रणबांकुरी बेगम हजरत महल को क्यों नहीं मिली हिंद की सरजमीं

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 11 Months ago
वीरांगना बेगम हजरत महल
वीरांगना बेगम हजरत महल

 

राकेश चौरासिया

बेगम हजरत महल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अद्भुत हस्ताक्षर हैं. जब देश के कई राजा अंग्रेजों के प्रचंड प्रहार से थर्रा रहे थे, तब किसी रानी का विद्रोह करना सचमुच हौसले का काम रहा होगा. ज्यों, झांसी में रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी माटी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध घमासान लड़ाई लड़ी, वैसी ही करारी टक्कर अंग्रेजों को अवध में वीरांगना बेगम हजरत महल के हाथों देखने को मिली. उन्होंने स्वतंत्र भारत और स्वतंत्र अवध के लिए जो कष्ट झेले, उस कालक्रम में सर्वाधिक दुखद बिंदु यह है कि बादशाह बहादुर शाह जफर की तरह बेगम हजरत महल को भी जिंदगी के आखिरी दौर में हिंद की सरजमीं नसीब न हो पाई. उन्हें निर्वासन के दौरान नेपाल में ही दफन होना पड़ा.

बेगम हजरत महल का जन्म 1820 में फैजाबाद में हुआ था. उनके माता-पिता ने उन्हें गुरबत में पाला. उनकी किस्मत उन्हें नवाब के महल तक ले गई. जहां उन्होंने खवासिन के तौर पर अपनी जिंदगी का नया सफर शुरू किया. अपनी कुशाग्रता और बुद्धिमत्ता के कारण उन्हें महल में ‘महक परी’ का खिताब मिला और ताजदारे-अवध नवाब वाजिद अली शाह की उप पत्नी बनीं. उन्हें एक बेटा हुआ बिरजिस क्रद्र और तब मोहम्मदी खानम नाम की इस महिला को ‘हजरत महल’ का खिताब मिला और उन्हें ‘बेगम हजरत महल’ कहा जाना लगा. 

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बेगम हजरत महल  


उधर, अंग्रेजों का सत्ता हड़पो अभियान और अत्याचार अपने शिखर पर थे. इसी क्रम में 1856 के दौरान अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया गया. नवाब के कलकत्ता जाने के बाद, बेगम हजरत महल ने अपने बेटे के साथ लखनऊ में रहकर नाना साहब पेशवा के वरदहस्त से बगावात का झंडा बुलंद कर दिया. उन्हें तब राजा जलाल सिंह और मौलवी अहमद उल्लाह शाह का सक्रिय सहयोग मिला और उनकी बगावत अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गई. वे 1857 से 1858 तक रीजेंट यानी सत्ता-संरक्षक बनीं रहीं. इस बीच अवध की जनता ने उनके बेटे बिजजिस कद्र को अपना वली यानी अगला नवाब तसलीम किया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब रास्ते बनाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को तोड़ा और उनकी बेकद्री की, तो जनता भड़क उठी. जनता के सहयोग से बेगम ने अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट हमले शुरू कर दिए.

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बेगम हजरत महल पार्क लखनऊ


तभी मेरठ में सुअर और गोमांस के चर्बी लगे कारतूस के खिलाफ सैन्य विद्रोह हुआ और पूरे देश में पहले गदर की आग भड़क उठी, जिसकी अवध की ओर से बेगम हजरत महल ने कमान संभाली. जल्दी ही उनकी कयादत में अवध के प्रमुख नगरों तक विद्रोह फैल गया. यहां तक कि अंग्रेजों की लखनऊ रेजीडेंसी ही सलामत बच पाई. कई थाने और चौकियां विद्रोहियों के कब्जे में आ गए. कई अंग्रेज अधिकारी और सैनिक मारे गए. आखिरी दफा, बेगम ने 25 फरवरी, 1858 को हाथी पर बैठकर भीषण लड़ाई में दुश्मन का सामना किया. मगर अंग्रेजों ने बगावत दबाने के लिए भारी बंदोबस्त किया था और उनकी लखनऊ और अवध के अधिकांश हिस्से पर बढ़त हो गई, तो उन्हें पीछे हटना पड़ा. 19 मार्च, 1858 तक मूसाबाग, चार बाग और केसर बाग पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया. रसेल कहते हैं, ‘‘उसने पूरे अवध को उत्साहित कर दिया है. लखनऊ के रेजीडेंसी में गैरीसन को राहत देने के लिए आउट्रम और हैवलॉक कानपुर से भेजे गए थे. विद्रोहियों के साथ कुछ मुठभेड़ों के बाद, आउट्रम 23 सितंबर, 1857 को लखनऊ के क्रांतिस्थल आलम बाग पर कब्जा करने में सफल हुआ.’’

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बेगम हजरत महल  


प्रतिकूल परिस्थितियों में घिरी बेगम को अपने अनुयायियों और पुत्र बिरजिस कद्र के साथ नेपाल जाना पड़ा. नेपाल के राणा जंग बहादुर ने उन्हें शरण देने से इनकार कर दिया. नेपाली अधिकारी विद्रोहियों को शरण देने में हिचकिचा रहे थे. बाद में वे बेगम को इस शर्त पर शरण देने में राजी हो गए कि वे विद्रोही नेताओं या भारत के लोगों के साथ कोई संवाद नहीं करेंगी. उन्हें नेपाल में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जहां उनका बेटा बीमार पड़ गया. ब्रिटिश अधिकारियों तब ऐलान किया, ‘‘बेगम हजरत महल को वे सभी सम्मान प्राप्त होंगे, जो एक महिला और एक शाही घराने के सदस्य के रूप में उन्हें मिलने चाहिए.’’ मगर बेगम हजरत महल ने उनके सामने आत्मसमर्पण नहीं किया.

हालांकि बेगम बाद में नेपाल से भी पलायन की योजना बना रही थीं, लेकिन उसमें सफल नहीं हो सकीं. बेगम ने 1877 में भारत वापस आने की कोशिश की, लेकिन तब अंग्रेजों ने आदेश जारी कर दिया कि बिरजिस कद्र या उनकी मां द्वारा ब्रिटिश भारत में प्रवेश करने के लिए किए गए किसी भी अनुरोध पर विचार नहीं किया जाएगा. यदि वे ब्रिटिश सरकार के क्षेत्र में प्रवेश करती हैं, तो उन्हें सरकार से कोई सहायता या भत्ता नहीं मिलेगा और वे उस जिले के मजिस्ट्रेट की निगरानी में रहेंगी.

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बेगम हजरत महल का मक़बरा  


बेगम हजरत महल भारत नहीं आ सकीं और उन्हें स्थायी रूप से नेपाल में रहना पड़ा. 1879 में, एक महान उद्देश्य हृदय में आत्मसात किए उनकी मृत्यु हो गई. बेगम हजरत महल को काठमांडू के घंटाघर की जामा मस्जिद के मैदान में एक कब्र में दफनाया गया. यह मकबरा प्रसिद्ध दरबार मार्ग के नजदीक है. जामा मस्जिद द्वारा इसकी देखभाल की जाती है. हालांकि जामा मस्जिद का जिस खूबसूरती से जीर्णोद्धार किया गया, उतनी तन्मयता मकबरे के संरक्षण में नहीं दिखती है.

एक लेखक काजिम रिजवी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि नेपाल में बेगम ने अपने पैसे से एक महल, एक इमामबाड़ा और एक मस्जिद बनवाई थी. जब वे काठमांडू गए, तो उन्होंने मकबरे की खोज-खबर की. मगर अधिकारियों को उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है. इमामबाड़े की जगह अब बड़ा बाजार बन गया है. बहुत पूछताछ करने पर उन्हें एक जीर्ण-शीर्ण हालत में कब्र का पता चला. लोगों ने बताया कि यह बेगम हजरत महल की कब्र है. यह एक छोटी और खुली कब्र है. लोगों ने पहचान के लिए इसके चारों ओर एक छोटा सा घेरा बना दिया है, लेकिन कोई विवरण पट्टिका नहीं है.