मोइन काजी
इस्लाम एक विशाल विश्वास है, जिसके 1.6 बिलियन अनुयायी इस्लामिक दुनिया में फैले हुए हैं, जो 15,000 किलोमीटर से अधिक क्षेत्र फैला हुआ है. समुदाय का एक बड़ा वर्ग कई देशों में अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में रहता है, जो रूढ़िवादिता, भेदभाव और पहचान के मुद्दों से जूझ रहा है.
हालिया दिनों में, इस्लामोफोबिक ब्रिगेड के शक्तिशाली प्रभाव के कारण, इस्लाम और उसके अनुयायियों के खिलाफ नफरत का एक बड़ा उछाल आया है. मुसलमानों को राक्षस के रूप में पेश किया जाता रहा है और उन्हें समान रूप से कट्टरपंथी, हिंसक और धर्मनिरपेक्ष विरोधी के रूप में पेश किया जाता रहा है.
यह शक्तिशाली रूप से त्रुटिपूर्ण कथा और नकारात्मक रूढ़िवादिता इस्लाम की विकृत धारणाओं को बढ़ावा देती है. यह धारणा पुख्ता सबूतों पर आधारित नहीं है, बल्कि मीडिया में रुक-रुक कर होने वाली रिपोर्टिंग और अटकलों से पैदा होती है. ऐसे माहौल में जहां मुसलमान पहले से ही अलग-थलग और हाशिए पर महसूस कर रहे हैं, उनके धर्म और पहचान का मजाक उड़ाना और उपहास करना आम हो गया है.
इस्लाम, वास्तव में, शांति का धर्म है. यही इसका लक्ष्य है. कुरान के शक्तिशाली आदेश में कोई संदेह नहीं होना चाहिएः ‘‘जिसने किसी इंसान को हत्या या पृथ्वी में भ्रष्टाचार के अलावा किसी अन्य बात के लिए मार डाला, ऐसा माना जाता है कि उसने सभी मानव जाति को मार डाला, और जिसने एक की जान बचाई, वह मानो उसने सारी मानवजाति की जान बचाई हो.’’ (कुरान 5ः32).
कुरान करीम, अपने सार में, न्याय, शांति और स्वतंत्रता को बढ़ावा देती है. करुणा और दया इसके मूल संदेश को रेखांकित करते हैं. इसे समझने के लिए पूरी कुरान पढ़नी होगी न कि अलग-अलग आयतें. कुरान में कोई आयत एक अकेला आदेश नहीं है. प्रत्येक का न केवल दूसरे पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि उसे बढ़ाता भी है.
पाठ की आवाज एक संवाद का फल है. कुछ के लिए, परमेश्वर की शांति उसकी तलवार के द्वारा है. दूसरों के लिए, यह उसकी असीम दया में पाया जाता है. संपूर्ण प्रतिमान मानवीय व्याख्या के इर्द-गिर्द निर्मित है.
शांतिवादी और आतंकवादी एक ही पाठ पढ़ते हैं, लेकिन मौलिक रूप से भिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं. कुरान के पाठक और व्याख्याकार पर विचार करना महत्वपूर्ण है. इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा सुनी गई कुरान की आवाज प्रगतिशील मुसलमानों द्वारा सुनाई जाने वाली आवाज के समान नहीं है.
यह आवश्यक है कि कुरान की पूरी आयतें एक दूसरे के साथ मिलकर पढ़ी और समझी जाएं. छंदों को अलगाव में पढ़ना और व्याख्या करना कुरान के साथ उलझने का एक बहुत ही गलत तरीका है. यह एक ऐसा अर्थ देगा जो आपके अपने विश्वदृष्टि के अनुरूप हो.
इस्लाम हिंसा को बढ़ावा नहीं देता
उदाहरण के लिए, जिहाद की वर्तमान आधुनिक परिभाषा शब्द के भाषाई अर्थ के विपरीत है और अधिकांश मुसलमानों की मान्यताओं के विपरीत भी है, जो इसे धार्मिक अतिवाद से जोड़ते हैं. जिहाद शब्द अरबी मूल शब्द जे-एच-डी से निकला है, जिसका अर्थ है ‘प्रयास करना’. इस मूल से व्युत्पन्न अन्य शब्दों में ‘प्रयास’, ‘श्रम’ और ‘थकान’ शामिल हैं.
अनिवार्य रूप से, जिहाद उत्पीड़न के सामने अपने धर्म के साथ खड़े होने का संघर्ष है. यह प्रयास आपके अपने दिल की बुराई से लड़ने या किसी तानाशाह के खिलाफ खड़े होने के रूप में हो सकता है.
पहली बार कुरान में इस शब्द का प्रयोग किया गया है, यह ‘उत्पीड़न के प्रतिरोध’ (कुरान 25ः26) को दर्शाता है, जो उग्रवादी के बजाय आध्यात्मिक और बौद्धिक है. नैतिकतावादी दृष्टिकोण अंतरात्मा के माध्यम से जिहाद (जिहाद बिन नफ्स) का समर्थन करता है, जबकि एक अधिक कट्टरपंथी विंग तलवार (जिहाद बिन सैफ) के माध्यम से जिहाद की वकालत करता है.
मुख्यधारा की मुस्लिम परंपरा में भी, सबसे बड़ा जिहाद युद्ध नहीं, बल्कि खुद का और अपने समाज का सुधार था. पैगंबर मुहम्मद ने समझाया कि सच्चा जिहाद अहंकार के खिलाफ एक आंतरिक संघर्ष था.
इस आयत के कारण बहुत गलतफहमी हैः ‘‘जहाँ कहीं भी आप उन्हें पकड़ें, उन्हें मार डालें’’ (कुरान 2ः191). लेकिन यह किसकी बात कर रहा है? ‘वे’ कौन हैं, जिन पर यह आयत चर्चा करती है?
‘वे’ वे आतंकवादी हैं, जिन्होंने अपने विश्वास के लिए निर्दोष लोगों को सताया और मार डाला. भावनाओं को भड़काने, गलतफहमियों को बढ़ावा देने और सभी पक्षों में हिंसा को बढ़ावा देने के लिए शरारती तत्वों द्वारा कुछ छंदों को अक्सर संदर्भ से ‘छीन’ लिया जाता है.
कुरान 3ः8 उन लोगों को पहले से ही बुलाता है, जो आयतों को ‘विकृत’ लोगों के रूप में चुनते हैं, घोषणा करते हैं, ‘‘... जिनके दिल में विकृति है, वे कलह चाहते हैं और कुरान, की गलत व्याख्या चाहते हैं.’’
इस्लाम लड़ने की इजाजत देता है, लेकिन केवल आत्मरक्षा में - धर्म की रक्षा में, या उन लोगों की ओर से, जिन्हें उनके घरों से जबरन निकाल दिया गया है. कुरान 22ः40-41 में लड़ने की अनुमति केवल ‘उन लोगों को दी गई जिनके खिलाफ युद्ध छेड़ा गया है.’
साथ ही, यह कड़े नियम भी निर्धारित करता है, जिसमें नागरिकों को नुकसान पहुँचाने और फसलों, पेड़ों और पशुओं को नष्ट करने पर रोक शामिल है. यह महत्वपूर्ण है कि हम इस्लाम के इस महत्वपूर्ण आयाम को समझें.
पहला, मुसलमान पहले से ही युद्ध शुरू नहीं कर सकते. उन्हें केवल बचाव में कार्य करने की अनुमति है. युद्ध छेड़ा जा सकता है, अगर ऐसी स्थिति हो, जहां रक्षाहीन लोगों पर हमला हो रहा हो. एक युद्ध तभी माना जाता है, जब एक पक्ष प्रस्तावित युद्धविराम के बावजूद आक्रामकता नहीं रोकता है.
यदि दुश्मन शांति की ओर झुकता है, तो मुसलमानों को इसका पालन करना होगाः ‘‘लेकिन अगर वे रुक गए, तो भगवान सबसे क्षमाशील, सबसे दयालु है’’ (कुरान 2ः192). यह भी पढ़ेंः ‘‘अब यदि वे मेल की ओर झुकें, तो उसकी ओर झुकें, और परमेश्वर पर भरोसा रखें, क्योंकि परमेश्वर सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है’’ (कुरआन 8ः61).
दूसरा, मुसलमानों को दैवीय आदेशों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं हैः ‘‘जो आपसे लड़ते हैं, अल्लाह के कारण के लिए लड़ें, लेकिन अपराध न करें, क्योंकि भगवान अपराधियों से प्यार नहीं करते.‘‘ (कुरआन 2ः190).
तीसरा, मुसलमानों को युद्ध बंदियों के साथ सम्मान से पेश आना चाहिए. युद्ध के बाद कैदियों को रिहा करना पड़ता है, या तो मुसलमानों के बंदियों के बदले में या केवल एक एहसान के रूप में.
इतिहासकार सर विलियम मुइर रिकॉर्ड करते हैं कि कैसे पैगंबर मुहम्मद ने अपने साथियों को युद्ध के कैदियों का इलाज करने का निर्देश दिया था. शरणार्थियों के अपने घर थे, उन्होंने कैदियों को दया और विचार के साथ प्राप्त किया.
‘‘मदीना के आदमियों पर आशीर्वाद!’’ बाद के दिनों में उनमें से एक ने कहाः ‘‘उन्होंने हमें सवारी दी, और वे स्वयं चले गए, उन्होंने हमें खाने के लिए गेहूं की रोटी दी, जब वे थोड़ी थीं, और खुद को खजूर से तृप्त कर रहे थे.’’
कुछ इतिहासकारों ने जो चित्रित किया है, उसके विपरीत, इस्लाम ने स्वयं को तलवार के बल पर नहीं थोपा. कुरान में यह जोरदार ढंग से स्पष्ट किया गया हैः ‘‘विश्वास के मामलों में कोई जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए!’’ (कुरआन 2ः256). मुहम्मद द्वारा अपने अंतिम सार्वजनिक उपदेशों में उद्धृत शब्दों में, अल्लाह सभी मनुष्यों से कहते हैं, ‘‘हे लोगों! हमने तुम्हें राष्ट्रों और जनजातियों में बनाया है, ताकि तुम एक दूसरे को जान सकोः (कुरआन 49ः13).
इसके अलावा, इस्लामी युद्ध केवल मुसलमानों को उत्पीड़न से बचाने के लिए नहीं थे - बल्कि ईसाइयों, यहूदियों और सभी धर्मों के लोगों की रक्षा के लिए थे. लड़ाई को संबोधित करने वाले सभी आयतें आत्मरक्षा के नियमों के साथ पूर्वनिर्धारित हैं. कुरान कहता है कि ‘‘उत्पीड़न वध से भी बदतर है’’ और ‘‘उत्पीड़न करने वालों के अलावा कोई शत्रुता न हो’’ (कुरआन 2ः190-193).
सहिष्णुता इस्लाम का सार है
20 साल बाद मक्का में अपनी विजयी वापसी पर, पैगंबर मुहम्मद ने उन स्थानीय लोगों के लिए कोई दुश्मनी नहीं बरती, जिन्होंने उन्हें और उनके साथियों को सताया था, जिससे उन्हें मदीना जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने पूरी तरह से क्षमा की पेशकश की, एकमात्र शर्त यह थी कि मक्कावासी अंतरात्मा की सार्वभौमिक स्वतंत्रता को स्वीकार करते हैं.
सहिष्णुता की इस भावना को ध्यान में रखते हुए जिसे पैगंबर मुहम्मद ने अपने जीवनकाल में प्रदर्शित किया, आज के मुस्लिम विचारकों को लगता है कि आपसी सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की इस परंपरा से खुद को दूर करने की कोई अनिवार्यता नहीं है.
वे संसाधनों को खोजने के लिए इसे प्लंबिंग कर रहे हैं, ताकि उन्हें आधुनिक दुनिया के अनुकूल बनाने में मदद मिल सके और इसे उसी तर्ज पर आकार दिया जा सके. मुस्लिम धार्मिक विद्वान उन सिद्धांतों और प्रथाओं को खोज रहे हैं और लोकप्रिय बना रहे हैं, जो अतीत में मुसलमानों को पंथ और विश्वास की परवाह किए बिना,
शांति और समान शर्तों पर दूसरों के साथ सह-अस्तित्व की अनुमति देते थे. वे खुद को याद दिलाते रहते हैं कि सातवीं शताब्दी के मदीना ने 622 ईस्वी में पैगंबर मुहम्मद द्वारा तैयार किए गए मदीना के संविधान के तहत यहूदियों को समुदाय (उम्मा) के समान सदस्य के रूप में स्वीकार किया था.
मुस्लिम सुधारक इस कठिन समय में समाधान खोजने के लिए मूलभूत पाठ, कुरान और इसकी टिप्पणियों और धर्म के अन्य प्रारंभिक स्रोतों - पैगंबर मुहम्मद की प्रामाणिक बातें, प्रारंभिक ऐतिहासिक कालक्रम - की ओर लौट रहे हैं. वे नैतिक दिशा-निर्देशों और नैतिक नुस्खों पर बेहतर प्रकाश डालने के लिए अपने साहित्य का अध्ययन कर रहे हैं.
गैर-मुस्लिम इतिहासकार स्टेनली लेन-पूल के प्रमाण से पैगंबर मुहम्मद के सहिष्णुता और क्षमा के सिद्धांत का कोई बेहतर वसीयतनामा नहीं हैः ‘‘मुहम्मद की अपने दुश्मनों पर सबसे बड़ी विजय का दिन भी खुद पर उनकी सबसे बड़ी जीत का दिन था. उन्होंने स्वतंत्र रूप से क्षमा कर दिया. कुरैश के सभी वर्षों के दुख और क्रूर तिरस्कार, जिसमें उन्होंने उन्हें पीड़ित किया था और मक्का की पूरी आबादी को माफी दी थी.’’
(लेखक पीएचडी, अर्थशास्त्र और इस्लाम पर कई पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें पैगंबर मुहम्मद और खलीफा उमर की बेस्टसेलिंग आत्मकथाएँ शामिल हैं.)