बादशाहों और नवाबों की ईदः महफिलों में दिखती शान-ओ-शौकत, दावतों के दौर चलते

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 21-04-2023
ईद के मौके पर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जुलूस
ईद के मौके पर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जुलूस

 

राकेश चौरासिया

भारत में मुस्लिम बादशाहियों की स्थापना के साथ ही राजकीय त्योहार के तौर पर ईद मनाए जाने का ब्यौरा इतिहास में कई जगह मिलता है. इस त्योहार को बादशाह और रियासतों के नवाब बड़े पैमाने पर अजीम शान से मनाया करते थे, जिसमें मालदारों और ओहदेदारों के साथ रैयत-रियाया की शिरकत भी हुआ करती थी. ईद का जश्न दावतों के दौर-दौरां के साथ कई-कई दिनों तक चलता था. ईद पर नवाब जमकर गहनों और कपड़ों की खरीददारी किया करते थे और बाजार गुलजार हुआ करते थे.

ईद का चांद देखने की गवाही आलिमों से ली जाती थी और बादशाह और नवाब अपने इलाके में ईद का ऐलान किया करते थे. ऐलान के साथ बड़े नक्कारे बजाए जाते थे और तोपें दागी जाती थीं. फिर ईद की मुनादी भी की जाती थी. बहादुर शाह जफर के दौर में रिवाज था कि वो सुनिश्चित करते थे कि चांद देखा गया और विधिवत रिकॉर्ड किया गया या नहीं. इसके लिए वे चांद को देखने के लिए घुड़सवारों को शहर से बाहर भेजते थे. यदि बादल होते, तो सवार और आगे निकल जाते, किसी गाँव या किसी पहाड़ी पर पर चांद देखते. उनके द्वारा चाँद देखे जाने को रिकॉर्ड जाता था और एक ‘विश्वसनीय गवाह’ द्वारा हस्ताक्षरित किया जाता था. इन गवाहों में आमतौर पर शहर काजी की गवाही आमतौर पर होती थी. फिर शहर के बाकी हिस्सों में तोपों के माध्यम से ईद का ऐलान किया जाता था. 

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रमजान महीने के लंबे उपवास के बाद ईद का आना मुस्लिम अनुयायियों में उमंग और उल्लास भर देता है. इसमें बादशाह जफर अपने ढंग से शिरकत करते थे. परंपरागत रूप से बादशाह ईदगाह जाते थे, उनके साथ शाहजादे, सिपहसालार और अन्य ओहदेदार भी होते थे. ईद-उल-जुहा के मौके पर वह ईदगाह में ऊंट की कुर्बानी देते थे.

1857 की ईद

बादशाह जफर की ईद के बारे में मुंशी फैजुद्दीन द्वारा लिखित बज्म-ए-आखिर (द लास्ट असेंबली) में जिक्र मिलता है, जिसका अनुवाद राणा सफवी ने किया है. रमजान का आखिरी जुमे अलविदा का अहम मौका था. बहादुर शाह जफर एक औपचारिक जुलूस में जामा मस्जिद के लिए निकलते हैं. मस्जिद की सीढ़ियों पर उनका हवादर (एक नाजुक, चांदी की कुर्सी) एक हाथी पर रखा गया है. बादशाह उस पर बैठते हैं और मस्जिद में प्रवेश करते हैं, हौज के पास स्नान के लिए उतरते हैं. उनके परिचारक सभी को रास्ते से हटने के लिए जोर से पुकारते हैं. राजकुमार और रईस उसके पीछे चलते हैं.

जब नमाज शुरू होती है, बादशाह का गलीचा इमाम के पीछे रखा जाता है. उनके बाईं ओर उत्तराधिकारी दिखाई देते हैं, उनके दाईं ओर अन्य राजकुमार हैं. बादशाह इमाम से खुतबा (उपदेश) पढ़ने को कहते हैं. इमाम मंच पर खड़ा है. दरोगा-ए-कुर (शस्त्रागार के अधीक्षक) द्वारा कमर पर तलवार रखी जाती है. इमाम मूठ पकड़कर अपना खुतबा देते हैं. एक बार जब खुतबा समाप्त हो जाता है, तो सभी मृत बादशाहों के नाम लिए जाते हैं. जब शासक सम्राट के नाम की घोषणा करने का समय आता है, तो अलमारी के अधीक्षक को इमाम को एक वस्त्र देने का आदेश दिया जाता है. वह खुतबे के बाद शुक्रवार की नमाज की दो रकअत (नमाज करते समय निर्धारित क्रियाएं और शब्द) पढ़ता है. जब बादशाह अपनी प्रार्थना समाप्त कर लेते हैं, तो वह असार शरीफ (एक छोटा बाड़ा, जहां पैगंबर के अवशेष रखे जाते हैं) में जाते हैं. यह अभी भी दिल्ली की जामा मस्जिद की एक गैलरी में मौजूद है. वह अवशेषों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है और किला लौट जाते हैं.

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रमजान के उनतीसवें दिन चांद देखने के लिए दूत भेजे जाते हैं. हर कोई चांद के लिए आसमान की तरफ बेसब्री से देख रहा है, जो रमजान के खत्म होने का संकेत देगा. यदि कोई चाँद देखता है, या कोई दूत किसी गाँव से दर्शन का हस्ताक्षरित पत्र लाता है, तो जश्न मनाने का समय शुरू हो जाएगा. नक्कारखाना में, अगले दिन ईद के आगमन के लिए 25 तोपों की सलामी दी जाती है. अगर उस दिन चांद नजर नहीं आता है, तो रमजान के 30वें दिन तोपों की सलामी दी जाएगी.

मीठी ईद

रात को ईदगाह में बंदूकें, शामियाने और दरियां भेजी जाती हैं. हाथियों को चित्रित किया जाता है. सुबह होते ही बादशाह स्नान करते हैं और गहनों से सजे वस्त्र धारण करते हैं. दस्तरख्वान (मेजपोश) को जल्दी से सेंवई और दूध, मीठी कैंडी, सूखे मेवे और सादे चावल के साथ बिछाया जाता है. उन पर मूंग की दाल डाली जाती है. बादशाह भोजन का अभिषेक करते हैं और सभी व्यंजनों का स्वाद चखते हैं. एक तुरही बजाई जाती है और जुलूस चलता है. फौजदार खान हाथी को घुटने टेक देता है और बादशाह हाथी पर बैठकर दीवान-ए-आम जाते हैं. परेड ग्राउंड से 21 तोपों की सलामी दी जाती है. जैसे ही शाही जुलूस ईदगाह के प्रवेश द्वार पर पहुंचता है, वह खुद को दो भागों में बांट लेते हैं और एक बार फिर सलामी के रूप में बंदूकों को छोड़ा जाता है. बादशाह हाथी से उतरकर अपने हवादार में जाते है. वारिस पालकी में बैठते हैं, जबकि बाकी लोग पैदल चलते हैं.

ईद पर नवाब की सवारी

राजपूताना की मुस्लिम रियासत रहे टोंक में ईद की सवारी देशभर में अपनी अलग ही पहचान रखती थी. इस सवारी को देखने के लिए बाहर से भी लोग टोंक आया करते थे. वहीं ईद की सवारी के लिए नवाब साहब की सभी तैयारियों एवं सवारी के रवाने होने का ऐलान तोपें दाग कर होता था. जब नवाब नहाते थे, तो किले से तोपें दागी जाती थी. इससे पूरे शहर को पता चल जाता था कि नवाब साहब नहाने लगे हैं. जब वह तैयार होकर ईद की सवारी पर सवार होते, तो तोपें दागी जाती थी. इससे उनकी रवानगी की सूचना सभी निवासियों को हो जाया करती थी.

लोग सवारी को देखने एवं ईदगाह ईद की नमाज से पूर्व पहुंचने लगते थे. उसके बाद ईदगाह में ईद की नमाज समाप्त होते ही तोपें दागी जाती थीं, जिससे लोगों को नमाज समाप्त होने का संकेत मिल जाया करता था. नवाब का जुलूस वापस आहिस्ता आहिस्ता किले मोअल्ला पहुंचता था. जहां दरबार लगता था. तीन दिन तक धूम रहती थी. तोपे दागे जाने का सिलसिला रियासत काल के बाद तक भी चला. ईद की नमाज के बाद अब भी ईदगाह में हवाई गोले दागे जाते हैं.

कैदियों को करते थे रिहा

रियासतकाल में ईद पर अवाम के लिए कई कल्याणकारी घोषणाएं होती थी, वहीं कई कैदियों को रिहा भी किया जाता था. आंखों देखे हाल के मुताबिक कैदियों की रिहाई एवं लुहारों द्वारा उनकी बेड़ियां काटे जाने का भी जिक्र किया गया है. अच्छे कार्य करने वाले आलिमों आदि का इनामों इकराम से भी नवाब द्वारा नवाजा जाता था.

ढाका की ईद

ढाका के नवाब अब्दुल गनी, उनके बेटे नवाब सर अहसान उल्लाह और उनके वंशज नवाब सर सलीमुल्लाह ने ईद में एक नया आयाम और विविधता जोड़ी. उन्होंने आम लोगों को नवाबों के साथ ईद मनाने के लिए आकर्षित किया. सामंती दिनों में आम लोग जरूरतमंद और गरीब हुआ करते थे, लेकिन उनके ईद के जश्न में शामिल होने पर कोई पाबंदी नहीं थी.

1940 के दशक में प्रसिद्ध यूनानी चिकित्सक और इतिहासकार हाकिम हबीबुर रहमान ने ढाका के इतिहास और विरासत के बारे में ढाका रेडियो पर एक कार्यक्रम किया था. उन्होंने कहा कि शब-ए-बारात के तुरंत बाद शहर में रमजान के आगमन का आभास हुआ. शहर में इतनी सारी मस्जिदें थीं. 20 रमजान से इन्हें साफ कर सजाया जाएगा. राजमिस्त्री और बढ़ई अभिजात वर्ग के महलों की मरम्मत और मरम्मत में व्यस्त रहेंगे. ये सब इस बात के संकेत थे कि ईद नजदीक है. आम लोग भी त्योहार के लिए अपने घरों को तैयार करेंगे. नए घड़े और हुक्का खरीदे गए. गरीब लोग अपने मिट्टी के फर्श पर मिट्टी की एक नई परत बिछा देते थे. रमजान के पहले दिन से ईद की खरीदारी शुरू हो जाएगी. विशेष शर्बत, गुलाब जल, केवड़ा आदि तैयार करने के लिए तुलसी के बीज (तोकमा) की भीड़ होगी. 27 शाबान में मूंग भिगोई जाती थी तो 1 रमजान में मूंग अंकुरित हो जाती थी. इसके बाद इफ्तार की व्यापक तैयारी की गई. रमजान के दौरान, कई लोग गन्ने के ताजा रस से अपना उपवास तोड़ना चाहेंगे. जहां ढाका विश्वविद्यालय का सलीमुल्ला हॉल है, वहां एक हिंदू सज्जन गन्ना उगाएंगे. वहां से आधा गन्ना रमजान के महीने में खत्म हो जाता.

हकीम हबीबुर रहमान ने लिखा, ‘‘चाँद देखने के लिए व्यापक तैयारी थी. लड़के नहाते, चोकर और पिसी हुई दाल से खुद को साफ करते. सूर्यास्त से पहले लोग अहसान मंजिल, बारा कटरा, छोटा कटरा, हुसैनी दालान और नदी के किनारे की अन्य इमारतों की छतों पर इकट्ठा हो जाते थे. कुछ उत्साही लोग बुरीगंगा में एक नाव लेकर नदी से अर्धचंद्र को देखने के लिए पश्चिमी आकाश की ओर धैर्यपूर्वक देखते हैं. यह एक प्रतियोगिता थी, कौन पहले चाँद देख सकता है. और अमावस्या की पहली झलक पर उत्सव छिड़ जाता. पटाखों, गोलियों और चीखों से हवा भर जाएगी.’’

नवाब सलीमुल्ला अहसान मंजिल स्थित अपनी ही मस्जिद में ईद की नमाज अदा करते थे. ईद की नमाज में शामिल होने के लिए शहर के कई अभिजात वर्ग वहां आते थे. आम लोग उन्हें गले लगाते थे और वे ‘बख्शीश’ देते थे. नवाब शब-ए-कद्र से गरीबों में नए कपड़े बांटते थे. इस्लामपुर, मिटफोर्ड, चौक बाजार और ऐसी जगहों पर टिहरी, जर्दा, फिरनी और अन्य अच्छा खाना बनाने और हजारों लोगों को खिलाने की व्यवस्था थी. बंग भंग (बंगाल विभाजन) आंदोलन के दौरान नवाब सलीमुल्लाह और नवाब अतीकुल्ला के बीच तीखी लड़ाई हुई और इस तरह प्रतियोगिता में नवाब अतीकुल्ला हजारों आम लोगों को भी खाना खिलाते थे.

ईद का जश्न

इतिहास में कई जगह जिक्र मिलता है कि बादशाह और नवाब ईद पर खेलों का आयोजन भी करते थे. इसमें तीर-तलवार, द्वंद्व, मल्ल, कब्ड्डी, कुष्ती आदि प्रमुख खेल शाामिल होते थे. जब अंग्रेजों का आगमन हुआ, तो नवाबों ने फुटबाल और क्रिकेट भी इन खेलों में समाहित कर लिया. ईद पर कई दिनों तक चलने वाले आयोजनों में अमीर-उमरावों के यहां दावतें होती थीं. लजीज पकवान दस्तरखानों पर सजते थे. उन्हें बनाने के लिए हलवाई की लंबी फौज तैनात होती, जो एक दिन की दावत के लिए कई-कई दिनों से तैयारियां करते थे. ईद पर हर खास और आम आदमी अपनी-अपनी हैसियत से खरीददारी करता था. शाही हरमों में सुनार तो डेरा ही लगा दिया करते थे. बेगमों से सुनार डिजायन दिखाकर आर्डर लेते थे और ईद से पहले उन्हें बनाकर डिलीवरी देते थे. गहनों के डिजायनों में फारसी और हिंदुस्तान डिजायन का मिश्रण देखने को मिलता था. नवाबों की हिंदू बेगमों में गहनों के तरफ ज्यादा ही रुझान देखने को मिलता था.

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