परमवीर अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई 1933 को यूपी के गाजीपुर जिले के क़स्बे दुल्लहपूर के धामूपुर गांव में एक सामान्य देशज पस्मान्दा परिवार के मोहम्मद उस्मान और सकीना बेगम के घर मे हुआ था. उनके पूर्वज और परिवार के लोग पीढ़ियों से कपड़ा बुनने का काम करते थे.
पिता पेशे से दर्ज़ी थे.युवा हामिद भी अक्सर कपड़े सिलकर उनकी मदद किया करते थे.पर हमीद के सपनों मे कुछ और ही बुना और सिला जा रहा था जो उनके बचपन के क्रियाक्लापो से स्पष्ट प्रकट हो रहा था.उनका बचपन गांव में अन्य बच्चों की तरह ही बीता जहां खेती किसानी और पारंपरिक पारिवारिक पेशे बुनाई, सिलाई का माहौल था.
बचपन में उनकी शरारतों में एक प्रकार की दिलेरी और निडरता झलकती थी. पढ़ाई लिखाई में कम ही मन लगता था.उनकी बुद्धिमत्ता और तेज दिमाग शारीरिक गतिविधियों और व्यावहारिक कामों में अधिक प्रदर्शित होता था.
उनके दादा और नाना दोनों पहलवान थे इस कारण वह कुश्ती में विशेष रूचि लेते थे, गांव में गुलेल के उस्ताद के रूप में विख्यात थे और उनके अंदर उत्कृष्ट निशानेबाजी का नैसर्गिक गुण था,वह तैरने में भी बहुत माहिर थे एक बार बाढ़ के पानी में डूबती दो लड़कियों की जान भी बचाई थी.
वीर अब्दुल हमीद
वंचित शोषित पस्मान्दा समाज से होने के कारण उनके अंदर अन्याय के विरुद्ध लड़ने का नैसर्गिक निडरता और साहस था. कहा जाता है कि एक बार वह अकेले ही गांव के दबंगों से भिड़ गए थे जब दबंगों ने गरीब पसमांदा किसान की फसल काटने की कोशिश की थी.
बालक हमीद के इन विशेष गुणों के कारण बचपन मे ही उनको एक विशेष पहचान दिला दी थी. बचपन से ही अनुशासन कड़ी मेहनत और कर्तव्य की भावना उनमें गहराई से समाहित थी.यही गुण बाद में उनके असाधारण सैनिक करियर को परिभाषित करने और उन्हें एक महान योद्धा बनने में मदद करते हैं.
सैन्य जीवन
भारतीय सेना में शामिल होने के अपने सपने और जूनून को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने बनारस का रुख किया. यहीं पर 27 दिसंबर 1954 को 4 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट के चौथी बटालियन में 20 वर्ष की आयु मे उनकी तैनाती हुई.
भारतीय सेना में भर्ती होने के बाद अब्दुल हमीद की तैनाती देश के कई महत्वपूर्ण हिस्सों में हुई. अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, आगरा, दिल्ली, रामगढ़ और अरुणाचल प्रदेश जैसे इलाकों में उन्होंने अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाया.
सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान उनकी बटालियन ने नमका-छू के युद्ध में चीन की सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी से लोहा लिया था.इस संघर्ष में अब्दुल हमीद गंभीर रूप से घायल हो गए,लेकिन हौसला जरा भी कमजोर नहीं पड़ा.
वीर अब्दुल हमीद ने घुटनों और कोहनियों के दम पर 14 से 15 किमी की दूरी तय की और सरहद पर तिरंगा झंडा फहराया दिया था. उनकी पत्नी रसूलन बीबी बताती थी कि 1962 के युद्ध के दौरान वो जंगल में भटक गए थे और पत्ते खाकर स्वयं की जीवित रखा.
अजीम शहादत: सर्वोच्च बलिदान
सन् 1965 के युद्ध मे ऑपरेशन जिब्राल्टर की शुरूआती सफलताओं के बाद लगभग 300 से ज्यादा अति अत्याधुनिक अमेरिकन M47 और M48 अजेय पैटन टैंकों से लैस पाकिस्तान सेना ने अमृतसर शहर पर कब्जा करने, भारत की सप्लाई आपूर्ति लाइनों को काटने और जालंधर होते हुए दिल्ली तक पहुंचाने के लिए एक बड़ा हमला किया.
तरनतारण जिले के खेमकरण सेक्टर के पास असल उत्ताड़ गाँव इस युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण और खौफनाक मोर्चा था. मेजर जनरल हरबक्श सिंह और ब्रिगेडियर थियोगराज के नेतृत्व में भारतीय सेना ने अपनी रणनीति के तहत जानबूझकर असल उत्ताड़ की तरफ वापस लौट आई थी.
8 सितंबर 1965 की रात पाकिस्तान सेना ने खेमकरण के आसपास के इलाकों में भीषण हमला कर दिया. उस समय वीर अब्दुल हमीद अपनी कंपनी में क्वार्टर मास्टर हवलदार के पद पर तैनात थे, उनके पास केवल एक 106 मिमी की रिकॉईललेस राइफल थी.
उन्होंने अपनी राइफल को एक जीप पर लगाया और चुपचाप खेतों में छिपकर मोर्चा संभाल लिया, और अकेले ही गजब की सूझबूझ और साहस के साथ अजेय अमेरिकन पैंटन टैंको जो शक्तिशाली 90 एमएम की मुख्य तोप,उन्नत बख्तर बंद सुरक्षा, आधुनिक फायर कंट्रोल सिस्टम, बेहतर गतिशीलता और क्रॉस कंट्री क्षमता से लैस थे, पैंटन टैंक के कमजोर बिंदुओं जैसे पीछे का हिस्सा, साइड का बख्तर आदि पर सटीक वार और दुश्मन को भ्रमित करके एक के बाद एक आठ पैंटन टैंको जो पाकिस्तान सेना का गुरूर था को नष्ट करते चले गए.
इस अकस्मात जवाबी करवाई से पाकिस्तानी सेवा में हड़कंप मच गया वे समझ नहीं पाए कि यह हमला कहां से हो रहा है. लेकिन जब वह नवे टैंक को निशाना बना रहे थे तभी दुश्मन की ओर से दागा गया एक गोला उनकी जीप पर आ गिरा.
इस तरह भारत माता के वीर सपूत टैंक डिस्ट्रॉयर अब्दुल हमीद वीरगति को प्राप्त हो गए लेकिन उनकी इस साहस ने भारत को गौरव और विजय दोनों दिलाए. अब्दुल हमीद की इस वीरता ने पाकिस्तानी सेना के हमले को पूरी तरह से रोक दिया. पाकिस्तानी सेना को भारी नुकसान हुआ, असल उत्ताड़ पैंटन टैंकों का कब्रिस्तान बन गया और पाकिस्तान को मजबूरन पीछे हटना पड़ा. इस मोर्चे पर उनकी हार ने उनके मनोबल को पूरी तरह तोड़ दिया और दिल्ली तक पहुँचने का उनका सपना चूर-चूर हो गया.
इस प्रकार, पस्मान्दा वीर अब्दुल हमीद ने अपनी अदम्य वीरता, शौर्य और सर्वोच्च बलिदान से अशराफवादी दम्भ से भरे जनरल अयूब खान के उस घमंड को मटियामेट कर दिया जिसमे उसने कहाँ था कि इंशाअल्लाह अगले जुमे की नमाज़ वे दिल्ली की जामा मस्जिद में पढ़ेंगे.
वीर अब्दुल हमिद ने अपनी कार्रवाई से 1965 के युद्ध में भारत की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह सुनिश्चित किया कि पाकिस्तान का वह दंभपूर्ण दावा कभी पूरा न हो सके. ऑपरेशन के दौरान व्यक्तिगत सुरक्षा के प्रति उनकी पूरी उपेक्षा और लगातार दुश्मन की गोलीबारी के सामने उनकी बहादुरी के निरंतर कार्य न केवल उनकी यूनिट के लिए बल्कि पूरे डिवीजन के लिए एक शानदार उदाहरण थे.
धर्म पत्नी रसूलन बीबी का संघर्ष और कार्य
वीर अब्दुल हमीद की पत्नी रसूलन बीबी अपने पति की तरह ही साहसी, जीवटता की धनी वीर महिला थीं, जिन्होंने अपने पति के सर्वोच्च बलिदान के बाद भी अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प का परिचय दिया.
उन्हें अक्सर वीर अब्दुल हमीद की प्रेरणा स्रोत माना जाता है. वे हमेशा अपने पति को देश सेवा के लिए प्रोत्साहित करती थीं. अपने पति के इरादों और विचारों से प्रभावित रसूलन में साहस और कर्मठता कूट-कूटकर भरी थी.
वीर अब्दुल हमीद की शहादत के बाद रसूलन बीबी के सामने चार बेटे और एक बेटी की परवरिश की चुनौती थी. उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और उन्हें एक अच्छा जीवन देने के लिए संघर्ष किया. उन्होंने अपने दो बेटों जैनुल और तलत को भी भारतीय सेना में भेजा, जो उनके देश प्रेम और साहस का एक और प्रमाण है.
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से पुरस्कार ग्रहण करते हुए रसूलन बीबी
रसूलन बीबी ने अपने पति के नाम को अमर करने और उनकी स्मृति को जीवित रखने के लिए अथक प्रयास किए. उन्होंने सरकारों और सैन्य अधिकारियों के सामने अपने पति के पैतृक गांव धामूपुर में एक स्मारक बनवाने के लिए हिमालय सी हिम्मत दिखाई. उन्हीं के प्रयासों से आज धामूपुर में वीर अब्दुल हमीद का भव्य स्मारक मौजूद है.
रसूलन बीबी को भारतीय सेना से जुड़े कई आयोजनों में विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई शीर्ष राजनेताओं और सैन्य अधिकारियों ने उनसे मुलाकात की और उनके पैर छूकर सम्मान व्यक्त किया. 2015 में अब्दुल हमीद की शहादत के 50 साल पूरे होने पर "गोल्डन जुबली" समारोह में भी उन्हें सम्मानित किया गया था.
प्रधानमंत्री मोदी जी के साथ रसूलन बीबी
रसूलन बीबी का निधन 2 अगस्त 2019 को गाजीपुर के दुल्लहपुर स्थित उनके पैतृक आवास पर लगभग 95 वर्ष की आयु में हो गया. उनके निधन पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने शोक व्यक्त किया था.
रसूलन बीबी ने न केवल एक शहीद की विधवा के रूप में अपना जीवन बिताया, बल्कि वे स्वयं भी साहस, दृढ़ता और देशभक्ति की एक मिसाल थीं, जिन्होंने अपने पति की विरासत को जीवित रखने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया.
सम्मान
उनके असाधारण शौर्य और बलिदान के लिए, उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य अलंकरण परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. सेना में उनके और भी कई महत्वपूर्ण करनामों के लिए समर सेवा पदक, रक्षा पदक और सैन्य सेवा पदक से उन्हें पहले भी नवाज़ा जा चूका था.
तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने गाजीपुर में गंगा नदी पर बने पुल का नाम वीर अब्दुल हमीद के नाम पर रखा. भारतीय डाक विभाग ने 28 जनवरी 2000 एक डाक टिकट जारी किया था.
वीर अब्दुल हमीद
25 फ़रवरी 2019 को प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में निर्मित राष्ट्रीय समर स्मारक (National War Memorial) में देश के सभी वीर शहीदों के नाम अंकित हैं, जिसमें वीर अब्दुल हमीद का नाम भी शामिल है. जनवरी 2023 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (पराक्रम दिवस) के अवसर पर, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के 21 सबसे बड़े अनाम द्वी
पों का नामकरण 21 परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर किया था. इसी सूची में अब्दुल हमीद द्वीप भी शामिल है.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी वीर अब्दुल हमीद के नाम पर एक चौक है, जहाँ उनकी प्रतिमा स्थापित है. एनसीईआरटी (NCERT) ने अपनी कक्षा VI की पाठ्यपुस्तकों में वीर अब्दुल हमीद पर एक अध्याय वर्तमान शैक्षणिक वर्ष से (यानी 2024-25 सत्र से) लागू किया है.
वीर अब्दुल हमीद का अंतिम संस्कार और कब्र उनके शहादत स्थल पंजाब के तरनतारन जिले के खेमकरण सेक्टर के असल उत्ताड़ गांव मे स्थापित की गयीं है. जहाँ हर साल उनके बलिदान दिवस (10 सितंबर) एक मेला लगता है.
परमवीर अब्दुल हमीद का सर्वोच्च बलिदान हमें यह याद दिलाता है कि भारत की आत्मा उसके हर नागरिक में बसती है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का हो, उनकी कहानी पसमांदा समुदाय के लिए गौरव का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्मान में उनके योगदान की अहमियत किसी से कम नहीं.
वह केवल एक परमवीर चक्र विजेता नहीं थे, बल्कि वह सामाजिक समानता, समावेशिता और अखंड राष्ट्रवाद के जीवित प्रतीक है. उनका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है, जो आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाता रहेगा कि सच्ची वीरता परिस्थितियों से नहीं, बल्कि अटूट इरादों और देशप्रेम से पैदा होती है.
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, पसमांदा-सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक हैं)