क्या बिना सहरी के रोज़ा हो सकता है

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 19-03-2023
क्या बिना सहरी के रोज़ा हो सकता है
क्या बिना सहरी के रोज़ा हो सकता है

 

फ़िरदौस ख़ान
 
रमज़ान में मसरूफ़ियत बहुत बढ़ जाती है. देर तक जागने की वजह से कई बार सहरी के वक़्त आंख नहीं खुल पाती. ऐसे में लोग बिना सहरी खाये ही रोज़ा रख लेते हैं. अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या बिना सहरी खाये रोज़ा रखा जा सकता है? अगर रखा जा सकता है, तो किन हालात में रखा जा सकता है? क्या सहरी खाना लाज़िमी है? क्या सहरी खाना सुन्नत है? 
  
क़ुरआन में सहरी खाने का हुक्म 
 
रोज़ेदार को सहरी खाकर ही रोज़ा रखना चाहिए, क्योंकि क़ुरआन करीम में फ़ज्र की अज़ान से पहले सहरी खाने का हुक्म है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है, उसे मांगों और खाओ और पियो, यहां तक कि सुबह की सफ़ेद धारी रात की स्याह धारी से अलग होकर आसमान पर नज़र आने लगे.(क़ुरआन 2:187)
 
यानी अल्लाह तआला ने सहरी खाने का हुक्म दिया है. जो शख़्स बिना किसी मजबूरी के जानबूझ कर सहरी नहीं खाता, तो उसने सरासर नाफ़रमानी की और नाफ़रमानी करना गुनाह है. क़ुरआन पाक में बार-बार नाफ़रमानी करने वाले लोगों को दोज़ख़ के अज़ाब से ख़बरदार किया गया है.
 
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सहरी खाना सुन्नत है 
   
हज़रत अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “हमारे और अहले किताब यानी यहूदियों और ईसाइयों के रोज़ों में फ़र्क़ सहरी के लुक़मे का है.  (मुस्लिम, अबू दाऊद, तिर्मिज़ी)
 
यानी मुसलमान सहरी के वक़्त खाना खाते हैं, जबकि यहूदी और ईसाई सहरी के वक़्त खाना नहीं खाते और बिना सहरी खाये ही रोज़ा रखते हैं. क़ाबिले ग़ौर यह भी है कि यहूदी और ईसाई आधी रात में रोज़ा शुरू करते हैं यानी वे आधी रात गुज़रने से पहले ही खाना खा लेते हैं.
 
जिस वक़्त मुसलमान सहरी खाते हैं, उस वक़्त वे रोज़े से होते हैं. इसलिए मुसलमानों का सहरी खाना मुस्तहब यानी पसंद किया जाने वाला अमल है. अल्लाह का अता किया हुआ रिज़्क़ खाकर रोज़ा रखना बहुत ही बरकत वाला काम है. सहरी खाना सुन्नत भी है.   
 
हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “सहरी खाओ कि सहरी खाने में बरकत है.” (बुख़ारी)
 
अगर किसी की नीयत रोज़ा रखने की है और सहरी के वक़्त उसकी आंख न खुले, तो वह बिना सहरी खाये रोज़ा रख सकता है. लेकिन जान बूझकर सहरी छोड़ना मना है और सहरी का बहाना करके रोज़ा छोड़ना भी सही नहीं है.
 
एक बार अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “ये सहरी बरकत वाला खाना है, जो अल्लाह ने तुम्हें अता किया है, लिहाज़ा इसे छोड़ा मत करो.(मुसनद अहमद)
 
सहरी खाने में देर करना मुस्तहब माना गया है. सहरी खाने और नमाज़ शुरू करने के दरमियान नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इतना फ़र्क़ रखते कि जितने वक़्त में आदमी पचास आयतों की तिलावत कर सकता है. 
 
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हज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि ज़ैद बिन साबित रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया कि हमने अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ सहरी खायी और उसके बाद आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नमाज़ के लिए गए. हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि मैंने ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हु से पूछा कि सहरी और अज़ान के बीच कितना फ़ासला था ? उन्होंने जवाब दिया कि पचास आयतें पढ़ने के बराबर.(सहीह बुख़ारी व सहीह मुस्लिम)
 
हज़रत सैयदना यअला बिन मुर्रह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तीन चीज़ों को अल्लाह महबूब रखता है. पहली इफ़्तार में जल्दी, दूसरी सहरी में ताख़ीर यानी देर और तीसरी नमाज़ के क़ियाम में हाथ पर हाथ रखना.”
 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “सहरी बरकत ही बरकत है. लिहाज़ा इसे तर्क ना करो चाहे पानी का एक घूंट ही लो. दरअसल अल्लाह तआला और उसके फ़रिश्ते सहरी खाने वालों पर सलाम और दुरूद भेजते हैं. (मुसनद अहमद)
 
अब्दुल्लाह बिन हारिस साराह रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के एक सहाबा ने फ़रमाया कि वे अल्लाह के नबी के पास उस वक़्त पहुंचे, जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सहरी कर रहे थे. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया- “ये अल्लाह की नेअमत है, जो तुम्हें दी गई है, इसलिए सहरी खाया करो” (सुनन नसाई)
 
हज़रत अरबाज़ बिन साराह रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि मुझे अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ान में सहरी खाने के लिए बुलाया और इरशाद फ़रमाया- “बाबरकत ग़िज़ा पर आओ.” (अबू दाऊद)
 
अकसर देखा गया है कि बहुत से लोग देर से उठते हैं और जिस वक़्त वे सहरी खा रहे होते हैं तब अज़ान शुरू हो जाती है. ऐसी हालत में वे जल्दी-जल्दी खाते हैं. बहुत से लोग उन्हें टोकते हैं और तंज़ कसते हैं कि ये अज़ान के साथ-साथ खा रहे हैं.
 
होना तो यही चाहिए कि वे लोग कुछ देर पहले उठ जाया करें, ताकि तसल्ली से सहरी खा लें. उन्हें टोकने वाले लोगों को भी तंज़ नहीं करने चाहिए. उन्हें आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इस हदीस पर ग़ौर करना चाहिए.    
 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “तुम में से कोई जब फ़ज्र की अज़ान सुने और खाने पीने का बर्तन उसके हाथ में हो, तो उसे अपनी ज़रूरत पूरी किए बग़ैर न रखें.” (अबू दाऊद)
 
यानी जो लोग सहरी खा रहे हैं और तभी अज़ान शुरू हो जाए, तो हाथ के बर्तन को अपनी ज़रूरत पूरी होने के बाद ही रखें. यानी बर्तन में जो ग़िज़ा है, उसे खाने के बाद ही बर्तन को रखा जाए. ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है.     
 
अल्लाह तआला सहरी खाने वाले लोगों को इतना पसंद करता है कि उनसे खाने-पीने का हिसाब भी नहीं लिया जाएगा. अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “इंशा अल्लाह तआला तीन लोगों पर खाने में हिसाब नहीं है, जबकि हलाल खाया हो, रोज़ेदार, सहरी खाने वाला और सरहद पर घोड़ा बांधने वाला.     (तबरानी कबीर)
 
इसी तरह इफ़्तार में जल्दी करनी चाहिए. ऐसा न हो कि मग़रिब की अज़ान शुरू हो जाए और रोज़ेदार किसी काम में उलझा रहे. इफ़्तार के आदाब ये हैं कि वक़्त पर दस्तरख़्वान पर बैठ जाएं और अल्लाह से दुआ मांगे.
 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “इफ़्तार के वक़्त रोज़ेदार की दुआ रद्द नहीं होती.” एक हदीस के मुताबिक़ इफ़्तार के वक़्त अल्लाह और रोज़ेदार के दरमियान कोई पर्दा नहीं होता, यानी इस वक़्त बन्दा अल्लाह के बहुत क़रीब होता है. ज़ाहिर है कि ऐसे वक़्त में की गई कोई भी दुआ रद्द नहीं होगी और अपने अंजाम को पहुंचेगी. 
 
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हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रावी है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया- “मेरे बन्दों में मुझे ज़्यादा प्यारा वह है, जो इफ़्तार मं  जल्दी करता है.”(अहमद व तिर्मिज़ी)
 
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रावी है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “ये दीन हमेशा ग़ालिब रहेगा, जब तक लोग इफ़्तार में जल्दी करेंगे और यहूद और नसारा यानी ईसाई देर करेंगे.  (अबू दाऊद)
 
इसी बारे में हज़रत सहल इब्ने सअद रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “लोग उस वक़्त तक ख़ैर के साथ रहेंगे, जब तक इफ़्तार करने में जल्दी करते रहेंगे.”(बुख़ारी, मुस्लिम व तिर्मिज़ी)    
 
इसकी वजह ये है कि इफ़्तारी में जल्दी करके वे लोग सुन्नत के पाबंद रहेंगे, लेकिन जब वे इस सुन्नत को छोड़ देंगे और इफ़्तार में देर करेंगे, तो यह इस बात की अलामत होगी कि ख़ैर उनसे मुंह फेरने लगी है.
 
ऐसा करके वे उस सुन्नत की मुख़ालफ़त करेंगे, जिस पर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी उम्मत को छोड़कर गए थे और जिसका उन्हें हुक्म दिया गया था. इस तरह ये लोग नाफ़रमान हो जाएंगे और अल्लाह नाफ़रमानों को पसंद नहीं करता. क़ुरआन करीम में बार-बार ये बात दोहराई गई है.  
 
सहरी खाना सेहत के लिए बहुत ज़रूरी और फ़ायदेमंद है. चूंकि रोज़े की हालत में दिनभर भूखा और प्यासा रहना पड़ता है, इसलिए सहरी के वक़्त खाना लाज़िमी है. सहरी के वक़्त खजूर खानी चाहिए, क्योंकि खजूर खाना सुन्नत है.
 
अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खजूर बहुत पसंद थी. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- “खजूर बेहतरीन सहरी है.“ एक अन्य हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- ”खजूर मोमिन की अच्छी सेहरी है.“ 
 
ऐसा नहीं है कि सहरी में बहुत ज़्यादा खाना चाहिए. अगर किसी की तबीयत इजाज़त नहीं देती और किसी वजह से खाने का मन नहीं है, तो चार-पांच खजूर खाकर भी रोज़ा रखा जा सकता है. एक गिलास दूध भी पिया जा सकता है. रोटी के चन्द निवाले भी खाये जा सकते हैं. पानी भी पिया जा सकता है.
 
क़ाबिले ग़ौर है कि खजूर जिस्म के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद ग़िज़ा है. इसमें मौजूद पोषक तत्व जिस्म को क़ूवत देते हैं और बहुत सी बीमारियों से बचाते भी हैं. दूध भी पौष्टिक तत्वों से भरपूर होता है. इससे भूख भी मिटती है और प्यास भी बुझ जाती है. 
 
ऐसा नहीं है कि सहरी या इफ़्तार में खजूरें ही खानी हैं. खजूर खाना सुन्नत है, फ़र्ज़ नहीं. ये सुन्नत इसलिए है, क्योंकि हमारे आक़ा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने खजूर से सहरी और इफ़्तार करने की तरग़ीब दी है.
 
अगर रोज़ेदार के पास खजूर नहीं है, तो सहरी और इफ़्तारी में कुछ और भी खाया जा सकता है. यानी रोज़ेदार जो चाहे खा सकता है, ये उसकी अपनी ज़ाती पसंद और नापसंद का मसला है. चूंकि मुसलमान अल्लाह और उसके रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर ईमान रखते हैं,
 
इसलिए सुन्नत की अहमियत बढ़ जाती है और ये तक़वा में शामिल हो जाती है. वैसे भी महबूब की पसंदीदा चीज़ से मुहब्बत होना तो लाज़िमी है और जब बात दीन की हो, तो ये पुख़्ता ईमान की अलामत बन जाती है. इसलिए बिना सहरी खाये रोज़ा नहीं रखना चाहिए.
 
(लेखिका आलिमा हैं. उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)