बाल-मित्र मस्जिदः पैरेंट्स नमाज पढ़ते हैं, बच्चे खिलौनों से खेलते

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 22-02-2023
बाल-मित्र मस्जिद
बाल-मित्र मस्जिद

 

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

 

मस्जिदें अब महज इबादत तक सीमित होती जा रही हैं. मगर पुराने दौर में नमाज के अलावा भी सामाजिक कल्याण से जुड़े कार्यों के लिए मस्जिदों का भरपूर उपयोग होता था. समाज की वर्तमान जरूरतों के मद्देनजर तुर्की में भी एक नया प्रयोग हुआ है. यहां एक मस्जिद में लोग आकर नमाज पढ़ते हैं और उनके साथ आए बच्चे शोर मचाने के बजाय, वहां रखे खिलौनों से खेलते हैं. इस प्रयोग का सीधा मतलब यह है कि बच्चों की देखरेख में मसरूफ लोग इस मस्जिद में बंदगी भी कर पाते हैं और बेबी सिटिंग भी हो जाती है. साथ ही बच्चों का मस्जिदों में आना भी उन्हें मजहब से जोड़ता से है.

 

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तरन्नुम बानो ने इस आशय की जानकारी एक ट्वीट के माध्यम से दी है, ‘‘तुर्कीः मस्जिद के अंदर छोटे बच्चों के खेलने के इंतजामात किए गए है, ताकि बच्चों को मस्जिद में जाने की आदत और शौक बने. मस्जिदों में अपने बच्चों को साथ लेकर जाएं, जिससे उन्हें मस्जिद जाने का शौक पैदा हो. अल्लाह हमें और हमारी नस्लों को नेक हिदायत दे.’’

 

 

रमजान के पवित्र महीने के दौरान मनाई जाने वाली स्वैच्छिक प्रार्थना तरावीह की नमाज के लिए अंकारा की अहमत असेकी मस्जिद में यह इंतजाम किया गया है. यह मस्जिद तुर्की के धार्मिक मामलों की प्रेसीडेंसी के तहत संचालित एक सेवा भवन के पास स्थित है, जो 50 से 100 बच्चों की मेजबानी भी करती है. ये तरावीह की नमाज के समय अपने माता-पिता के साथ जाते हैं.

 

मस्जिद के इमाम मंसूर सगीर ने बताया कि कि अहमत हम्दी असेकी मस्जिद की यह परियोजना का अपनी तरह का पहला कदम है, जो निकट भविष्य में इस तरह की अन्य सुविधाएं देने पर भी विचार कर रही है. वे कहते हैं, ‘‘हमें इस बारे में अभी तक कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली है. माता-पिता यहां इबादत करते हैं और उनके बच्चे या तो यहां खेल सकते हैं या प्रार्थना के दौरान अपने माता-पिता के साथ जा सकते हैं. हम जो करने की कोशिश कर रहे हैं, वह यह है कि हम मस्जिदों को बच्चों के अनुकूल बना रहे हैं. बच्चे यहां नए दोस्त बनाते हैं और एक साथ खेलते हैं. यही कारण है कि मस्जिद दूरदराज के जिलों के लोगों को भी आकर्षित करती है.’’

 

मस्जिद में आने वाले एक छोटे बच्चे अहमत यासीन फास्ली ने कहा कि वह अंकारा के येनिमाहल्ले पड़ोस में रहता है और इस खेल क्षेत्र को काफी पसंद करता है. यमुर बुरुक एक और बच्चा है, जो अपने माता-पिता के साथ मस्जिद में आता है. उसके पिता बहरी ने कहा कि नई सुविधा से बड़ी सोच का पता चलता है.

 

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अतीत में, पूरे तुर्की में बच्चों और महिलाओं के अनुकूल मस्जिदें बहुत आम नहीं थीं. कई मस्जिदों में इबात करने वालों, विशेषकर महिलाओं को अपने बच्चों के साथ एकांत, भरा हुआ और अलग-थलग क्वार्टर दिया जाता था. यह ज्यादातर इसलिए था, क्योंकि पुरुष मस्जिद का अधिक उपयोग करते हैं और इसलिए उन्हें प्राथमिकता मिलती है, जबकि कई महिलाओं की जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया गया. लेकिन एक युवा पीढ़ी अब यह तर्क दे रही है कि मस्जिदों को दोनों लिंगों के लिए समान रूप से सुलभ होना चाहिए.

 

भारत में भी मस्जिदों का कोरोना काल में नया स्वरूप हम देख चुके हैं. जब मुल्क की जरूरतों के कदम-बा-कदम मस्जिद इंतजामिया कमेटियों ने इंतजाम किए. मस्जिदों में डिस्पेंसरी और अस्पताल खोल दिए गए. हिंदुस्तानी उलमा इस बात पर तो जोर दे ही रहे हैं कि निकाह के लिए मस्जिदों का उपयोग किया जाए, जो कम खर्चीला और दीनी भी है. इसी तरह भारतीय मस्जिदों के भवनों का सामुदायिक कार्यों के लिए विविध उपयोग हो सकता है. वैसे भी बीती शताब्दियों में भारतीय उप महाद्वीप में देवालयों के साथ विद्यालय, पुस्तकालय, वाचनालय, औषधालय, चिकित्सालय, क्रीडालय, व्यायामालय और अन्यान्य गतिविधियों का समुच्चय देखने को मिलता रहा है. मस्जिदों, मंदिरों और अन्य उपासनाग्रहों का फिर से कदीमी और रवायती इस्तेमाल शुरू किया जा सकता है.

 

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