हिंदुस्तान के हुनरमंद10 : मो. मतलूब ने चिलम भरी, मालिश की, तब बने शिल्पकार, कई डिप्लोमैट उनकी कला के मुरीद

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 09-03-2023
वुड क्राफ्ट के लिए चिलम भरी, मालिश की
वुड क्राफ्ट के लिए चिलम भरी, मालिश की

 

अर्चना

 

उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर निवासी 55 वर्षीय मोहम्मद मतलूबे दस साल की उम्र में  वुड क्राफ्ट की कला सीखने लग गए थे. पांचवीं तक की पढ़ाई दोपहर तक करने के बाद वह उत्साद के पास जाते. वहां उनके लिए हुक्के की चिलम भरते.
 
कई बार तो शाम के समय कारखाने की सफाई भी करनी पड़ी. शिल्पकारों के बालों में तेल तक लगाया. मतलूब के जुनून ने आज उन्हें एक सफल शिल्पकार बना दिया. इसी के बल पर वह शिल्पकार का सबसे बड़ा पुरस्कार शिल्पगुरू अवार्ड पाने में सफल रहे.
 
इसके अलावा भी इन्हें दुनिया के कई देशों से इंटरनेशनल अवार्ड मिल चुका है. दुनिया के कई अंबेसी में इनकी कलाकारी के निशान मौजूद हैं. अब इनका पूरा परिवार इस पुश्तैनी कारोबार में लगा हुआ है. करीब दो हजार लोगों को प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बना चुके हैं.
 
इनके बेटे मरगूब ने 12वीं तक पढ़ाई करने के बाद उनके काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया है. बेटी शारिया बीएससी और स्पेनिश लेंग्वेज का कोर्स करने के बाद मुगलकालीन जालियां बनाने में महारत हासिल कर चुकी है.

एक मुलाकात के दौरान मो. मतलूब ने बताया कि वुड क्राफट का ये धंधा उनका करीब तीन सौ साल पुराना पुश्तैनी कारोबार है. पूर्वज पहले गांवों में घरांें के नक्काशीदार दरवाजे, बैलगाड़ी व तांगे के पहिए बनाया करते थे.

बिजनौर जिले का नगीना इलाका वुड क्राफ्ट का हब माना जाता है. वर्ष 1972-73 के आसपास वालिद मो. अयूब भी अपने पूर्वजों की तरह की गांव में काम किया करते थे. इससे घर का खर्च भी मुश्किल से चलता था. इसे देखकर मो. मतलूब ने पिता का सहारा बनने के लिए स्कूल से आने के बाद समय निकालकर गांव शिल्पकार शब्बीर हुसैन के पास जाने लगे.

उनके काम को बारीकी से देखते. वह बताते हैं कि काम को सीखने के लिए कई बार उन्हें हुक्का की चिलम भरने पड़े. कारखाने की सफाई से लेकर उस्ताद के बालों में मालिश तक करनी पड़ी.

पहले टकाई करने का मिला काम

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मो. मतलूब बताते हैं कि साल दो साल काम शब्बीर हुसैन के पास रहने के बाद वह लकड़ी पर निशान लगाकर देते थे. उस निशान के अनुसार उसमें हथियार से टकाई करनी पड़ती थी. सीखने का ये सिलसिला करीब 4-5 साल तक चला. वर्ष 1980 के आसपास उनके ताऊ अब्दुल रहमान खान उन्हें दिल्ली लेकर आए.

वह हाथी की दांत पर नक्काशी किया करते थे. दिल्ली आकर उन्होंने हाथी की दांत पर बारीकी से नक्काशी करने की कला सीखी. ताऊ पॉकेट खर्च के लिए 50 रुपए दिया करते थे. वर्ष 1988 में केंद्र सरकार ने हाथी के दांत पर नक्काशी करने पर रोक लगा दी. मजबूरी में फिर लकड़ी की ओर आना पड़ा.

दूसरों के लिए किया काम

मो. मतलूब बताते हैं कि वर्ष 1989-90 में महरौली स्थित गुप्ता ब्रदर्श विदेशी एंबेसी के फर्नीचर का काम कराया करते थे. मतलूब ने उनके लिए काम करना शुरू किया. उनकी नक्काशी से खुश होकर तत्कालीन पुर्तगाल के एंबेसडर ने मिलने के लिए बुलवाया, फिर अंबेसडर सीधे काम कराने लगे. यहीं से उन्होंने अपना खुद का काम शुरू किया.

मतलूब का कहना है कि पहले वह चंदन की लकड़ी पर नक्काशी करते थे. अब टीक वुड, शीशम और कदम की लकड़ी पर नक्काशी करते हैं. वे सभी प्रकार के डेकोरेशन एवं गिफ्ट आइटम बनाते हैं. इसके अलावा घरेलू उपयोग की रसोई से लेकर श्रंगार तक में प्रयोग होने वाले सामान बनाने लगे.

आधा दर्जन देशों में पहुंचाई काष्ठ कला

शिल्पकार ने बताया कि उन्होंने दुनिया के आधा दर्जन से अधिक देश इग्लैंड, इजिप्ट, ओमान, अर्जेंटीना, बेल्जियम, इटली, श्रीलंका ईरान आदि देशों में अपने काष्ठ नक्काशी पहुंचा चुके हैं. अभी दिसंबर 2022 में वह जापान होकर आए है,

वहां म्यूजियम में काम किया है. वहां फर्नीचर में मांग के अनुरूप नक्काशी की गई है. कदम की लकड़ी की इनके द्वारा की गई नक्काशी को देखकर हैरान हो जाएंगे. उन्हांेने एक लकड़ी का बाक्स बनाया है. उसमें एक प्लेट के दोनों ओर अलग-अलग प्रकार की नक्काशी की गई है. ऐसा अभी तक बहुत कम शिल्पकार कर पाए हैं.

लकड़ियों पर मुगलकालीन आर्ट

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मो. मतलूब ने बताया कि उनकी ज्यादाकर डिजाइन में मुगलकालीन आर्ट की झलक दिखाई देती है. इस कला को अब तक करीब दो हजार लोगों को सिखाकर उन्हें आत्मनिर्भर बना चुके हैं. बिजनौर के नगीना में ही अपनी वर्कशॉप लगा रखी है. यहां  भी करीब एक दर्जन लोग काम करते हैं. दिन भर काम सीखने के बदले महीने में 25 पैसे पाने वाले मो. मतलूब अब एक से सवा लाख रुपए कमा रहे हैंं.

कई अवार्ड मिले

शिल्पकार ने बताया कि उन्हें वर्ष 2003 में नेशनल मेरिट अवार्ड से सम्मानित किया गया था. वर्ष 2005 में नेशनल अवार्ड और वर्ष 2016 में शिल्पकला के क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरस्कार शिल्पगुरू अवार्ड मिला. इसके अलावा 2006 में यूनेस्को अवार्ड, 2012 में 26 जनवरी पर झांकी सम्मान, वर्ष 2018 में वर्ल्ड क्राफ्ट काउंसिल कुवैत सम्मान मिल चुका है.

उन्होंने बताया कि वर्ष 1892 में एनके पूर्वज को इंग्लैंड बुलाया गया था. इसी कला के लिए वर्ष 2011 में उन्हें सम्मानित किया गया था. कदम की लकड़ी पर बनाई जाने वाली इनकी डिजाइन के प्रोडक्ट की मुंबई, हैदराबाद और केरल में सबसे अधिक मांग है. इसके अलावा एक्सपोर्टरों के माध्यम से दुनिया के कई देशों में सामान भेजा जाता है.

क्राफ्ट को विषय के रूप में शामिल करे सरकार

मो. मतलूब ने बताया कि उनके संघर्ष से सफलता तक की कहानी में सरकारों का बहुत योगदान रहा है. देश-दुनिया के सभी मेले और प्रदर्शनी में सरकार ने उन्हें जाने और अपनी कला का प्रचार करने का मौका दिया. वह चाहतेे हैं कि युवा पीढ़ी के लिए लुप्त हो रहे क्राफ्ट को एक विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए.

स्कूली स्तर पर बच्चों को प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया जाए. देश के विभिन्न हिस्सों के नेशनल अवार्डी और शिल्पगुरूओ को बुलाकर उन्हें मास्टर ट्रेनर के रूप में रखा जाए. तभी हमारे देश की ये धरोहर बच सकती है.