवी से अनौपचारिक रूप से उर्दू सीखी, जो आजमगढ़ के मऊ के एक स्कूल में उर्दू पढ़ा रहे थे. बाद में, मैंने कॉलेज में उर्दू को चुना. मुझे अपने पिता के कुछ दोस्तों को जानने का सौभाग्य मिला, जो अख्तर-उल-ईमान, जनेसर अख्तर, अली जवाद जैदी, नायर मसूद, वामीफ जौनपुरी, फिराक गोरखपुरी और शम्स-उर-रहमान फारूकी जैसे प्रसिद्ध लेखक थे. मैं अपने पूरे परिवार में डॉक्टरेट की उपाधि पाने वाली पहली महिला हूं. मुझे 1993 में शिबली कॉलेज, आजमगढ़ से डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था.’’

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डॉ फातिमा ने उर्दू में तीन किताबें लिखी हैं और उनका मानना है कि उर्दू में बहुत गुंजाइश है, क्योंकि पंजाब में अधिकांश भू-राजस्व रिकॉर्ड और पुराने कानूनी दस्तावेज उर्दू में हैं. इसलिए हमेशा उर्दू पढ़ने-लिखने वालों की डिमांड रहती है.

संगरूर की 29 वर्षीय छात्रा जसप्रीत कौर ग्रेवाल ने कहा कि डॉ फातिमा उन्हें केवल उर्दू नहीं सिखाती हैं, वह उन्हें जीना सिखाती हैं. एक कानूनी फर्म में काम करने वाली जसप्रीत ने कहा कि उर्दू में उसकी दिलचस्पी तब से है, जब वह चौथी कक्षा में थी. उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अपने शिक्षक को यह कहते सुना था कि उर्दू बहुत प्यारी भाषा है.’’

जसप्रीत जो सर्टिफिकेट कोर्स पूरा करने के बाद डिप्लोमा कर रही है, उन्होंने शेर सुनाकर कक्षा को जीवंत कर दिया, उन्होंने कहा, ‘‘इश्क है तो इश्क का इजहार होना चाहिए, आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए.’’ फिरोजपुर, जींद, खरार, मोहाली के उसके सहपाठी ‘मुकर्रर’ की आवाज से उसकी सहजता का स्वागत करता है.

डॉ. फातिमा अपने छात्रों को आत्मनिर्भर बनने और एक ऐसा व्यक्तित्व विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं जो लोगों को उनकी ओर खींचे. उन्होंने कहा, “मैं उनसे यह भी कहती हूँ कि वे अपनी पहचान स्वयं स्थापित करें.”

पंजाब के फिरोजपुर के 28 वर्षीय छात्र हनी संधू का कहना है कि वह स्वाभाविक रूप से उर्दू के प्रति आकर्षित थे, क्योंकि उनके दादा एक किसान थे और उर्दू जानते थे. उन्होंने बताया, ‘‘मैंने व्यवसाय प्रबंधन में स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. लॉकडाउन के दौरान मैंने यू-ट्यूब से उर्दू सीखनी शुरू की. अब, मैं सिविल सेवाओं की तैयारी कर रहा हूं और उर्दू सीखना बहुत ही कायाकल्प कर रहा है. मुझे यूट्यूब पर मुशायरा सुनना भी पसंद है और यह मुझे सिखा रहा है कि कविता कैसे आजमाई जाती है.’’

डॉ फातिमा ने आईएएस अधिकारियों सहित कई छात्रों को पढ़ाया है. पंजाब कैडर की आईएएस ऑफिस माधवी कटारिया ने यहां से सर्टिफिकेट कोर्स और डिप्लोमा कोर्स पूरा किया. वह भाषा में इतनी अच्छी तरह से निपुण थीं कि कई छात्र उनकी तरह बोलना चाहते थे.

2020 से उर्दू विभाग के प्रमुख डॉ अली अब्बास कहते हैं कि उर्दू में बहुत गुंजाइश है. अली ने लखनऊ के शिया कॉलेज में अध्ययन किया और लखनऊ विश्वविद्यालय में इतिहास, फारसी और उर्दू का अध्ययन किया. बाद में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय और अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज में पढ़ाया, यह सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ हैं कि उर्दू को उचित मान्यता मिले.

उर्दू में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त डॉक्टर अब्बास कहते हैं, ‘‘मैं उर्दू से रोजी-रोटी कमाता हूं और इसके महत्व को कम करने के किसी भी प्रयास का विरोध करने के लिए मैं कम से कम निडर होकर खड़ा हो सकता हूं. इस विभाग से हमें हटाने और इसे एक विदेशी भाषा के रूप में वर्गीकृत करने के प्रयास किए गए हैं. मैंने अपने विभाग को विदेशी भाषाओं के स्कूल में रखने के कदम का विरोध किया. बाद में मामला सुलझा लिया गया.’’

आजमगढ़ के मऊ जिले के कोपागंज गांव के एक मदरसे से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने वाले डॉ. अब्बास कहते हैं कि उर्दू का इतना विकास कहीं और नहीं हो सकता था, जितना कि हिंदुस्तान में हुआ है. उर्दू हिन्दुस्तान की मिट्टी से बनी है. आज हमें जो उर्दू साहित्य मिला है, वह अमीर खुसरो और मसूद सद सलमान के समय का है. उस समय इसे हिंदवी कहा जाता था. सदियों से मिर्जा गालिब, मीर तकी मीर, सर सैयद अहमद खान और मुशायरों जैसे दिग्गज शायरों ने उर्दू को एक अलग पहचान दी. आज पाकिस्तान में सबसे अच्छे शायर वे हैं, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए. उदाहरण के लिए इफ्तिखार आरिफ लखनऊ के रहने वाले हैं.’’

उनका कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में उर्दू में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में लगातार कई गुना वृद्धि हुई है. उन्होंने कहा, ‘‘जब मैं जून, 2014 में पंजाब विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में उर्दू विभाग में शामिल हुआ, तो उर्दू में स्नातकोत्तर के लिए केवल चार छात्रों का नामांकन हुआ था. 1982 में उर्दू विभाग में पोस्ट ग्रेजुएशन शुरू किया गया था. नौ वर्षों में, हम स्नातकोत्तर के लिए नामांकित छात्रों की संख्या में लगभग छह गुना वृद्धि देख रहे हैं. हम यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करते हैं कि हमारे छात्र पाठ्यक्रम से बाहर न हों. 2015-16 में, हमारे छात्रों ने यूजीसी नेट क्वालीफाई करना शुरू किया. जम्मू-कश्मीर, पंजाब और अन्य राज्यों से यहां आने वाले छात्रों को अच्छी नौकरी मिल रही है.’’

डॉ. अब्बास ने कहा कि पंजाब के कई छात्रों ने उन्हें बताया कि उन्होंने उर्दू और फारसी सीखना इसलिए चुना है, ताकि वे फारसी में लिखे इतिहास और साहित्य को पढ़ सकें. उन्होंने कहा, ‘‘उर्दू एक भारतीय भाषा है और भारत में 90 प्रतिशत विश्वविद्यालय उर्दू पढ़ा रहे हैं. अगर आप आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में एक सर्वेक्षण करें, तो आप पाएंगे कि वहां के 60 प्रतिशत से अधिक विश्वविद्यालय उर्दू पढ़ा रहे हैं. अकेले पंजाब में ही पंजाब यूनिवर्सिटी के अलावा पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला और गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर उर्दू पढ़ा रहे हैं. मलेरकोटला (पंजाब) के कई कॉलेज भी उर्दू पढ़ा रहे हैं. हरियाणा में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय उर्दू पढ़ाता है. चंडीगढ़ के खालसा कॉलेज ने भी पिछले साल उर्दू और फारसी पढ़ाना शुरू किया था.’’ उन्होंने कहा कि उर्दू अबू धाबी, बांग्लादेश, पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात में भी बोली जाती है और अब ताजिकिस्तान में भी लोकप्रियता हासिल कर रही है.

उर्दू सीखने से उत्पन्न होने वाले काम के अवसरों की बात करते हुए, डॉ. अली ने कहा कि उर्दू में अनुवाद संबंधी काम की कोई कमी नहीं है, जिसे वह समय-समय पर छात्रों को सौंपते हैं.

डॉ अब्बास को समय-समय पर पाकिस्तान के लाहौर में पंजाब विश्वविद्यालय द्वारा उनकी पत्रिकाओं और शोध पत्रों की समीक्षा के लिए आमंत्रित किया जाता है. उन्हें हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग द्वारा ‘गजल कैसे लिखें’ विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था.

अब्बास कहते हैं कि उर्दू समय की कसौटी पर खरी उतरी है. उनका कहना है कि किसी भी भाषा का सफाया करना आसान नहीं है. वह आशावादी हैं, क्योंकि लोग बहुत उत्साह के साथ उर्दू सीख रहे हैं और उन्हें रोजगार के अच्छे अवसर भी मिल रहे हैं.

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