साकिब सलीम
प्रशांत चंद्र महालनोबिस वह नाम हैं जिन्होंने आधुनिक भारत को गणनाओं, आंकड़ों और वैज्ञानिक योजना की नींव दी, लेकिन उन्हें उस व्यापक पहचान नहीं मिली जो अन्य राष्ट्रनिर्माताओं को मिली. 29 जून को मनाया जाने वाला राष्ट्रीय सांख्यिकी दिवस उनके इसी अवदान का स्मरण है. महालनोबिस ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जहां आंकड़े केवल गणितीय व्यायाम नहीं, बल्कि आम लोगों की ज़िंदगियों को बेहतर बनाने का औज़ार बनें.
20वीं सदी की शुरुआत में जब भारत अभी औपनिवेशिक शासन के अधीन था और कृषि-आधारित एक अनगढ़ अर्थव्यवस्था से जूझ रहा था, तब महालनोबिस ने यह विश्वास स्थापित किया कि वैज्ञानिक विधियां देश के विकास में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं.
उनका मानना था कि आंकड़े केवल शुष्क सूचनाएं नहीं हैं, बल्कि ये किसानों की फसल, आमजन की सेहत, और पूरे समाज की वास्तविकताओं की कहानी कहते हैं. इसी दृष्टिकोण से उन्होंने “महालनोबिस दूरी” जैसी अवधारणा विकसित की, जो आज भी सांख्यिकी और डेटा विज्ञान में एक क्रांतिकारी उपकरण के रूप में उपयोग की जाती है.
उनकी दृष्टि केवल नवाचार तक सीमित नहीं थी, बल्कि उसे संस्थागत रूप देने की दूरदर्शिता भी उनमें थी. 1931 में उन्होंने भारतीय सांख्यिकी संस्थान (ISI) की स्थापना की—जो महज़ एक शैक्षणिक केंद्र नहीं, बल्कि बहुविषयी शोध और नीति निर्माण के लिए एक प्रयोगशाला बन गया.
उन्होंने यादृच्छिक नमूना पद्धति का प्रयोग करते हुए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) की नींव रखी, जिसने भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर डेटा संग्रह को वैज्ञानिक आधार दिया.
स्वतंत्र भारत के लिए महालनोबिस का सबसे बड़ा योगदान दूसरी पंचवर्षीय योजना और महालनोबिस मॉडल रहा, जिसने देश की आर्थिक योजना को भारी उद्योगों और दीर्घकालिक निवेश की दिशा में मोड़ा.
यह एक साहसिक प्रयोग था, जिसने विकास को आंकड़ों के आधार पर मापने की नई संस्कृति स्थापित की. उनकी सोच ने नीति निर्माण को व्यावसायिक अनुमान से निकालकर प्रमाण आधारित निर्णयों की ओर मोड़ा.
महालनोबिस की आलोचना भी हुई. उनकी कार्यशैली को कुछ लोग कठोर मानते थे, परंतु उनके सहयोगी उन्हें एक ऐसे मार्गदर्शक के रूप में याद करते हैं जिनकी अपेक्षाएं ऊंची थीं और जो अपने मिशन के प्रति पूर्ण समर्पित थे. उनका व्यक्तित्व एक “बड़े बरगद के पेड़” जैसा था—जिसने छांव भी दी और दबाव भी.
उनका प्रभाव सीमित नहीं था। वे संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर सांख्यिकीय सोच के वैश्विक प्रवक्ता बने और अफ्रीका व एशिया के कई देशों ने उनकी योजनात्मक तकनीकों को अपनाया.
आज जब कोई सरकारी नीति एनएसएस डेटा पर आधारित होती है, या जब कोई युवा गणितज्ञ आईएसआई से निकलकर दुनिया को बदलने का सपना देखता है, तो दरअसल वह महालनोबिस की विरासत को आगे बढ़ा रहा होता है.
प्रशांत चंद्र महालनोबिस की कहानी हमें यह सिखाती है कि जब गहरी बुद्धि, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक प्रतिबद्धता एक साथ आती है, तब एक व्यक्ति पूरे देश की दिशा बदल सकता है.
उन्होंने भारत को आंकड़ों का आईना दिया—एक ऐसा आईना जो केवल चेहरों को नहीं, बल्कि हमारे सपनों, संघर्षों और संभावनाओं को भी प्रतिबिंबित करता है. उनकी यह विरासत आज भी जीवंत है और हमें प्रेरित करती है कि विज्ञान केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं, वह समाज के हर कोने में बदलाव का कारण बन सकता है.