The world's tallest Tajia is made in Bhikhapur of Siwan in Bihar, it is a symbol of Hindu-Muslim unity
अभिषेक कुमार सिंह/सीवान /वाराणसी
बिहार के सिवान जिले का भीखापुर गांव मुहर्रम में कुछ खास हो जाता है. यह गांव न सिर्फ दुनिया के सबसे ऊंचे ताजिए के लिए मशहूर है बल्कि यह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है. गांव में 200 साल पुरानी यह परंपरा गांव वालों के बीच सहयोग और आपसी सम्मान की गहरी भावना को दर्शाती है.
सिवान के इस गांव में मुहर्रम का त्योहार ताजिया (इमाम हुसैन की कब्रों की प्रतिकृति) के जुलूस और सार्वजनिक शोक के साथ मनाया जाता है. यह त्योहार सांप्रदायिक सद्भाव की एक मजबूत भावना को दिखाता है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय इस कार्यक्रम में हिस्सा लेते हैं. भीखापुर जैसे कुछ क्षेत्रों में, हिंदू भी करीब 200 से अधिक वर्षों से आशूरा (मुहर्रम का दसवां दिन) मनाते आ रहे हैं.
गौरतलब है कि मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, जिसे हिजरी कैलेंडर के नाम से भी जाना जाता है, और इस्लाम में इसका बहुत महत्व है. मुहर्रम को इस्लामी कैलेंडर में रमज़ान के बाद दूसरा सबसे पवित्र महीना माना जाता है. यह इस्लाम के चार पवित्र महीनों में से एक है, जिसके दौरान लड़ाई और हिंसा आम तौर पर निषिद्ध है.
भारत में, 26 जून को चांद दिखाई दिया और मुहर्रम-उल-हराम का पहला दिन 27 जून (शुक्रवार) से शुरू होगा, जैसा कि मस्जिद-ए-नखोदा मरकज़ी रूयत-ए-हिलाल कमेटी ने घोषित किया है. मुहर्रम की 10वीं तारीख़ यानी आशूरा रविवार, 6 जुलाई को मनाई जाएगी.
भीखापुर गांव की इस रवायत के बारे में स्थानीय निवासी सैयद मोहम्मद रिजवी का कहना है, "ताज़िया उठाने से पहले, हम इमाम हुसैन का प्रतीक अलम निकालते हैं. जुलूस में सभी उम्र के लोग अलम के पीछे चलते हैं."
मुहर्रम के दसवें दिन, ताजिया को पूरे गांव में घुमाया जाता है, जो सूर्यास्त से पहले कर्बला पहुंचता है. देश-विदेश के अलग-अलग हिस्सों से लौटने वाले ग्रामीण, ताजिया पर बताशा, लड्डू, मलीदा, शर्बत, खिचड़ी रोटी, तिलक और नारियल जैसी चीजें चढ़ाते हैं. यह जुलूस इमाम हुसैन की विरासत के प्रति समुदाय के समर्पण की एक मार्मिक याद दिलाता है.
मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, जो हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है, जो 680 ईस्वी में कर्बला के युद्ध में हुई थी. ताजिया, इमाम हुसैन की मकबरे की प्रति, मुहर्रम के दौरान बनाए जाते हैं और जुलूस में ले जाए जाते हैं. सीवान जिले में, विशेष रूप से भीखपुर गांव में, यह परंपरा 200 से अधिक वर्षों से चली आ रही है, जो क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
इमाम हुसैन की शहादत की याद में बनते हैं ताजिये
ताजियों को बनाने वाले कारीगरों में कई ऐसे भी होते हैं जो स्वयं करबला जाकर इमाम हुसैन के रोज़े की जियारत कर चुके हैं. जब वे वहां के अनुभवों को साझा करते हैं, तो भावनाओं से भर उठते हैं. उनकी कला में करबला का दृश्य और इमाम हुसैन की शहादत का एहसास झलकता है. ताजिया बनाते समय उनकी रचनात्मकता पूरी तरह इमाम हुसैन की याद में समर्पित होती है. उनका मानना है कि इमाम हुसैन किसी एक मज़हब या समुदाय के नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए प्रेरणा हैं.
ताजिया का आकार और परंपरा
सीवान का ताजिया वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध है. ये परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही है, जो एकता और सांस्कृतिक के आदान-प्रदान को बढ़ावा देती है.
बिहार में सीवान जिले के भीखपुर गांव में मुहर्रम के दौरान 84 फीट से लेकर 95 फ़ीट तक या उससे ऊंचा ताजिया बनाया जाता है, जो क्षेत्र में एक प्रसिद्ध परंपरा है.
यह परंपरा 200 से अधिक वर्षों से चली आ रही है और हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है. विदेशी पर्यटक भी इस ताजिया निर्माण और जुलूस में भाग लेते हैं, जो इसकी वैश्विक प्रसिद्धि को दर्शाता है. ताजिया निर्माण और जुलूस एक धार्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है, जो एकता को बढ़ावा देता है.
भीखापुर में ताजिया स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाया जाता है, जिसे रंग-बिरंगे सजावट से सजाया जाता है. ताजिया का निर्माण कई हफ्तों तक चलता है, जिसमें स्थानीय कारीगर और कलाकार अपनी कला और श्रद्धा का परिचय देते हैं.
ताजिया का ढांचा लकड़ी, कागज और कपड़े से बनाया जाता है, और इसे जीवंत रंगों और सजावट से सजाया जाता है. निर्माण प्रक्रिया न केवल एक धार्मिक कर्तव्य है, बल्कि एक कलात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो समुदाय की रचनात्मकता को दर्शाती है. इस जुलूस में भाग लेने वाले श्रद्धालु ताजिया पर बताशा, लड्डू, मलीदा, शर्बत और नारियल चढ़ाते हैं.
दूसरे धर्मों की भागीदारी
यह परंपरा हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव का एक शानदार उदाहरण है. दोनों समुदाय मिलकर ताजिया बनाते हैं और जुलूस में भाग लेते हैं, जो क्षेत्र में सामाजिक एकता को दर्शाता है.
यह परंपरा हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव का एक शानदार उदाहरण है. दोनों समुदाय मिलकर ताजिया बनाते हैं और जुलूस में भाग लेते हैं. जुलूस में पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी शामिल होते हैं, जो क्षेत्र में सामाजिक एकता को दर्शाता है. यह परंपरा गंगा-जमुनी तहजीब की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करती है, जहां विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ आकर एक साझा परंपरा को जीवित रखते हैं.
जुलूस और वातावरण
मुहर्रम के दिन, पूरा गांव एक जुलूस के रूप में इकट्ठा होता है, जिसमें ताजिया को कंधों पर उठाकर ले जाया जाता है. जुलूस के दौरान, ढोल-नगाड़े बजते हैं, और लोग "हाय हुसैन" के नारे लगाते हैं, जो शोक और श्रद्धा का माहौल बनाते हैं. यह घटना न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि समुदाय के लिए एक सामाजिक समारोह भी है, जहां लोग एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं.
वैश्विक आकर्षण और प्रभाव
हर साल, लगभग 50 या कहें तो उससे अधिक विदेशी पर्यटक इस सामाजिक समारोह में भाग लेने के लिए आते हैं, जिनके नाम जैसे फैज सादिक, कमरान रिजवी, एताश्यम अली और जियान आमिर शामिल हैं.
यह वैश्विक भागीदारी इसकी प्रसिद्धि को दर्शाती है और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देती है. विदेशी पर्यटकों की उपस्थिति से स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी लाभ होता है और यह क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाती है.
सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
सीवान का ताजिया न केवल एक धार्मिक प्रतीक है, बल्कि सांस्कृतिक एकता और विविधता का भी प्रतीक है. यह दिखाता है कि कैसे अलग-अलग धर्मों के लोग एक साथ आकर एक परंपरा को जीवित रख सकते हैं और उसमें अपना योगदान दे सकते हैं. यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहेगी और मुहर्रम की भावना को स्थानीय और वैश्विक स्तर पर जीवित रखेगी.