प्रो. अब्दुल बारीः तहरीके-आजादी के ऐसे नायक, जिन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने भुला दिया

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 27-03-2023
प्रो. अब्दुल बारीः तहरीके-आजादी के ऐसे नायक, जिन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने भुला दिया
प्रो. अब्दुल बारीः तहरीके-आजादी के ऐसे नायक, जिन्हें कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने भुला दिया

 

राकेश चौरासिया

बिहार की महान आत्मा प्रोफेसर अब्दुल बारी एक चिंतक, शिक्षक, समाज सुधारक, मजदूर नेता और स्वतंत्रा सैनानी के तौर पर याद किए जाते हैं. पेशे से शिक्षाविद् अब्दुल बारी देश की तत्कालीन जरूरतों और हालात के मुताबिक ढलते गए. अध्यापन के दौरान उन्हें मजदूरों को संगठित करने की जरूरत महसूस हुई, तो उन्होंने नेता जी सुभाष चंद्र बोस के कहने पर बिहार, बंगाल और उड़ीसा के मजूदरों को संगठित किया. आजादी की लड़ाई में भी वे महात्मा गांधी के साथ रहे और भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका निभाते रहे.

अब्दुल बारी का जन्म 1892 में शाहाबाद जिले के कोइलवार नामक स्थान में हुआ था. वे समाज सुधारक सैयद इब्राहिम मलिक बया के वंशज थे और उनके पिता कुरबान अली पुलिस इंस्पेक्टर थे. पटना कालेज और जामिया पटना (युनिवर्सिटी) से आर्टस में मास्टर डिग्री की प्राप्त करने के बाद अब्दुल बारी ‘असहयोग आन्दोलन’ में सम्मिलित हो गये थे.

‘खिलाफत आंदोलन’ में भी उन्होंने प्रमुख रूप से भाग लिया था और अपने प्रदेश की खिलाफत कमेटी के संयुक्त सचिव बने. 1921 में उन्होंने कुछ दिन तक ‘बिहार विद्यापीठ’ में अध्यापन का कार्य भी किया. वे ‘स्वराज्य पार्टी’ और ‘इंडियन इंडिपैंडेंस लीग’ के सदस्य थे.

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अब्दुल बारी ने शिक्षा के माध्यम से लोगों को जागृत करके भारतीय समाज में सामाजिक सुधार लाने का प्रयास किया. उनके पास गुलामी, सामाजिक असमानता और सांप्रदायिक वैमनस्य से मुक्त भारत का सपना था. मगर विडंबना यह है कि अब्दुल बारी कांग्रेसी होने के साथ कम्युनिस्ट भी, लेकिन कांग्रेस ने उनके योगदान को भुला दिया और मजदूरों के साथी होने वाले कम्युनिस्टों ने भी इतिहास हाशिए पर धकेल दिया.

अब्दुल बारी की 1917 में माहत्मा गांधी के साथ पहली मुलाकात हुई, जब मौलाना मजहरुल हक गांधी की मेजबानी पटना मे कर रहे थे. 1921-1942 में उन्होंने तहरीक-ए-आजादी की जद्दोजेहद के लिए बिहार, उड़ीसा और बंगाल के मजदूरों को संगठित किया और उन्हें एक बैनर तले लाने मे अहम किरदार निभाया. 

1920-22 मे हुए खिलाफत और असहयोग आंदोलन के समय राजेंद्र प्रासाद, अनुग्रहण नारायण सिंह, श्रीकृष्ण सिंह के साथ कंधे से कंधे मिला कर पूरे बिहार मे इंकलाब बरपा किया. 1921 मे मौलामा मजहरुल हक की मेहनत और पैसे की वजह कर बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फरवरी 1921 को मौलाना मुहम्मद अली जौहर और कस्तूरबा गांधी के साथ पटना पहुंचे महात्मा गांधी ने किया था.

मौलाना मजहरूल हक इस विद्यापीठ के पहले चांसलर नियुक्त हुए और इसी इदारे मंे अब्दुल बारी प्रोफेसर की हैसियत से मुंतखिब हुए. वहीं ब्रजकिशोर प्रसाद वाइस-चांसलर और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद प्रधानाचार्य बनाए गए थे.

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भागलपुर में अब्दुल बारी ने 1930 में सत्याग्रह अंदोलन छेड़ा, जिसमंे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उनके साथ थे. 1936 के प्रांतीय चुनाव में बिहार विधान सभा के सदस्य के रुप में चुने गए. 1937 में बिहार मे पहली बार कांग्रेसी की हुकूमत वजुद में आई थी, और अब्दुल बारी चंपारण से जीत कर असेंबली पहुंचे थे और उन्हें असेंबली का उपसभापती बनाया गया.

नेता जी सुभाष चंद्र बोस उस वक्त जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन के सदर थे. उनकी दरख्वास्त पर जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन का नेतृत्व करने का फैसला किया. अब्दुल बारी ने लेबर एसोसिएशन का भारतीय कानून के तहत मजदूर यूनियन के रूप में परिवर्तित किया.

इसके बाद बिहार, बंगाल उड़ीसा में मजदूर आंदोलन को एक नई पहचान दी. टिस्को में मजदूरों के संगठन का नाम लेबर एसोसिएशन था. ट्रेड यूनियन एक्ट बनने के बाद अब्दुल बारी के कार्यकाल में इसका नामकरण टाटा वर्कर्स यूनियन किया गया था. पांच मजदूरों पर गोली चालन के बाद 1920 में लेबर एसोसिएशन बनी थी.

टिस्को (टाटा स्टील) की तारीख में पहला समझौता 1937 में अब्दुल बारी के ही नेतृत्व में हुआ था. 1942 के भारत छोड़ो तहरीक से जुड़े और खुद को साबित किया. 1946 में बिहार प्रदेश कमेटी के अध्यक्ष बने.

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28 मार्च 1947 को खुसरुपुर (फतुहा) के पास उन्हें शहीद कर दिया गया. उनकी मृत्यु गोली लगने से हुई थी, लेकिन उनकी शहाद के बारे में स्पष्टता नहीं है. लोकमत यही है कि पुलिस की गोली लगने से उनकी मौत हुई. हालांकि यह भी कहा जाता है कि यूनियनों के प्रतिद्वंद्विता के कारण उन्हें गोली मारी गई थी.

वे इतने बड़े कद के नेता थे कि खुद महात्मा गांधी उनके जनाजे में शरीक हुए थे. महात्मा गांधी ने प्रोफेसर अब्दुल बारी के शहादत पर संवेदना करते हुए 29 मार्च 1947 को जो बात लिखी थी, उसे बिहार विभूती किताब में अभिलेखागार भवन द्वारा प्रकाशिम किया गया, जिसमें गांधी ने उन्हें अपनी आखिरी उम्मीद बताया और कहा कि अब्दुल बारी एक ईमानदार इंसान थे, पर साथ में बहुत ही जिद्दी भी थे.

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