सैयद हसन इमामः अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम यकजहती के सख्त पैरोकार

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 19-04-2023
सैयद हसन इमाम
सैयद हसन इमाम

 

राकेश चौरासिया

सैयद हसन इमाम ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और सितंबर 1918 में चुने गए. वे बदरुद्दीन तैयबजी, रहीमतुल्ला एम. सयानी और नवाब सैयद मुहम्मद बहादुर के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले चौथे मुस्लिम थे. सैय्यद हसन इमाम पूरी तरह कौमी ख्याल के थे.

उन्होंने अलग मुस्लिम इंतखाबी हलकों की जोरदार मुखालिफत की थी. यह प्रस्ताव सन् 1911 के इलाहाबाद के कांग्रेस-कांफ्रेंस में लाया गया था. 1923 में उन्होंने लीग ऑफ नेशंस में भारत की ओर से प्रतिनिधित्व किया.

1930 में वह पटना से सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल हुए. हसन इमाम का मानना था कि हिन्दू-मुसलमान की बुनियाद पर मुल्क हमेशा नुकसान उठाता रहा है. इसलिए किसी भी तरह इन दोनों में एका बना रहना चाहिए. उन्होंने एक स्वदेशी लीग बनायी, जिसके जरिये सभी को साथ लेकर स्वदेशी आंदोलन की कयादत की, जो कि बहुत ही कामयाब रहा.

सरजमीन-ए-हिन्द ब्रितानी दौर के दीवानी कानून की दुनिया में बैरिस्टर सैय्यद हसन इमाम का कोई हमसफर नहीं पैदा कर सकी. हिंदू लॉ के सिलसिले में हसन इमाम नामचीन जानकार रहे. हिन्दुओं के कानून को सामने रखकर जब वो बहस करते थे तो शास्त्रों और वेदों के हवालों से ऐसे नुक्ते पेश करते कि बड़े-बड़े संस्कृत जानने वाले पंडित भी हैरान रह जाते थे.

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उनके पूर्वजों में से एक मुगल बादशाह औरंगजेब के निजी शिक्षक थे. हसन इमाम के पिता पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर थे. अपनी पहली पत्नी से, सैयद हसन इमाम का एक बेटा सैयद मेधी इमाम थे, जो हावड़ा और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षित थे और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक बैरिस्टर और लैटिन और ग्रीक के विद्वान थे. हसन इमाम के पोते बुलू इमाम मानवाधिकार प्रचारक हैं और वन्यजीव विशेषज्ञ हैं.

भारत के बेहतरीन बैरिस्टरों में से एक माने जाने वाले कुछ बैरिस्टर जैसे चित्तरंजन दास (सी.आर. दास) और एच.डी. बोस आदि हसन को ब्रिटिश भारत का सर्वश्रेष्ठ बैरिस्टर मानते थे. वह सर सुल्तान अहमद और सैयद अब्दुल अजीज सहित अपने स्वयं के तत्काल परिवार के अलावा कई अन्य बैरिस्टरों से संबंधित थे. हसन इमाम के कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से पढ़े-लिखे भतीजे सैयद जाफर इमाम भी उनके दामाद थे और बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज बने.

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इमदाद इमाम के बेटे और स्वतंत्रता सेनानी सर अली इमाम के छोटे भाई हसन इमाम का जन्म 31 अगस्त 1871 को बिहार के पटना जिले के नेओरा गांव में हुआ था. विश्वास से वह एक शिया मुसलमान, प्रतिष्ठित और शिक्षित जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे. स्कूली शिक्षा के बाद, अस्वस्थता के बावजूद वह जुलाई 1889 में इंग्लैंड के लिए रवाना हुए. वहाँ रहते हुए, उन्होंने 1891 में इंग्लैंड के आम चुनाव के दौरान दादाभाई नौरोजी के लिए सक्रिय रूप से प्रचार किया. उन्हें 1892 में बार में बुलाया गया. वे उसी वर्ष घर लौट आए और कलकत्ता उच्च न्यायालय में कानून का अभ्यास शुरू किया. हसन इमाम 1912 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने.

मार्च 1916 में पटना उच्च न्यायालय की स्थापना पर, इमाम ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया और पटना में अभ्यास शुरू किया. 1921 में, उन्हें बिहार और उड़ीसा विधान परिषद का सदस्य नामित किया गया था. 1908 के बाद से उन्होंने राजनीतिक मामलों में भाग लिया. अक्टूबर 1909 में, उन्हें बिहार कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना गया और अगले महीने उन्होंने बिहार छात्र सम्मेलन के चौथे सत्र की अध्यक्षता की. उन्होंने 1916 में जजशिप से इस्तीफा देने के बाद बड़े पैमाने पर राजनीतिक गतिविधियां फिर से शुरू की. हसन इमाम उन प्रमुख भारतीय नेताओं में से एक थे, जिन्होंने नवंबर 1917 में भारत के राज्य सचिव मोंटेग्यू से मुलाकात की थी और उनके द्वारा ‘दुनिया के असली दिग्गज’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया था. उन्होंने मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना पर विचार करने के लिए बॉम्बे, 1918 में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष सत्र की अध्यक्षता की. यह एक महत्वपूर्ण, लेकिन कठिन सत्र था, क्योंकि योजना की खूबियों पर राय बहुत विभाजित थी. संचालन हसन इमाम ने किया. यह उनकी राय थी, जहां उन्होंने सोचा था कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शत्रुतापूर्ण वातावरण ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करना असंभव बना देगा.

हसन इमाम एक कट्टर संविधानवादी थे और उन्होंने खिलाफत आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई. वे 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल हुए और पटना में गठित स्वदेशी लीग के सचिव चुने गए. उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और खद्दर के उपयोग के लिए सक्रिय रूप से अभियान चलाया.

इससे पहले 1927 में, उन्होंने बिहार में साइमन कमीशन के बहिष्कार की ‘सफलता के लिए भौतिक रूप से योगदान दिया’. हसन इमाम सामाजिक सुधारों विशेष रूप से महिलाओं और दबे-कुचले वर्गों की स्थिति में सुधार के प्रबल समर्थक थे.

टिकरी बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के सदस्य के रूप में उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए योजनाओं को बढ़ावा दिया. उन्होंने कंपनी और शाही शासन दोनों के तहत देश के आर्थिक शोषण को उजागर किया. वे बिहार के प्रमुख अंग्रेजी दैनिक बिहारी के न्यासी बोर्ड के अध्यक्ष रहे और वह सर्चलाइट के संस्थापकों में से एक थे.

मगर अफसोस की बात है कि हसन इमाम स्वतन्त्र भारत नहीं देख सके और 19 अप्रैल 1933 को उनकी मृत्यु हो गई. उन्हें बिहार और झारखंड की सीमा के पास पलामू जिले के एक शहर जपला में सोन नदी के तट पर दफन हो गए.