हिंदुस्तान के हुनरमंद 2: दादा फेरी लगाकर बेचते थे कॉलीन, अब मुंबई व चंडीगढ़ में शोरूम, 200 लोगों को दिया रोजगार

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-03-2023
दादा फेरी लगाकर बेचते थे कॉलीन, अब मुंबई व चंडीगढ़ में शोरूम, 200 लोगों को  दिया रोजगार
दादा फेरी लगाकर बेचते थे कॉलीन, अब मुंबई व चंडीगढ़ में शोरूम, 200 लोगों को दिया रोजगार

 

अर्चना

उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के रहने वाले शिल्पकार शादाब अली के दादा फेरी लगा लगाकर रेहड़ी पर कालीन बेचते थे. बड़ी मुश्किल से परिवार का खर्च निकल पाता. पैसे थे नहीं तो दूसरों के यहां काम करना पड़ता था. संघर्ष करते करते गांव वालों के कहने पर मुंबई पहुंच गए. वहां भी रेहड़ी पर कालीन बेचना शुरू किया. धीरे-धीरे समय ने साथ दिया, कुछ पैसे एकत्र हुए, तो बांद्रा में एक छोटी दुकान खरीद ली. कमाई बढ़ने के साथ ही गांव में अपना एक कारखाना खोल लिया. यहां से माल तैयार करके अपनी दुकान में बेचना शुरू कर दिया.

 

धीरे-धीरे परिवार के अन्य सदस्य भी इस धंधे में जुड़ते गए. मेहनत और संघर्ष के बदौलत आज इनके परिवार की मुंबई और चंडीगढ़ जैसे शहरों में तीन चार दुकानें हैं. मुंबई में अपना घर बना लिया. गांव में पांच कारखाने खोलकर करीब 200 लोगों को रोजगार दे रखा है.

 

शादाब के बड़े भाई शहनवाज अहमद को वर्ष 2012 में बुनकर अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. अब लगातार चार पीढ़ी से ये परिवार कालीन उद्योग में लगा हुआ है. 22 वर्षीय शिल्पकार शादाब अली अपने पुश्तैनी कारोबार की सफलता और संघर्ष की कहानी एक मुलाकात में शेयर की.

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103 साल पहले से ये परिवार है कालीन उद्योग में

शादाब बताते हैं कि वैसे ताे कालीन उद्योग के लिए यूपी का भदोही जिला जाना पहचाना नाम है. मूलरूप से गांव मिर्जापुर के रहने वाले शादाब के परदादा स्व. हाजी सुलेमान ने वर्ष 1920 के आसपास घर में ही कालीन बनाने का काम शुरू किया था. वह दूसरों के लिए माल तैयार करते थे. इनके बाद दादा लुकमान ने इस कला को सीखकर हाथ बंटाना शुरू कर दिया. कुछ पैसे एकत्र कर अपना काम शुरू किया. काम में माहिर होने के बाद अपनी बनाई कालीन जिले के आसपास के बाजारों में जा जाकर बेचना शुरू किया. शुरू के दौर में इनकम इतनी कम थी कि परिवार का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता था.

 

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परिवार बढ़ने के साथ व्यापार भी बढ़ा

शादाब कहते हैं कि उनके दादा लुकमान के पांच बेटे हुए. मोहम्मद अली, सलाउद्दीन, वाजा गुलाम, मोबीन और हाजी जुनैद. परिवार बढ़ने के साथ ही ये लोग भी काम में हाथ बंटाना शुरू किया और तैयार माल को बाजारों में बेचना. पूरा परिवार इसी धंधे में जुट गया. आमदनी बढ़ने के बाद दादा लुकमान मुंबई पहुंच गए और वहां कालीन बेचना शुरू किया. धीरे धीरे पांचों बेटे भी मुंबई और चंडीगढ़ की ओर निकल पड़े.

 

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दूसरे की साइकिल मांग कर बाजार में चलाते थे काम

शादाब बताते हैं कि शुरू के दौर में साइकिल भी किसी किसी के पास हुआ करती थी. दादा लुकमान अपनी कालीन बेचने के लिए दूसरे की साइकिल मांगकर बाजार में जाकर कालीन बेचते थे. महीने में मुश्किल से तीन से चार रुपए की आमदनी हुआ करती थी. उसी से कालीन के लिए माल खरीदने और परिवार चलाने का काम किया जाता था. पूरे साल काम भी लगातार नहीं चलता था. मिट्‌टी के बने घरों में कई बार बारिश के दिनों में परेशानी उठानी पड़ती थी.

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अब नई पीढ़ी संभाल रखा है कारोबार


शादाब का कहना है कि उनके सभी चाचा व ताऊ के परिवार की नई पीढ़ी ने काम संभाल रखा है. कुछ लोग मुंबई के बांद्रा में कारोबार संभाल रहे हैं तो कई चंडी़गढ़ में. दोनों शहरों में अपने मकान और दुकानें भी हैं. पूरे वर्ष कालीन का कारोबार चलता है. मांग को पूरी करने के लिए गांव भदोही में पांच कारखाने लगाकर करीब 200 लोगों को काम पर रखा है.

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एक दर्जन देशों में करते हैं सप्लाई

शादाब ने बताया कि वह इरान से मैरिनोगुल ऊन, टर्की से टिक्चर सिल्क मिक्स व अफगानिस्तान से सिलकान सिल्क मंगाकर उससे कालीन बनाते हैं. इस इस कॉलीन को देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा दुनिया के करीब एक दर्जन देश जैसे बांग्लादेश, भूटान, साउथ अफ्रीका, अमेरिका, चीन,जापान, जिंबांबे, सूडान, युगांड़ा, सउदी अरब, दुबई आदि देशों में निर्यात करते हैं. इसके अलावा ऑनलाइन भी माल की सप्लाई की जाती है. गोशिया कारपेट के नाम से गूगल पर सर्च किया जा सकता हैै.

 

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सरकार से मिलता है भरपूर सहयोग

शिल्पकार ने बताया कि यूपी सरकार से उन्हें व्यापार करने में भरपूर सहयोग मिलता है. सरकार के माध्यम से ही कई बड़े बड़े मेला अथवा प्रदर्शनी में जाने का अवसर मिला है. हुनर हाट  और लखनऊ महोत्सव में भी बुलाया जाता है. उनका कहना है कि हुनर हाट को बंद नहीं करना चाहिए. इससे शिल्पकारों को अपने हुनर को देश दुनिया के सामने दिखाने का मौका मिलता है. सरकार की योजनाओं से ही माल को बेचने के लिए मार्केट मिल रहा है.

 

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बुजुर्गों के संघर्ष से हासिल हुआ मुकाम

शादाब के चचेरे भाई एवं शिल्पकार शाफाद अली बताते हैं कि बुजुर्गो की दो पीढ़ी के संघर्ष ने ही आज उनके परिवार को एक मुकाम हासिल हो गया. हमारी पीढ़ी को ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. बस केवल पुश्तैनी कारोबारी को संभालना है. मुंबई और चंड़ीगढ़ जैसे महानगरों में दुकान और मकान होना अपने परिवार की सफलता की कहानी बयां करता है.

कल तक सुविधाओं के लिए जूझने वाला हमारा परिवार आज लग्जरी जीवन जी रहा है. परिवार की आमदनी हजारों में नहीं बल्कि लाखों में पहुंच गयी है.शाफाद ने बताया कि आज उनके पास 100 रुपए से लेकर बाबू सिल्क की 9x12 की बनी कालीन 50 लाख रुपए तक की कीमत के कालीन बनाते हैं.

(हिंदुस्तान के हुनरमंद सीरीज में हम देश के शिल्पकारों, दस्तकारों और कारीगरों की कहानियां आपको एक श्रृंखला के रूप में पेश करेंगे. आप की राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगाः संपादक)


 

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