ईद की तैयारियां और जामा मस्जिद इलाके में रौनक़े

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 18-04-2023
ईद की तैयारियां और जामा मस्जिद इलाके  में  रौनक़े
ईद की तैयारियां और जामा मस्जिद इलाके में रौनक़े

 

फ़िरदौस ख़ान

दिल्ली की जामा मस्जिद अपने आप में एक पूरा इतिहास समेटे हुए है. यूं तो यहां हर रोज़ रौनक़ छाई रहती है, लेकिन रमज़ान के महीने में इसे चार चांद लग जाते हैं. जैसे-जैसे ईद क़रीब आने लगती है, यहां का माहौल और भी ज़्यादा ख़ुशनुमा होने लगता है. मस्जिद की रूहानियत और बाज़ार की चहल-पहल बरबस ही सबको अपनी तरफ़ खींचती है.   

अमूमन दिन में तो यहां भीड़भाड़ रहती ही है, लेकिन ईद के आसपास के दिनों में यहां के बाज़ार रात में भी खुलने लगते हैं. फिर क्या दिन और क्या रात. यहां सब बराबर हो जाते हैं. शाम को सूरज गु़रूब हो जाता है, तो बिजली के बल्ब फ़िज़ा को रौशनी से सराबोर कर देते हैं. नन्ही-नन्ही रौशनियां बहुत ही भली लगती हैं. गोया आसमान के सितारे ज़मीन पर उतर आए हों.

क़ाबिले ग़ौर है कि माहे रमज़ान में यहां ख़ूब सजावट की जाती है. सुनहरी, चांदी के रंग की, लाल, हरी, नीली, पीली झालरें और रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियां लगाई जाती हैं, जो ईद के कुछ दिन बाद तक लगी रहती हैं.    

रमज़ान में पुरानी दिल्ली के मीना बाज़ार की रौनक़ का तो कहना ही क्या. दुकानों पर चमचमाते ज़री वाले व अन्य वैरायटी के कपड़े, नक़्क़ाशी वाले पारम्परिक बर्तन और इत्र की महक के बीच ख़रीददारी करती औरतें और उनके साथ में चहकते बच्चे, दिल में कितना ख़ुशनुमा अहसास जगाते हैं.

सजी-धजी छोटी-छोटी बच्चियां तो ऐसी लगती हैं जैसे नन्ही परियां सड़क पर चहल क़दमी कर रही हैं. औरतें अपने बच्चों को ईद के कपड़े और जूते दिलवा रही हैं. बच्चियां हील वाले सैंडिल लेने की ज़िद कर रही हैं और मां के मना करने पर मचल जाती हैं.

jama masjid

मां उन्हें मनाने के लिए आईसक्रीम दिलाने का वादा करती है और बच्चियां मान भी जाती हैं. हर बच्चे की अपनी पसंद और अपनी ही ज़िद है. और दुकानदार भी बच्चों की ज़िद को अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए वे उनकी पसंद की गई चीज़ पर एक पैसा भी कम नहीं करते.  

रमज़ान में तरह-तरह का नया सामान बाज़ार में आने लगता है. लोग रमज़ान आते ही ईद की ख़रीददारी शुरू कर देते हैं. डिनर सेट, लेमन सेट, मग, कप, प्लेटें और भी न जाने क्या-क्या ख़रीदा जा रहा है. इफ़्तार दावतों के अलावा ईद की दावतों के लिए भी नया सामान चाहिए.

आधी रात तक बाज़ार सजते हैं, लेकिन ईद के क़रीब तक़रीबन पूरी रात बाज़ार खुले रहते हैं. इस दौरान सबसे ज़्यादा कपड़ों की ख़रीददारी होती है. दर्ज़ियों का काम बहुत बढ़ जाता है. वे दिन-रात सिलाई में ही जुटे रहते हैं.

हालत ये हो जाती है कि उन्हें ग्राहकों के कपड़े वापस करने पड़ते हैं. दर्ज़ी शहज़ाद आलम का कहना है कि ज़्यादातर लोग रमज़ान में ही ईद के कपड़े ख़रीदना पसंद करते हैं. लोग ख़ासकर औरतें अलविदा जुमे से पहले ही कपड़े सिलवा लेना चाहती हैं. इसलिए रमज़ान में काम बहुत ज़्यादा बढ़ जाता है. कारीगर ढूंढने से भी नहीं मिलते. मजूबरन उन्हें कपड़े वापस लौटाने पड़ते हैं.

अमूमन रमज़ान के सभी जुमो को नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने को अच्छा माना जाता है. वैसे भी अलविदा जुमे को नये कपड़े पहनकर नमाज़ पढ़ने का दस्तूर है. हर बार नये डिज़ाइनों के कपड़े बाज़ार में आते हैं. नेट, शिफ़ौन, जॉरजेट पर कुन्दन वर्क, सिक्वेंस वर्क, रेशम वर्क और मोतियों का काम औरतों को ख़ासा लुभाता है.

इसके अलावा सदाबहार चिकन का काम भी ख़ूब पसंद किया जाता है. पुरानी दिल्ली के कपड़ा कारोबारी शाकिर अली कहते हैं कि बाज़ार में जिस चीज़ की मांग बढ़ने लगती है, हम उसी को मंगवाना शुरू कर देते हैं. ईद के महीने में शादी-ब्याह भी ज़्यादा होते हैं.

इसलिए माहे रमज़ान में शादी की ख़रीददारी भी जमकर होती है. ग़ैर मुस्लिमों में लहंगे का चलन ज़्यादा है, जबकि मुस्लिम शादियों में आज भी पारम्परिक पहनावे ग़रारे को ख़ासा पसंद किया जाता है. ये जहां देखने में ख़ूबसूरत लगता है, वहीं ये अपनी पुरानी शानदार रवायत को भी क़ायम रखे हुए है.

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चूड़ियों और मेहंदी के बिना ईद की ख़रीददारी अधूरी है. रंग-बिरंगी चूड़ियां सदियों से औरतों को लुभाती रही हैं. चूड़ियों के बग़ैर सिंगार मुकम्मल नहीं होता. बाज़ार में तरह-तरह की चूड़ियों की बहार है, जिनमें कांच की चूड़ियां, लाख की चूड़ियां, सोने-चांदी की चूड़िया और मेटल की चूड़ियां शामिल हैं.

सोने की चूड़ियां तो अमीर तबक़े तक ही महदूद हैं. ख़ास बात ये भी है कि आज भी औरतों को पारम्परिक कांच की रंग-बिरंगी चूड़ियां ही ज़्यादा आकर्षित करती हैं. बाज़ार में कांच की नगों वाली चूड़ियों की भी ख़ासी मांग है.

कॉलेज जाने वाली लड़कियां और कामकाजी औरतें मेटल और प्लास्टिक की चूड़ियां पहनना ज़्यादा पसंद करती हैं, क्योंकि इनके खनकने की आवाज़ धीमी होती है और ये टूटती भी नहीं हैं, जबकि कांच की नाज़ुक चूड़ियां ज़्यादा दिनों तक हाथ में नहीं टिक पातीं और जल्दी ही चटख़ जाती हैं.

अल अशफ़ाक़ ज्वैलर्स के मालिक मुहम्मद कामरान और मुहम्मद रिहान का कहना है कि रमज़ान में ख़ास तौर पर ईद के आसपास ग्राहकों की आमद बहुत बढ़ जाती है, लेकिन अब वह पहले वाली बात नहीं रही. बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी का असर हर जगह देखने को मिल रहा है.

वैसे बाज़ार में आर्टिफ़िशियल ज्वैलरी की मांग कम ही सही, मगर बरक़रार है. सोने और चांदी की बढ़ती क़ीमतों और नित नये फ़ैशन की वजह से लड़कियां और औरतें आर्टिफ़िशियल ज्वैलरी ख़रीदना ज़्यादा पसंद करती हैं.

इनके कई फ़ायदे हैं. पहला यह कि ये सोने और चांदी से बहुत सस्ती हैं और इन्हें सहेज कर भी नहीं रखना पड़ता और दूसरा ये कि जब दिल भर जाए, तो नई चीज़ ख़रीद लो. लूटमार की घटनाओं की वजह से भी लड़कियां और औरतें आर्टिफ़िशियल ज्वैलरी पहनना पसंद करती हैं. वे बताते हैं कि ईद के दौरान सहरी तक बाज़ार खुला रहता है और वे भी तक़रीबन इसी वक़्त अपने घर जाते हैं. फिर सुबह 10बजे के आसपास दुकान खोलते हैं.

इसके अलावा मस्जिदों के पास लगने वाली हाटें भी रमज़ान की रौनक़ को और बढ़ा देती हैं. इत्र, लोबान और अगरबत्तियों की ख़ुशबू माहौल को महका देती है. इत्र जन्नतुल-फ़िरदौस, बेला, गुलाब, चमेली, हिना, शमामा आदि ख़ूब पसंद किया जाता है.

रमज़ान में मिस्वाक से दांत साफ़ करना सुन्नत माना जाता है. इसलिए इसकी मांग भी बढ़ जाती है. रमज़ान में टोपियों की बिक्री भी ख़ूब होती है. पहले लोग लखनवी दुपल्ली टोपी ज़्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब टोपियों की नई वैरायटी पेश की जा रही हैं.

अब तो लोग मुख़्तलिफ़ सूबों की तहज़ीब से सराबोर पारम्परिक टोपियां भी पसंद कर रहे हैं. इसके अलावा अरबी रुमाल भी ख़ूब बिक रहे हैं. चादरें, बुर्क़े और हिजाब भी बिक रहे हैं. रमज़ान के मौक़े पर इस्लामी किताबों और तक़रीर, नअत, हम्द, क़व्वालियों की डीवीडी की मांग भी ख़ूब बढ़ जाती है.

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ज़ायक़ा

जामा मस्जिद का इलाक़ा अपने ख़ास और लज़ीज़ खानों के लिए बहुत मशहूर है. यहां हर तरफ़ ज़ायक़ेदार व्यंजनों की भरमार रहती है. रमज़ान के महीने में तो ज़ायक़ेदार पकवानों में इज़ाफ़ा हो जाता है. चूंकि जामा मस्जिद में इफ़्तार होता है और दूर-दूर से लोग यहां रोज़ा खोलने के लिए आते हैं. इसलिए यहां पर सहरी और इफ़्तार दोनों का ही सामान मिलता है.

कई जगह सहरी का भी इंतज़ाम है. यहां फैनी, सेवइयां, खजला और मीठी डबल रोटी भी मिल रही है. सहरी में नहारी और रोटी भी ख़ूब बिक रही है.इफ़्तार के पकवानों की फ़ेहरिस्त बहुत ही तवील है. अमूमन रोज़ा खजूर से खोला जाता है. इसलिए यहां कई क़िस्मों की खजूरें मिल रही हैं, लेकिन अजवा खजूर सबसे ज़्यादा पसंद की जा रही है.

दिनभर के रोज़े के बाद रोज़ेदार शिकंजी, रूअफ़ज़ा और तरह-तरह के शर्बत पीना पसंद करते हैं. पुरानी दिल्ली का मुहब्बत का शर्बत भी बहुत मशहूर है, जो तरबूज़ और दूध से बनाया जाता है. इसके अलावा सेब का शर्बत, मैंगो शेक और गन्ने का रस भी ख़ूब पसंद किया जा रहा है. यहां फलों की चाट भी मिलती है.

  जामा मस्जिद के पास लज़ीज़ खानों की बहार है. इंसान सोचता है कि वह क्या खाये और क्या छोड़े. पनीर, आलू, पालक और मिर्च के पकौड़े भी मिल रहे हैं. क़ीमे के समौसे और क़ीमे की गोलियां भी मिल रही हैं. खाने में बिरयानी, नहारी, क़ौरमा, क़ीमा, नरगिसी कोफ़्ते, शामी कबाब, सींक कबाब, चिकन चंगेज़ी, कढ़ाही गोश्त, चिकन टिक्का, फ़्राई चिकन, तन्दूरी चिकन, फ़िश फ़्राई व गोश्त से बने अन्य लज़ीज़ पकवान भी मिल रहे हैं.

यहां कई क़िस्म की रोटियां भी मिल रही हैं, जिनमें नान, दूध की रोटी और रुमाली रोटी भी शामिल है. इसके अलावा बाकरखानी भी ख़ूब बिक रही है. मीठे में रबड़ी, ज़र्दा, शाही टुकड़े, फिरनी, जलेबियां, शीरमाल और हलवा-परांठा भी ख़ूब पसंद किया जा रहा है.

चांद रात को यहां मेहंदी वाले भी बैठे रहते हैं. रातभर लड़कियां और औरतें मेहंदी लगवाती हैं. सबकी कोशिश यही होती है कि उनकी मेहंदी सबसे अच्छी हो. फूलों के गजरे वाले भी बेला की कलियों के गजरे बनाते हैं. कई गजरों में गुलाब के फूल भी शामिल होते हैं. इनकी महक माहौल को रूमानी बना देती है. 

ईद क़रीब है, इसलिए यहां भीड़ बहुत बढ़ ज़्यादा गई है. दिन में ही नहीं, लोग रात में भी ख़ूब ख़रीददारी कर रहे हैं. इनमें औरतों और बच्चों की तादाद सबसे ज़्यादा है. पुरानी दिल्ली की हुमैरा कहती हैं कि वे रात में ख़रीददारी करती हैं, क्योंकि रमज़ान में मसरूफ़ियत बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है.

घर के कामकाज के अलावा तिलावत भी करनी होती है. फिर रोज़े की हालत में गर्मी और तेज़ धूप में निकलना दुश्वार हो जाता है. इसलिए वे रात में तरावीह के बाद ही बाज़ार जाती हैं. उनके परिवार की औरतें भी रात में ख़रीददारी करती हैं.

बहरहाल, जामा मस्जिद दुल्हन की तरह सजी हुई है. बाहर ने आने वाले लोग दिल्ली आएं, तो जामा मस्जिद ज़रूर जाएं. अगर दिल्ली में जामा मस्जिद और मीना बाज़ार नहीं देखा, तो फिर क्या देखा.

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)