इमाम हुसैन: एक ऐसी शहादत जो इंसाफ़ और इंसानियत के लिए हमेशा ज़िंदा रहेगी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-06-2025
Imam Hussain: A martyrdom that will always remain alive for justice and humanity
Imam Hussain: A martyrdom that will always remain alive for justice and humanity

 

ज़ेबा नसीम

इमाम हुसैन (अ.स.) का जीवन न केवल इस्लामी इतिहास की एक महान प्रेरक गाथा है, बल्कि अच्छाई के प्रचार और बुराई को रोकने के सिद्धांत का जीवंत उदाहरण भी है. वह समय जब अत्याचारियों ने सत्य और असत्य की रेखा मिटा दी थी, इमाम हुसैन (अ.स.) ने न केवल विरोध किया बल्कि अपनी जान, अपने परिवार और अपने वफादार साथियों की कुर्बानी देकर एक अमर संदेश दिया—वह संदेश जो हर युग में इंसानियत के पक्ष में खड़ा होता है.

अबू अब्दुल्ला अल-हुसैन (अ.स.) न केवल पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.स.) के नवासे थे, बल्कि वह व्यक्ति भी थे जिन्होंने इस्लाम को उसकी असल रूह में बचाया. कर्बला के मैदान में आशूरा के दिन दिया गया उनका बलिदान केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक ऐसी क्रांति थी जिसने न जाने कितनी पीढ़ियों को अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का साहस और अल्लाह की रज़ा में रज़ामंदी का अद्वितीय उदाहरण दिया.

लगभग 14 सदियों के बाद भी, उनकी शिक्षाएँ आज भी मुसलमानों और ग़ैर-मुसलमानों दोनों को नैतिक मार्गदर्शन देती हैं.इमाम हुसैन (अ.स.) का जीवन हमें सबसे पहले अल्लाह की मर्ज़ी के आगे पूर्ण समर्पण सिखाता है.

उन्हें पहले से मालूम था कि उन्हें कर्बला में तन्हा छोड़ दिया जाएगा, पर उन्होंने कभी भी अल्लाह की योजना पर सवाल नहीं उठाया. अरफ़ा की दुआ में उन्होंने जिस प्रकार अल्लाह की हम्द और शुक्र अदा किया, वह बताता है कि सबसे कठिन घड़ी में भी एक मोमिन को रज़ा-ब-रज़ा रहना चाहिए.

इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपमान को कभी स्वीकार नहीं किया. अगर चाहते तो मदीना में यज़ीद की बैअत करके अपने प्राण बचा सकते थे, मगर उन्होंने इस्लाम की रूह को बचाने के लिए ज़ुल्म के सामने सिर नहीं झुकाया. यह सिखाता है कि झुककर जीने से बेहतर है सिर ऊँचा कर मरना.

कर्बला की वह रात, जब हर कोई अपने अंजाम से वाक़िफ़ था, इमाम हुसैन (अ.स.) ने एक दुश्मन को भी माफ करने का उदाहरण पेश किया. हुर्र बिन यज़ीद, जिसने उन्हें कर्बला में रोका था, जब पश्चाताप करता है, तो इमाम उसे गले लगाकर माफ कर देते हैं.

यह क्षमा की भावना इस बात की तस्दीक है कि दिल से माफ़ी मांगने वालों को हमें भी माफ़ करना चाहिए.कर्बला के कठिन युद्ध के बीच भी इमाम ने नमाज़ की अहमियत नहीं भूली.

ज़ुहर के समय उन्होंने और उनके साथियों ने तीरों की बौछार के बीच नमाज़ अदा की। आज भी हम ज़ियारत में कहते हैं कि "मैं गवाही देता हूँ कि आपने नमाज़ क़ायम की." इससे हमें भी यह सीख मिलती है कि परिस्थितियाँ कैसी भी हों, नमाज़ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

इमाम हुसैन (अ.स.) की इस्लाम के प्रति निष्ठा केवल कर्बला तक सीमित नहीं रही. बचपन से ही उन्होंने इस्लामी मिशन में भाग लिया. मुबाहिला के दिन, और "किसा" की घटना में उनकी उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि अल्लाह और उसके रसूल (स.अ.व.स.) की सेवा के लिए कोई उम्र नहीं होती.

इमाम हुसैन (अ.स.) का सबसे बड़ा पैग़ाम था—अच्छाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना. जब समाज में ज़ालिमों ने हक और बातिल के बीच फ़र्क मिटा दिया था, तब इमाम ने यह सिद्धांत अपनाया.

उन्होंने अपनी शहादत से एक ऐसी मशाल जला दी, जो यज़ीदियत के खिलाफ़ सदियों तक जलती रहेगी. उनकी कुर्बानी के बाद इब्न जुबैर और मुख्तार साक़फी जैसे आंदोलनों ने उठकर उमय्यद खि़लाफ़त की नींव हिला दी.

इमाम हुसैन (अ.स.) की विनम्रता भी उतनी ही प्रेरक थी। रसूल के नवासे और इमाम अली (अ.स.) के बेटे होने के बावजूद उन्होंने कभी भी खुद को दूसरों से ऊपर नहीं समझा.

उनके इसी विनम्र स्वभाव ने हज़रत हबीब बिन मज़ाहिर जैसे बुज़ुर्गों को उनके साथ खड़ा कर दिया. यहाँ तक कि उनके भतीजे हज़रत क़ासिम (अ.स.) ने उनकी राह में शहादत को "शहद से भी ज़्यादा मीठा" बताया.

इमाम हुसैन (अ.स.) का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चाई, ईमानदारी, नम्रता और त्याग जैसे मूल्यों की कीमत हर युग में बनी रहती है. उनका जीवन उन सभी के लिए एक आदर्श है जो अन्याय के विरुद्ध खड़े होते हैं और अच्छाई को ज़िंदा रखना चाहते हैं. यही वजह है कि कर्बला केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि एक चेतना है जो आज भी जीवित है.