कुछ परिस्थितियों में नफरत एक पॉलीटिकल टूल बन जाता हैः सईद नक़वी

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 04-04-2023
सईद नक़वी
सईद नक़वी

 

एक ऐसे दौर में जब मुसलमानों को लेकर खास किस्म की भावना फैलाई जा रही है और ऐसे दुष्प्रचार होने लगे हैं कि मुसलमान तो आतंकवादी हैं, पंचर लगाते हैं. स्वीपिंग स्टेटमेंट केइस दौर में वरिष्ठ पत्रकार सईद नक़वी की किताब आई है, कहां गए मुसलमान. यह किताब कितनी अहम हैं, इसपर आवाज- द वॉयस के डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने सईद नकवी से बात की. पेश हैं इस साक्षात्कार के मुख्य अंशः

सवालः इस किताब की जरूरत आज के दौर में क्यों पड़ी?

सईद नक़वीः अच्छा होता अगर आप पूछते कि आप इस किताब को आज के वक्त में ड्रामाई रूप में क्यों लेकर आए. (हंसते हैं) जरूरत ही ऐसी थी. आप हमसे नफरत नहीं करते, लेकिन नफरत एक पॉलिटिकल टूल बन जाता है कुछ परिस्थितियों में. जिसमें लोगों को घेरकर एक नए किस्म का वोट बैंक बनाया जाता है. असल में, दो समानांतर तत्व हैं जिनमें से एक को जानबूझकर छोड़ देते हैं. सांप्रदायिकता एक राजनैतिक प्रोजेक्ट है. जाति, एक सामाजिक आदत है. इन दोनों का जब देखते हैं तो एक विस्फोट होता है.

बारह सौ साल से, जब से मुसलमान हिंदुस्तान में आए तब से अब तक कुछ अच्छे काम भी किए होंगे. जैसे बाबर, दारा शिकोह जैसे हजारों नाम हैं. यह वक्त है कि उनके नाम को याद किया जाए.

लेकिन यह नफरत कहां से पैदा हो गई और नफरत अगर हुई. बीच-बीच में गो-हत्या के ऊपर, यानी आजादी से पहले, गौ पर या मस्जिद में किसी ने सूअर फेंक दिया. या इस किस्म के झगड़े पर दंगे हो जाया करते थे और उसमें गाय खास बात थी. अटल जी ने एक बहुत बड़ा काम किया. उन्होंने धर्मपाल नाम के एक गांधीवादी विद्वान थे, उन्होंने एक काम उनके सुर्पुद किया.

उन्होंने कहा कि गाय वाले मामले पर गौर करके एक किताब तैयार की जाए. लोग उस किताब को भूल गए. धर्मपाल बहुत सीधे-सादे गांधीवादी थे. वह जनाब विलायत चले गए वहां उन्होंने वहां नेशनल म्यूजियम और आर्काइव में बैठकर उन्होंने रिसर्च की और रिसर्च करने के बाद एक किताब उन्होंने निकाली. उसका कवर बहुत दिलचस्प है. रानी विक्टोरिया अपने वॉयसरॉय लेंसडाउन को एक खत लिख रही है, बहुत ही आवेगपूर्ण रानी थीं. उनका अपना पर्सनल खत था उनके नाम, कि तुमने बहुत अच्छा काम किया है कि गो-हत्या के मामले में जो विरोध प्रदर्शन था, उसको तुमने रोक दिया. (सईद नकवी किताब दिखाते हैं)

रानी कह रही हैं कि गोहत्या पर तुमने बहुत अच्छा काम किया, तुमने रोक दिया क्योंकि हम और तुम दोनों जानते हैं कि गोवध का जितना आरोप उन पर है, उससे ज्यादा हमलोग काटते हैं अंग्रेज काटते हैं.

किस्सा यह है कि 1857 में तकरीबन जब यह अंग्रेज पिट गए थे, अगर कुछ दलों ने इनकी मदद नहीं की होती, जबकि हिन्दू मुसलमान एक साथ होकर लड़ रहे थे. तो उसके बाद उन्होंने देखा कि एक तो इस हिन्दू और मुसलमान को एक साथ रखना नहीं है. यह उनके शासन के लिए खतरनाक है. और दूर रखने के लिए बहुत अच्छी ट्रिक थी गोहत्या.

क्योंकि फौजी ज्यादा आ गए थे, ज्यादा बुलाए गए थे विलायत से, और ब्रिटिश फौजी 1857 के बाद कहीं ज्यादा हो गए थे. लिहाजा, बीफ की जरूरत उन्हें अधिक थी. ये किताब उसकी गवाह है. समस्या यह थी कि काटते मुसलमान थे क्योंकि वह कसाई थे. जो बकरे काटता था, मुर्गे काटता था. लिहाजा जब इसकी जरूरत पड़ी तो अंग्रेज ने कहा, बेटा इसे भी काट ले. जब झगड़ा कराना होता तो कहते कि देखो ये काट रहा है. तो एक झगड़ा तब से शुरू हुआ.

तो सांप्रदायिकताके पॉलिटिकल प्रोजेक्ट और जाति के सोशल एलिमेंट का संगम कैसे और कहां हुआ. संगम हुआ 1989 में. 1989 में कुछ दिनों के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपनी कुर्सी बचाने के लिए मंडल कमीशन की वह रिपोर्ट, जो कि 27 फीसद सरकारी नौकरियां, ओबीसी को देने के लिए थी, उसे लागू करने का उन्होंने फौरन ऐलान कर दिया.

राजीव गोस्वामी नाम का एक लड़का था जो देशबंधु कॉलेज में पढ़ता था. वह एम्स के चौराहे पर उसने आत्मदाह करने की कोशिश की. उसके बाद यह नीची जाति और ऊंची जाति का झगड़ा बढ़ गया. इत्तेफाक से मुसलमानों ने एक बहुत बड़ी बेवकूफी की कि उस वक्त कांग्रेस पार्टी ने सॉफ्ट सैफरन रंग ओढ़ना शुरू कर दिया था. ऐसा इसलिए क्योंकि जेपी आंदोलन 1973-74 से उसको चोट लगी. उसके बाद 1977 में पहली बार में जनता पार्टी ने कांग्रेस को सिंहासन से उतार दिया. जब उसके बाद पलट कर आई इंदिरा गांधी, तो उनको यह समझाया गया था कि मुसलमान वोटबैंक की बात चल निकली है, उससे हिंदू नाराज हो रहा है. तुष्टिकरण की बात हो रही है. अब तुम्हें बहुसंख्यक वोटों की तरफ भी निगाह रखनी होगी.

एक वजह और थी, वह थी पंजाब सूबा जो बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया था. हिंसक हो गया था. इंदिरा गांधी ने 1983 का इलेक्शन जम्मू में जब लड़ा तो वह एंटी-माइनॉरिटी प्लैंक पर लड़ा, यानी उनकी नजर में सिख थे लेकिन अल्पसंख्यक का शब्द तो विस्तार लेता गया.

1984 में जब इंदिरा की हत्या हो गई और राजीव गांधी अपना इलेक्शन जीत गए और उन्हें तीन-चौथाई बहुमत मिला. इतना बड़ा बहुमत जवाहरलाल नेहरू को भी नहीं मिला था. पार्टी तब तक सयानी हो गई थी. हम तो ये समझ रहे थे कि इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से एक सहानुभूति वोट राजीव को मिला.

लेकिन, नहीं. ऐसा कत्तई नहीं है. बड़े-बड़े चिंतन बैठक हुई, हमारे घर आकर उन्होंने चिंतन बैठक बनाई. नाम बता दूंगा कभी, वह सब. हमने कहा कि नहीं साहब, आप बात को नहीं समझ रहे हैं, कहा कि ये बहुत बड़ा हिंदू वोटो का एकजुट होना हुआ है राजीव गांधी की तरफ, कांग्रेस की तरफ.

हिन्दू ध्रुवीकरण जो आजकल बीजेपी की तरफ से बढ़ाया जा रहा है वह उस समय कांग्रेस की पॉलिसी के अंदर आ चुका था. अब मियां कहां जाए, न घर का ना घाट का. बंटवारे के बाद बैठ गया था कांग्रेस की गोदी में और इत्मिनान से देखता था, लोग कहते थे कि देखो इसको दुलार किया जा रहा है. अब कितना दुलारा था वह सचाई तो सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने 2005 में बयान कर दिया कि हर विकास सूचकांक में वह सबसे नीचे आ चुका है. एससी और एसटी से भी नीचे. यह तो उसकी हालत है.

अब ये कहां जाए सवाल यही था. लोगों ने समझाया कि भाई ये कास्ट पार्टीज बनी हैं, जातीय पार्टियां. सबकी नजर यूपी-बिहार में गईं. खासकर यूपी में जातीय पार्टियों का उदय हुआ था. बिहार का समाजशास्त्र, यूपी के सोशियालॉजी से मुख्तलिफ है.

यूपी में जातीय शक्तियों का उदय हुआ और वह ये रेस्ट कर रही हैं पावर को, उस स्टेट में जहां पंडित गोविंद वल्लभ पंत,कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी, जिनके भी हाथ में सत्ता थी, उनसे ये सत्ता लेने की कोशिश कर रहे थे. मुसलमानों की समझ में नहीं आया किधर जाए, उधर जाए या उधर जाए.

उसने आंख बंद की, और चला गया मुलायम सिंह के साथ और कुछ मायावती के साथ. चौंका, सिर्फ नींद से, देखा कि उधर सिर्फ यादवों का हो रहा है और इधर सिर्फ दलितों हो रहा है. मुसलमान अंगूठा चूसता रह गया. तो सोचा कि हम किधर जाए.

लेकिन उस वक्त मुसलमान ने जो किया उससे सत्ताधारी वर्ग की समझ में आया कि हिन्दुस्तान की सियासत में आजादी के बाद मुसलमान ने पहली दफा हिंदुओं के अंदरूनी जातीय झगड़े में दखल देकर इस जातीय पिरामिड को पलट देने की कोशिश की.

इसका कोई समाधान नहीं था. अच्छा मियां भाई, अभी तक तुमसे धर्मांतरण की शिकायत थी कि अतीत में तुमने ये कर लिया. ये कभी नहीं था कि तुम पॉलिटिक्स में हिस्सा लेकर तुमने खेल शुरू कर दिया है. यह वातावरण था यानी जाति और सांप्रदायिकता.

जब यह ताकते खड़ी होने लगीं तो सबने सोचा और मैं अगर ब्राह्मण मंडली में होता तो मैं भी सोचता कि इससे बचने का सिर्फ एक ही तरीका है, हिन्दुओं की लामबंदी. मुसलमान को टार्गेट करो ताकि ये नीचे वाले जो हैं मुलायम के चक्कर में, ये वापस हिन्दू छत्रछाया में आ जाएं.

सवालः आपकी किताब पढ़ते हुए मुझे कुछ खटका है. किताब में जो अग्रिम प्रशंसा वाला चेप्टर हैं, उसमें इजराइल के जो बुद्धिजीवी हैं क्लिंटन विली, जो इतिहासकार भी हैं और बेडविन संस्कृति के विशेषज्ञ भी हैं, उन्होंने आपके बारे में एक पंक्ति लिखी है कि “नकवी तो वैसे मुसलमान हैं लेकिन उनकी सच्ची आस्था उस भारत में है”, अब इसमें एक शब्द हैं “वैसे तो मुसलमान है”, तो वैसे तो मुसलमान क्यों?

सईद नक़वीःकोई ऐसी बात नहीं है. मैं महज मुसलमान नहीं हूं और आप महज हिन्दू नहीं हैं, मैं मुसलमान घर में पैदा हुआ तो कुछ वहां से सीखा, कुछ क्रिएट किया. इस वातावरण में हमारे स्कूल, कॉलेज का असर पड़ा, देश का असर पड़ा, मेरे दोस्तों का असर पड़ा, मेरे लिटरेचर का असर पड़ा, मेरे नेताओं का असर पड़ा ये सब मैं हूं. और उसके बाद यहां कि ऐसा था. अरे बाप रे बाप, ठाकुर तुम तो ऐसी जगह लिए जा रहे हो हमें... (हंसते हैं)

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

क्या-क्या मैं लिखूं किशन कन्हैया का बालपन

अगर मैं महज मुसलमान होता तो नजीर अकबराबादी के इस गीत के साथ मैं झूमता नहीं जाता. मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना थे, नमाज पढ़ते थे पांच वक्त की. संविधान सभा के मेंबर थे, लेकिन कभी बंगले में नहीं ठहरे, मस्जिद अब्दुल नबी जो टाइम्स ऑफ इंडिया के पीछे हैं वहीं चटाई पर सोते थे. लेकिन हज आठ बार किया. हज अपूर्ण होता था अगर वह बरसाना जाकर राधा के दर्शन न कर लें.

वह (मौलाना हसरत मोहानी) कहते हैं कि ये गोकुल का छोरा, ये अबीर गुलाल फेंक कर उसे परेशान करता है. एक दिन इसे मैं अपनी छाती से लगा कर भींचूंगा कि उसकी सारी शरारत निकल जाएगी.

अब इस भींचूंगा में एक अजीब व गरीब जुनून है. शाह अब्दुल रज्जाक बाराबंकी में एक दरगाह है, उनका यह मानने वाले थे. शाह अब्दुल रज्जाक का ये मानना है कि वह भगवान कृष्ण से बात करते थे.

यह जो पूरा एक कल्चर है जो मैं सुना-सुनाकर बोर हो गया हूं, लोग बोर हो गए मैं नहीं हुआ. हमारा सबसे ज्यादा पसंदीदा सोहर, जब औरत को बच्चा होने वाला होता है, तो उस वक्त सोहर गाया जाता है. हमारे यहां क्या था सोहर कि “अल्लाह मियां हमरे भैया को दियो नंदलाल’ओ माइ अल्लाह गिव माइ ब्रदर ए सन लाइक लॉर्ड कृष्णा.

हजरत बीबी यानी रसूल की बेटी, वह बैठी हुई हैं और हजरत अली साहब जंग पर गए और शाम हो गई, अंधेरा हो गया वापस आए नहीं. तो सुगरा तोता, संस्कृत और अवधी लिटरेचर में संदेशवाहक है तो वह सुगरा से कहती हैं, सुगरा तू जा अली साहब को ढूंढ, वह कहीं न मिल्यो तो वृंदावन जरूर जइयो. अब आप इसको क्या कहेंगे, मैं कैसा मुसलमान हूं.

यही एक रास्ता है मेरे हिसाब से, मैंने यहां की बातें की. आप काजी नजरुल इस्लाम. टैगोर ने दो राष्ट्र गीत लिखे हैं, हमारी और बांग्लादेश की. लोग कहते हैं कि श्रीलंका की भी, उसके बारे में मुझे मालूम नहीं. बहुत सेक्युलर आदमी थे भगवान का कहीं तज़किरा नहीं किया.

अंग्रेजनुमा भी थे किसी हद तक. वह शायर जिसके यहां तांडव, शक्ति, काली से कोई कविता खाली नहीं है, वह थे काजी नजरुल इस्लाम. आपने उसको बनाया दिया बांग्लादेश में. आप केरल चले जाए. कथकली मंडलम हैदर अली ये सबसे बड़ा आर्टिस्ट थे, चिन्ना मौलाना साहब तमिलनाडु में नादस्वरम जो साउथ में शहनाई से थोड़ा बड़ा वाद्ययंत्र है उसके आर्टिस्ट हैं.

सवालः 90 के दशक में दूरदर्शन पर आप का एक कार्यक्रम आता था सईद नकवी का मेरा भारत, उस के 35 एपिसोड थे शायद. उस जमाने से लोगों के बीच जो पेश कर रहे हैं लोगों मे एकता होनी चाहिए, कल्चरल, हमारी जो गंगा जमुनी तहजीब है. वहां से कहां तक हालात सुधरी है या खराब हुई.

सईद नक़वीः एक जमाने में सुधर गई थी. बड़े मजे की बात बताऊं. मैंने एक किताब लिखी थी रिफ्लेक्शंस ऑफ रिलीजियस फेथ जो 1993 में आई थी. उसमें यह सब फैक्ट थे. उस किताब को रिलीज किया निखिल चक्रवर्ती थे. जो जर्नलिस्ट थे और कम्युनिस्ट थे. चीफ गेस्ट मंच के ऊपर डॉ. मुरली मनोहर जोशी थे जो आरएसएस से थे. यानी यह एक ऐसी चीज थी जिसको हर एक दिल से लगा रहा था. आरएसएस के  सरसंघचालक सुदर्शन जी भी नोट्स लेने लगे. ये नहीं के उनको कोई कहने गया था एक बात चली थी. अब यह बात कुछ लोगों को पसंद नहीं आया.

मैं पैसा बनाने नहीं आया था वह मेरा शौक था, मेरी आस्था थी. वही रफ़्तार बेढंगी जो पहले थी वह अब भी है.

सवालः यह किताब है कहां गए मुसलमान, मैं इस किताब में पाया कि एक दिन आप अचानक उठते हैं और आप देखते हैं कि आपके आसपास जितने मुसलमान रहते हैं, उनकी जो निशानियां हैं, उनकी जो देन हैं वह सब गायब हो जाती हैं, तो फिर आप कैसे हिंदुस्तान में रहते हैं.

सईद नक़वीःअपने जो विचार हैंउसको कैप्स्यूल करने का तरीका मैंने सोचा कि चलो भाई, मुसलमान सांप्रदायित तत्व हैं, मैंने माना. ये बहुत गलत लोग हैं, ये तब्लीग करते हैं. आतंकवाद करते हैं, ये जेहाद करते हैं चलो इनको हटा दो. अब ये हट गए. अब उसके बाद हिन्दुस्तान में किया होगा, उसका एक तसव्वुर है. अगर आप उसका आखिर में जाकर देखें, जहां पर एक कोर्ट हैं जिसमें एक ज्यूरी है और ज्यूरी में यही हमारे स्वामी विवेकानंद हैं, जितने हमारे चिंतक हैं वह सब हैं. कबीर भी हैं, अब्दुल रहीम खानखाना भी हैं.

सुनिए एक बात, रहीम की खतो-किताबत थी पंडित तुलसीदास से. अब बताइए कि अकबर का शासन था, लेकिन ये शौक था उसको अच्छा लगा. अकबर को हिन्दुइज्म के तत्व इतने अच्छे लगे कि इसे जोड़कर उसने दीन-ए-इलाही बनाया. अब्दुल रहीम खानखाना वाहिद कवि हैं जिन्होंने रामचंद्र जी की जीवनी संस्कृत में कविता लिखी, कोई जानता ही नहीं है.

हम खून-ए-जिगर लेकर बाज़ार में आए हैं

क्या दाम लगाएंगे लफ्जों की सितां वाले

उस किताब में यह सब हैं. यह नाटक, शुरू में आपको लगेगा कि मैं आपको झंझोड़ रहा हूं लेकिन उसका कोई समाधान वह है जो मैं हूं.

सवालः यह किताब नाटक के तौर पर क्यों आई, हम उसको फिक्शन के तौर पर क्यों देख रहे हैं, इसको आपने नॉन-फिक्शन में क्यों नहीं लाया?

सईद नक़वीःइसकी जो पॉलिमिक्स हैं, जो तर्क हैं वह रिजॉल्व करना नाटक की शैली में आसान है. मैंने एक बात कही. एक मैंने स्टेटमेंट दिया हिन्दुस्तानी सभ्यता के बारे में, और दूसरे तरफ से जवाब भी आ गया यानी ये बिल्कुल एकतरफा नहीं रहा. इससे एक संतुलन भी रहा और दोनों तरफ से प्रोवोकेटिव आइडियाज भी आते रहें. अगर आप उसको पढ़ें पूरा, तो बहुत मेहनत से लिखा है मियां, शौक से लिखा है अब आप इसको पढ़िए और अपने दोस्तों को पढ़वाओ.

मंजीत ठाकुरः इस किताब के अंदर जो बात हैं वह बहुत अहम हैं, हम दुनिया में महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहे हैं. जब हम ये खोज रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तो हिंदुस्तान में रहने वाली 20 करोड़ मुस्लिमों को दरकिनार करके नहीं सो सकते, क्योंकि ‘हम’और ‘वे’ ये ऐसे शब्द हैं जो हमारे इस बातचीत में कभी नहीं आनी चाहिए.

सईद नकवीः मैं आपकी बात जरा आगे बढ़ा रहा हूं कि इस वक्त जो हिन्दुस्तान की स्थिति है वह ये हैं कि यूक्रेन जंग की वजह से, शेक्सपियर की एक लाइन है कि इज वन ऑफ गुडनेस इन एनीथिंग ऑफ गिवन गुडनेस ऑफ ऑवरऑल. तो इस जंग से भी कुछ निकल सकता हैं, वह क्या है?

इस वक्त हम वैसी जगह पर हैं कि दोनों तरफ से सौदेबाजी कर सकते हैं. विदेश नीति में एस जयशंकर कमाल कर रहे हैं. हम उस जगह पर हैं जहां से हम उड़ान लें. वह शक्ति बन सकें क्योंकि हम बनना चाहते हैं.

रूपांतरण मोहम्मद अकरम