रमज़ान में क्या करें और क्या न करें

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] • 1 Years ago
रमज़ान में क्या करें और क्या न करें
रमज़ान में क्या करें और क्या न करें

 

फ़िरदौस ख़ान

सालभर के तमाम महीनों में रमज़ान ही एक ऐसा महीना है, जो बहुत ही बरकतों वाला है. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने इसकी फ़ज़ीलत बयान की है. इस महीने में आसमान से रहमतों की बारिश होती है. ये बन्दे के हाथ में है कि वह कितनी रहमतें अपने दामन में समेटता है. इस महीने में ज़्यादा से ज़्यादा इबादत करनी चाहिए. रोज़े रखें, तरावीह और नफ़िल नमाज़ें अदा करें, क़ुरआन पाक की तिलावत करें और अपने जानो माल से ख़िदमते ख़ल्क़ करें.   

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अल्लाह की राह में गुज़रने वाली एक सुबह या एक शाम दुनिया से और जो कुछ दुनिया में है, सबसे बेहतर है.(सही बुख़ारी 2792) 

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “माहे रमज़ान बहुत ही बाबरकत और फ़ज़ीलत वाला महीना है, और सब्र व शुक्र और इबादत का महीना है. और इस माहे मुबारक की इबादत का सवाब सत्तर दर्जा अता होता है. और जो कोई अपने परवरदिगार की इबादत करके उसकी ख़ुशनूदी हासिल करेगा, तो उसे उसकी बहुत बड़ी जज़ा ख़ुदावन्द तआला अता फ़रमाएगा.

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “मेरी उम्मत में से जो मर्द या औरत ये ख़्वाहिश करे कि उसकी क़ब्र नूर से मुनव्वर हो, तो उसे चाहिए कि वह रमज़ान की शबे क़द्रों में कसरत के साथ इबादते इलाही में मुब्तिला हो जाए, ताकि उन मुबारक और मुतबरिक रातों की इबादत से अल्लाह पाक उसके आमालनामे से बुराइयां मिटाकर उसे नेकियों का सवाब अता फ़रमाए.”   

      

शबे क़द्र क्या है ?  

रमज़ान के मुक़द्दस महीने के आख़िरी दस दिनों में शबे क़द्र आती है. शबे क़द्र के बारे में क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक हमने इस क़ुरआन को शबे क़द्र में नाज़िल किया. और तुम क्या जानते हो कि शबे क़द्र क्या है ? शबे क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है. इस रात में फ़रिश्ते और रूहुल अमीन यानी जिब्रईल अलैहिस्सलाम अपने परवरदिगार के हुक्म से हर काम के लिए ज़मीन पर उतरते हैं. ये रात फ़ज्र होने तक सलामती है.(क़ुरआन 97:1-5 )

शबे क़द्र की फ़ज़ीलत इसलिए भी बहुत ज़्यादा है, क्योंकि इस रात में अल्लाह तआला ने अपने महबूब हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क़ुरआन नाज़िल किया था. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक हमने इसे मुबारक रात में नाज़िल किया. बेशक हम ख़बरदार करने वाले हैं. इस रात में हर हिकमत वाले काम का फ़ैसला कर दिया जाता है.”(क़ुरआन 44:3-4)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ मेरे महबूब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! यह मुबारक किताब है, जिसे हमने तुम पर नाज़िल किया है, ताकि अक़्लमंद इसकी आयतों में ग़ौर व फ़िक्र करें और नसीहत हासिल करें.”(क़ुरआन 38:29)

बेशक क़ुरआन पाक तमाम आलमों के लिए नसीहत है. क़ुरआन एक मुकम्मल पाक किताब है. ये हिदायत भी है और शिफ़ा भी. इसमें ज़िन्दगी जीने का तरीक़ा बताया गया है. इसमें वह सबकुछ है, जिसकी इंसान को ज़रूरत है. इसमें बताए गये रास्ते पर चलकर इंसान कामयाबी हासिल कर सकता है.

कहते हैं कि रमज़ान में एक रात ऐसी भी आती है, जिसमें बन्दा अल्लाह से जो कुछ मांगता है, वह सब उसे मिल जाता है. ये रात कौन-सी है, इस बारे में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- ''रमज़ान के आख़िरी अशरे की ताक़ रातों में लैलतुल क़द्र की तलाश करो.''

इसलिए शबे क़द्र की हर रात को वही रात मानकर ख़ूब इबादत करनी चाहिए. अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगने के साथ-साथ मनचाही मुरादें भी मांगनी चाहिए. अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में वादा किया है- “और तुम्हारा परवरदिगार फ़रमाता है कि तुम मुझसे दुआएं मांगो, मैं ज़रूर क़ुबूल करूंगा.”(क़ुरआन 40:60)   

हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि एक मर्तबा रमज़ान का महीना आया, तो अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम्हारे ऊपर एक महीना आया है, जिसमें एक रात है जो हज़ार महीनों से अफ़ज़ल है. जो शख़्स इस रात से महरूम रह गया, गोया सारी ख़ैर से महरूम रह गया.”  

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- ''जिसने ईमान के साथ और अज्र व सवाब हासिल करने की नीयत से रमज़ान में क़ियामुल्लैल किया, उसके पिछले तमाम गुनाह माफ़ कर दिए जाएंगे.'' आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “ये ऐसा महीना है कि इसका पहला हिस्सा अल्लाह की रहमत है, दरमियानी हिस्सा मग़फ़िरत है और आख़िरी हिस्सा जहन्नुम की आग से निजात का है.''

रमज़ान के तीसरे हिस्से को अशरा भी कहा जाता है. इस दौरान रोज़ेदार एतिकाफ़ में भी बैठते हैं.

एतिकाफ़ क्या है ?

रमज़ान के आख़िरी अशरे में दुनियादारी से कटकर अल्लाह की इबादत के लिए बैठने को एतिकाफ़ कहा जाता है. ये रमज़ान की इबादतों में से एक इबादत है. एतिकाफ़ सुन्नत है. अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ज़िन्दगीभर एतिकाफ़ को अंजाम दिया.

हज़रत अली इब्ने हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु तआला अपने वालिद से रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जो शख़्स रमज़ान के दस दिन का एतिकाफ़ करे, तो उसे दो हज और दो उमरे के मानिन्द सवाब होगा.”

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एतिकाफ़ करने वाले शख़्स के हक़ में फ़रमाया- “वह तमाम गुनाहों से रुका रहता है और उसे इस तरह सवाब मिलता है, जैसे वह नेकियां कर रहा हो.”एतिकाफ़ की भी वही शर्तें हैं, जो रोज़े की हैं.

मर्द सिर्फ़ मस्जिद में ही एतिकाफ़ में बैठ सकते हैं, जबकि औरतें अपने घर में एतिकाफ़ में बैठ सकती हैं. सबसे अफ़ज़ल एतिकाफ़ मक्का की मस्जिद अल हराम का माना जाता है. इसके बाद मस्जिदे नबवी, मस्जिदे अक़सा और किसी भी जामा मस्जिद की बारी आती है. इसके बाद वह मस्जिद आती है, जिसमें बन्दा पांच वक़्त नमाज़ अदा करता है. ये अपने मुहल्ले की मस्जिद भी हो सकती है.

मर्द की एतिकाफ़ में बैठने की हद मस्जिद है. मस्जिद की हद भी वही मानी जाती है, जहां पर नमाज़ अदा की जाती है. वुज़ू की जगह, ग़ुसलख़ाने और पाख़ाने मस्जिद की हद से बाहर माने जाते हैं. भले ही वह मस्जिद की चहारदीवारी के भीतर होते हैं. एतिकाफ़ के दौरान बिना ज़रूरत एक लम्हे के लिए भी मस्जिद से बाहर क़दम न रखा जाए, क्योंकि ऐसा करने पर एतिकाफ़ टूट जाता है.   

एतिकाफ़ के लिए रोज़ा ज़रूरी है यानी रोज़ेदार ही एतिकाफ़ मैं बैठ सकता है. बीसवें रोज़े को इफ़्तार के फ़ौरन बाद मस्जिद में चले जाएं और मग़रिब की नमाज़ के बाद एतिकाफ़ की नीयत कर लें. अगर सूरज डूबने के बाद दस मिनट भी देर हो गई, तो एतिकाफ़ अदा नहीं हो पाएगा. इसी तरह जब ईद का चांद नज़र आ जाता है, तो फ़ौरन एतिकाफ़ भी ख़त्म हो जाता है.

रमज़ान में रोज़े रखने वालों के लिए बेशुमार सवाब है. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जन्नत के आठ दरवाज़े हैं, जिनमें से एक दरवाज़े का नाम रैयान है, जिसमें से सिर्फ़ रोज़ेदार ही दाख़िल होंगे.”हदीस पाक में आता है कि जब कोई बन्दा रोज़े की हालत में होता है कि बिलों के अंदर चींटियां, हवा में परिन्दे और समन्दर में मछलियां भी उसके लिए मग़फ़िरत की दुआएं करती हैं.

रोज़ा इतनी अहम इबादत है कि गोया सारी मख़लूक़ उसके लिए दुआएं करने में मुब्तिला हो जाती है.  

रिश्तेदारों और पड़ौसियों का ख़्याल रखें

अल्लाह की मख़लूक़ का ख़्याल रखना भी इबादत का ही एक बहुत अहम हिस्सा है. जो साहिबे-हैसियत हैं, रमज़ान में उनके घरों में लम्बे-चौड़े दस्तरख़्वान बिछते हैं. इफ़्तार और सहरी में खाने-पीने के लिए लज़ीज़ चीज़ें हुआ करती हैं.

लेकिन जो ग़रीब हैं, वे इन नेअमतों से महरूम रह जाते हैं. ऐसे में हमें चाहिए कि हम अपने उन रिश्तेदारों और पड़ौसियों के घर भी इफ़्तार और सहरी के लिए कुछ चीज़ें भेजें, जिनके दस्तरख़्वान कुशादा नहीं होते.

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं- “रमज़ान सब्र का महीना है यानी रोज़ा रखने में कुछ तकलीफ़ हो, तो इस बर्दाश्त करें. फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि रमज़ान ग़म बांटने का महीना है यानी ग़रीबों के साथ अच्छा बर्ताव किया जाए. अगर दस चीज़ें अपने रोज़ा इफ़्तार के लिए लाए हैं, तो दो-चार चीज़ें ग़रीबों के लिए भी लाएं.

यानी अपने इफ़्तार और सहरी के खाने में ग़रीबों का भी ख़्याल रखें. अगर आपका पड़ौसी ग़रीब है, तो उसका ख़ासतौर पर ख़्याल रखें कि कहीं ऐसा न हो कि हम तो ख़ूब पेट भरकर खा रहे हैं और हमारा पड़ौसी थोड़ा खाकर सो रहा है.याद रखें कि हमारा पड़ौसी अच्छा है या बुरा है. मैदाने हश्र में इसका जवाब वह ख़ुद देगा, लेकिन अगर वह भूख से मर गया, तो इसका जवाब हमें ही देना होगा.

हज़रत अबूज़र ग़फ़्फ़ारी रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन्हें नसीहत दी कि अबूज़र शोरबा पकाओ, तो उसमें पानी बढ़ा दिया करो और उससे अपने हमसायों यानी पड़ौसियों की ख़बरगिरी करते रहो यानी उसमें से अपने हमसाये को भी कुछ दे दिया करो.(सही मुस्लिम 6688)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराओ और वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक करो और रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और नज़दीकी पड़ौसियों और अजनबी पड़ौसियों और साथ उठने बैठने वालों और मुसाफ़िरों और अपने गु़लामों से अच्छा बर्ताव करो.”(क़ुरआन 4:36)

“फिर तुम अपने रिश्तेदारों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों को उनका हक़ देते रहो. ये उन लोगों के हक़ में बेहतर है, जो अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हैं. और वही लोग कामयाबी पाने वाले हैं.”(क़ुरआन 30:38)

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक सब मोमिन आपस में भाई-भाई हैं. इसलिए तुम अपने दो भाइयों के दरम्यान सुलह करा दिया करो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम पर रहम किया जाए(क़ुरआन 49:10)

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुसलमानों को ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने की ताकीद की. एक हदीस के मुताबिक़ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “अगर तुम किसी की मदद करने के क़ाबिल न हो, तो किसी और से उसकी सिफ़ारिश कर दो.”

एक अन्य हदीस के मुताबिक़ आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “जो आदमी अपने किसी भाई को जिसके जिस्म पर ज़रूरत के मुताबिक़ कपड़े न हों, उसे कपड़े पहनाएगा या देगा, तो अल्लाह उसे जन्नत का हर जोड़ा पहनाएगा. और जो किसी भूखे को खाना खिलाएगा, तो अल्लाह उसे जन्नत के मेवे खिलाएगा. जो किसी प्यासे को पानी पिलाएगा, तो अल्लाह उसे जन्नत का शर्बत पिलाएगा.”

क्या न करें

रमज़ान में रोज़े रखने का मक़सद ख़ुद को गुनाहों से बचाना है. जब कोई गुनाहों से बच जाता है, तो उसका जिस्म ही नहीं, उसकी रूह भी पाक हो जाती है. लेकिन जो लोग रोज़े रखकर भी ख़ुद को बुराइयों से नहीं बचाते, तो उन्हें रोज़े का कोई अज्र भी हासिल नहीं हो पाता.

एक हदीस में कहा गया है कि जो बन्दा झूठ और अपने अमल के खोट को नहीं छोड़ता, तो अल्लाह को उसके भूखा या प्यासा रहने की कोई परवाह नहीं है. एक हदीस में कहा गया है कि कितने ही रोज़ेदार ऐसे होते हैं, जिन्हें रोज़े में भूखा और प्यासा रहने के सिवा कुछ नसीब नहीं होता, क्योंकि वे रोज़े की हालत में चीज़ें फ़रोख़्त करते वक़्त कम तोलते और कम नापते हैं, सामान में मिलावट करते हैं, रिश्वत लेते हैं, बोहतान लगाते हैं,

चुग़लियां करते हैं, लोगों का माल और रिश्तेदारों का हक़ खा जाते हैं.दरहक़ीक़त ये है कि रमज़ान का मक़सद लोगों को राहे-हक़ पर लाना है. जब कोई पूरे महीने ख़ुद को गुनाहों से रोकता है, तो ये अच्छाई उसके वजूद में शामिल होने लगती है. फिर वह आम दिनों में भी ख़ुद को बुराइयों से बचाकर नेकी के रास्ते पर चल पड़ता है और यही तो असल कामयाबी है. 

(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)