सर सैयद अहमद खान क्या पसमांदा मुसलमानों की आधुनिक शिक्षा के विरोधी थे ?

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 9 Months ago
सर सैयद अहमद खान क्या पसमांदा मुसलमानों की आधुनिक शिक्षा के विरोधी थे ?
सर सैयद अहमद खान क्या पसमांदा मुसलमानों की आधुनिक शिक्षा के विरोधी थे ?

 

अब्दुल्ला मंसूर

ज्यादातर हम समझते हैं कि मौलवी या उलेमा ही धार्मिक उपदेश के जरिए मतिभ्रम फैलाते हैं. पर मेरा अपना अनुभव है कि देवबंदी, बरेलवी, अहले-हदीस आदि मसलक के उलेमाओं की जातिवादी सोच के खिलाफ लिखने पर मुझे उतना विरोध झेलना नहीं पड़ा, जितना कि सर सैयद की जातिवादी सोच के खिलाफ लिखने पर झेलना पड़ा है.

अलीगढ़ के पढ़े-लिखे अशराफ छात्रों को छोड़िए, आप अलीगढ़ के पसमांदा छात्र से भी तर्क करने की कोशिश करेंगे, तो वह वही तर्क और तथ्य आप के सामने रखेगा, जो दशकों से अशराफ बुद्धिजीवी रखते आ रहे हैं.

ऐसे संदर्भविहीन तथा भ्रामक तर्कों और तथ्यों के द्वारा पसमांदा मुसलमानों के दिमाग को इस तरह काबू में कर लिया गया है कि वह अपने शोषक से ही मोहब्बत करने लगे हैं. जैसा कि स्टीव बाइको कहते हैं “शोषकों के हाथ में सब से कारगर हथियार शोषितों का दिमाग होता है.”

(The most potent weapon in the hands of the oppressor is the mind of the oppressed) यह बस यूँ ही नहीं हुआ, बल्कि इसे बड़े ही सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया है.

सर सैयद के मामले में यह काम ‘अलीगढ़ ओल्ड बॉयज एसोसिएशन’ के अशराफ लड़कों ने किया. सर सैयद की महानता को स्थापित करने में ‘सर सैयद डे’ को एक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया.

इसमें शक नहीं कि भारत में मुसलमानों की पहली पढ़ी-लिखी पीढ़ी इन्हीं अशराफ लड़कों की रही है. ये यह जहां भी गए, वहां सर सैयद की महात्मा वाली छवि बनाई.

सर सैयद के आस-पास एक आभा मंडल गढ़ा गया. झूठे-सच्चे किस्से गढ़े गए और उसके पक्ष में, उनकी महानता बताते हुए किताबें लिखी गईं. उनकी शान में गाने-कविताएं-गजलें लिखी गईं. (मौजूदा दौर में) सोशल मीडिया पर पेज बनाए गए,

उनकी डीपी लगाई गई. अकीदत की एक पूरी संस्कृति विकसित की गई, ताकि हर विरोधी स्वर को दबा दिया जाए और सर सैयद का कोई भी विरोध ईशनिंदा ही समझा जाए. सिर्फ सर सैयद ही नहीं, बल्कि किसी भी व्यक्ति को महत्मा बनाने का यही तरीका होता है. हर धर्म, सम्प्रदाय, तथा विचारधारा अपने-अपने महात्माओं को गढ़ती है,

जिससे वह अपनी विचारधारा को एक मूर्त रूप दे सकें. ईसा (अ.स.), मोहमद (स.अ.व.), मार्क्स, लेनिन, माओ, या सर सैयद अपनी विचारधारा के ही मूर्त रूप हैं. महात्मा बनाने के क्रम में यह भी जरूरी होता है कि अपनी विरोधी विचारधारा के महात्माओं की कमियां बताई जाएं.

‘गाँधी’ का महात्मा बनना कांग्रेस के सत्ता में रहने के कारण सम्भव हुआ. गाँधी और नेहरू आज वैसे महात्मा नहीं रहे, जैसे कांग्रेस के वक्त में थे, क्यों कि महात्मा बनाने वाला तंत्र अभी इनकी विचारधारा के मानने वालों के पास नहीं है.

यही वजह है कि जो वर्ग सत्ता के केंद्र (राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा आर्थिक सत्ता) में होता है, उसके महत्मा की आलोचना करना उतना ही मुश्किल होता है, क्योंकि उसके महात्मा के लिए गढ़े गए झूठे तर्क-तथ्य एवं कहानियां लोगों के विश्वास तंत्र का हिस्सा बन जाती है, यह विश्वास तंत्र ही उन को अंधभक्त बना देता है. 

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सर सैयद को लेकर कई झूठ गढ़े गए हैं. जैसे सर सैयद की वजह से मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा आई. सबसे पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा पढ़ाने की बात की. अंग्रेजी पढ़ाने की वजह उन पर कुफ्र का फतवा आया.

यह सच है कि हमको आज तक यही पढ़ाया गया है कि सर सैयद ने मुसलामनों के अंदर आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया, जिसकी वजह से मुसलमान सरकारी नौकरी में आ सके, पर यह पूरा सच्चा नहीं है.

सर सैयद कि नजर में ‘कौम’ की जो संकल्पना या धारणा थी, उसमें पसमांदा (पिछड़े) मुसलमान शामिल नहीं थे और न ही वह आधुनिक शिक्षा का लाभ पसमांदा समाज को देना चाहते थे. और यह कहानी भी पूरी तरह सच नहीं है कि सर सैयद वह पहले इंसान हैं, जिनकी वजह से मुस्लिम (वास्तव में संभ्रांत वर्ग) के बीच अंग्रेजी भाषा फैली है.

पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली अपनी किताब अलमिया-ए-तारीख में लिखते हैं कि, ‘‘सर सैयद ने समझौते, तआवुन और वफादारी की जो तालीम दी, उसके जरिये वह मुसलमानों के एक खास तबके को फायदा पहुँचाना चाहते थे और यह तबका उमरा और सामन्तों का था.

जब वह लफ्ज ‘मुसलमान’ का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका तात्पर्य मुसलमानों के इसी विशेष वर्ग से है. सभी मुसलमानों से नहीं, क्योंकि अंग्रेजों के शासन के स्थायित्व तथा 1857 की घटना ने मुस्लिम जागीरदार और जमींदार तबके को बुरी तरह प्रभावित किया था.

सर सैयद ने इस संभ्रांत वर्ग का प्रतिनिधित्व किया और उनके नेतृत्व में इस तबके का झुंड का झुंड शामिल होता चला गया. जहां तक देश की हिंदुस्तानी जनता (यहां अर्थ भारत के मूलनिवासी मुसलमान यानि पसमांदा से है) का संबंध था, तो वह शोषक वर्ग के हमेशा शिकार रहे थे. इस लिए देश का शासन परिवर्तन उन के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं थी.

सर सैयद का संबंध मुगल उमरा के खानदान से था और उन्होंने जिस घराने और जिस माहौल में तालीम-ओ-तरबियत पाई, वह भी (अशराफ) संभ्रांत वर्ग तक सीमित था. इसी वजह से उनकी सोच, उनका नजरिया, उनकी मानसिकता इसी (अशराफ) संभ्रांत वर्ग की मानसिकता की अक्कासी है.

सर सैयद एक विशेष (अशराफ) सामंती मानसिकता रखते थे और उससे हटकर, न तो वह सोच सकते थे और न ही देख सकते थे. (अलमिया-ए-तारीख ,पेज नंबर 151) सर सैयद को उम्मीद थी कि वह अंग्रेजी शिक्षा के जरिए एक ऐसी नस्ल तैयार कर सकते हैं, जो अंग्रेजी हुकूमत के बेहतर नागरिक बन सकें.

सर ऑकलैंड ने सर सैयद की कोशिशों की प्रशंसा करते हुए कहा कि अलीगढ़ के विद्यार्थी भारत के उस वर्ग का नमूना हैं, जो अंग्रेजों की ख्वाहिशों की बखूबी दाद देने के वास्ते कोशिश करता है (हयात-ए-जावेद, पेज नम्बर 456) सर सैयद को हर जगह वैज्ञानिक सोच का हामी बताया जाता है.

जबकि हकीकत यह है कि सर सैयद खुद विज्ञान की पढ़ाई के पक्ष में नहीं थे. मुबारक अली अपनी किताब ‘अलमिया-ए-तारीख’ में आगे लिखते हैं कि, ‘‘शिक्षा के संबंध में सर सैयद सिर्फ उसी शिक्षा के समर्थक थे, जिससे (अशराफ) छात्र उच्च सरकारी पदों को प्राप्त कर सकें.

उनकी नजर में शिक्षा का इससे ज्यादा कोई मकसद नहीं था. इसलिए उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई का विरोध किया, क्योंकि इससे उच्च (सामंती) व्यवहार और नजाकत पैदा होती. (मकालात-ए-सर सैयद, भाग दो, पेज नम्बर 6)

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सर सैयद खुलकर अपनी सामंती सोच का इजहार करते हैं. 28 सितम्बर, 1887 को लखनऊ के अन्दर ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ की दूसरी सभा में उन्होंने कहा, ‘‘जो निचली जाति के लोग हैं, वो देश या सरकार के लिए लाभदायक नहीं हैं.

जब कि ऊंचे परिवार के लोग रईसों का सम्मान करते हैं, साथ ही साथ अंग्रेजी समाज का सम्मान तथा अंग्रेजी सरकार के न्याय की छाप लोगों के दिलों पर जमाते हैं.

इसलिए वह देश और सरकार के लिए लाभदायक हैं. क्या तुमने देखा नहीं कि गदर (विद्रोह) में कैसी परिस्थितियां थीं? बहुत कठिन समय था. उनकी सेना बिगड़ गयी थी. कुछ बदमाश साथ हो गए थे और अंग्रेज भ्रम में थे. उन्होंने समझ लिया था कि जनता विद्रोही है.

ऐ भाइयों! मेरे जिगर के टुकड़ों! यह हाल सरकार का और तुम्हारा है, तुमको सीधे ढंग से रहना चाहिए, न कि इस प्रकार के कोलाहल से जैसे कौवे एकत्र हो गए हों! ऐ भाइयो! मैंने सरकार को ऐसे कड़े शब्दों में आरोप लगाया है, किन्तु कभी समय आयेगा कि हमारे भाई पठान, सादात, हाशमी और कुरैशी जिनके रक्त में इब्राहीम अ. (अब्राहम) के रक्त की गंध आती है,

वह कभी न कभी चमकीली वर्दियां पहने हुए, कर्नल और मेजर बने हुए सेना में होंगे, किन्तु उस समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए. सरकार अवश्य संज्ञान लेगी, शर्त यह है कि तुम उसको संदेह मत होने दो.

अंग्रेजों को शासन करते हुए कितने दिन हुए हैं? गदर के कितने दिन हुए? और वो दुःख, जो अंग्रेजों को पहुंचा, यद्यपि गंवारों से था, अमीरों से न था. इसको बतलाइए कि कितने दिन हुए? मैं सत्य कहता हूं कि जो कार्य तुमको ऊंचे स्तर पर पहुंचाने वाला है, वह ऊंची शिक्षा है.

जब तक हमारे समाज में ऐसे लोग जन्म न लेंगे, तब तक हमारा अनादर होता रहेगा. हम दूसरों से पिछड़े रहेंगे और उस सम्मान को नहीं पहुंचेंगे, जहां हमारा दिल पहुंचना चाहता है. यह कुछ कड़वी नसीहतें हैं, जो मैंने तुमको की हैं. मुझे इसकी चिंता नहीं कि कोई मुझे पागल कहे या कुछ और!’’ इस तरह हम देखते हैं कि सर सैयद अपने जातिय वर्गीय हितों के लिए काम कर रहे थे.

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इस सवाल का जवाब देते हुए इतिहासकार मुबारक अली अपनी किताब ‘अलमिया-ए-तारीख’ में लिखते हैं, ‘‘सर सैयद से बहुत पहले ही मुस्लिम (अशराफ) वर्ग में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने वाला वर्ग पैदा हो चुका था और मुस्लिम छात्र सरकार (अंग्रेजों) द्वारा बनाए गए स्कूलों में अंग्रेजी शिक्षा हासिल कर रहे थे.

इस लिए सर सैयद द्वारा बनाया गया मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज अपने शुरुआती दिनों में मुसलामनों (अशराफ) की शिक्षा पर कोई खास प्रभाव नहीं डाल सका. उदाहरण के लिए 1882 से 1902 तक एमएओ कॉलेज से 220 मुसलमान स्नातक निकले. वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इसी दौरान 420 मुसलमान स्नातक निकले.

इसलिए यह कहना कि सर सैयद का विरोध उनके अंग्रेजी पढ़ाने की वजह से हुआ, सरासर झूठ है, बल्कि यह विरोध उनके धार्मिक नजरिये की वजह से था. मुस्लिम सामंत और संभ्रांत वर्ग अंग्रेजी शिक्षा हासिल कर ही रहा था और कम्पनी के शुरुआती दौर से ही मुसलमान उलेमा तक अंग्रेजी नौकरियों में आ चुके थे.

(अलमिया-ए-तारीख पेज नम्बर 147) {Paul R. Brass, Languge Religion and Politics in North India, Cambridge 1974, Page no. 165-166} मुबारक अली आगे लिखते हैं कि उस वक्त मुसलामनों के शैक्षणिक पिछड़ेपन का नजरिया William W. Hunter की किताब "The Indian Muslims"  ने दिया था.

इस किताब में सिर्फ बंगाल के मुसलमानों के पिछड़ेपन और अशिक्षा का जिक्र है, लेकिन बाद में इसको उत्तर प्रदेश के मुसलामनों पर भी लागू कर दिया गया. जबकि उत्तर प्रदेश के मुसलमान पूरे हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा शिक्षित और सामाजिक तौर पर खुशहाल थे. शिक्षा के क्षेत्र में तो यह हिन्दुओं से भी आगे थे और यही हाल सरकारी नौकरियों में भी था.

उसमें भी मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से ज्यादा थी. एसएम जैन के हुकूमत के रिकॉर्डों ने यह साबित कर दिया है कि 1871 से 1884 तक मुसलामनों ने हिन्दुओं से अधिक शिक्षा का लाभ उठाया और इनकी संख्या प्राइवेट सेकेंडरी में भी ज्यदा थी. (अलमिया-ए-तारीख, पेज नम्बर 146) {S.M. Jain , The Aligrah Movement: Its Origin and Development 1858-1906} 

मुबारक अली ‘अलमिया-ए-तारीख’ में आगे लिखते हैं कि सर सैयद का अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा देने का मकसद यही था कि सामंती (अशराफ) वर्ग इसके जरिये सरकारी उच्च पदों को हासिल कर सके और अपना रुतबा और शक्ति बढ़ा सके. सर सैयद और उनके लड़के सैयद महमूद ने शिक्षा का जो ढांचा बनाया, उसे चार भागों में बांटा जा सकता हैैः

1- (अशराफ) उमरा एवं सामंतों के लड़कों के लिए ऑक्स्फोर्ड और कैम्ब्रिज की तर्ज पर कॉलेज बनाया जाए, जहां वह पश्चिमी शिक्षा हासिल कर सकें.

2 - हर शहर और कस्बे में मदारिस खोले जाएं, जहां कॉलेज के लिए छात्रों को तैयार किया जा सके. यहाँ यह ज्ञात रहे कि 1894 में सर सैयद और मोहसिन-उल-मुल्क ने ‘मुस्लिस एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ में यह प्रस्ताव पास किया कि छोटे स्कूल न खोले जाएं, क्योंकि अगर जगह-जगह छोटे स्कूल खोले गए, तो अलीगढ़ (मदरसतुल उलूम) को चंदा नहीं मिल पाएगा, क्योंकि लोग अपने इलाके के स्कूलों को ही पैसा देंगे. बकौल मौलवी तुफैल अहमद मंगलौरी के, इससे मुसलामनों में जगह-जगह स्कूल खोलने का जो जज्बा पैदा हुआ था, वह खत्म हो गया.

3 - हर गांव में मकतब खोले जाएं और उसमें धार्मिक शिक्षा दी जाए. साथ ही थोड़ी-बहुत फारसी और अंग्रेजी भी पढ़ाई जाए.

4 - कुरआन को हिफ्ज करने के लिए मकतब खोले जाएं (मौलवी तुफैल अहमद मंगलौरी, मुसलमानों का रौशन मुस्तकबिल, 4जी एडिशन, दिल्ली-1947, पेज नम्बर 203)

मुबारक अली लिखते हैं कि सर सैयद की शिक्षा की यह पूरी स्कीम वर्गों पर आधारित थी. उच्च पश्चिमी शिक्षा को सर सैयद सिर्फ अशराफ लड़कों के लिए ही जरूरी समझते थे. जब कि (पसमांदा) जनता को सिर्फ धार्मिक शिक्षा में उलझाए रखना चाहते थे.

(अलमिया-ए-तारीख ,पेज 156) अपनी इस सोच का प्रदर्शन वह बार-बार खुलकर करते हैं. ऐसा ही एक मौका उस वक्त आया, जब बरेली के ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के भवन की नींव रखने के लिए सर सैयद साहब को बुलाया गया था, जहां मुसलामानों की ‘नीच’ कही जाने वाली जाति के बच्चे पढ़ते थे.

इस अवसर पर जो पता उनको दिया गया था, उस पते पर उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि “आप ने अपने एड्रेस में कहा है कि हमें दूसरी कौमों (समुदाय) के ज्ञान एवं शिक्षा को पढ़ाने में कोई झिझक नहीं है.

संभवतः इस वाक्य से अंग्रेजी पढ़ने की ओर संकेत अपेक्षित है. किन्तु मैं कहता हूँ, ऐसे मदरसे में जैसा कि आपका है, अंग्रेजी पढ़ाने का विचार एक बहुत बड़ी गलती है. इसमें कुछ संदेह नहीं कि हमारे समुदाय में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी शिक्षा की नितांत आवश्यकता है.

हमारे समुदाय के सरदारों एवं ‘शरीफों’ का कर्तव्य है कि अपने बच्चों को अंग्रेजी ज्ञान की ऊंची शिक्षा दिलवाएं. कोई व्यक्ति ऐसा नहीं होगा, जो मुझसे अधिक मुसलमानों में अंग्रेजी शिक्षा तथा ज्ञान को बढ़ावा देने का इच्छुक एवं समर्थक हो, परन्तु प्रत्येक कार्य के लिए समय एवं परिस्थितियों को देखना भी आवश्यक है.

उस समय मैंने देखा कि आप की मस्जिद के प्रांगण में, जिसके निकट आप मदरसा बनाना चाहते हैं, 75 बच्चे पढ़ रहे हैं. जिस वर्ग एवं जिस स्तर के ये बच्चे हैं, उनको अंग्रेजी पढ़ाने से कोई लाभ नहीं होने वाला. उनको उसी प्राचीन शिक्षा प्रणाली में ही व्यस्त रखना उनके और देश के हित में अधिक लाभकारी है.’’

सर सय्यद अहमद खानः व्याख्यान एवं भाषणों का संग्रह, संकलन: मुंशी सिराजुद्दीन, प्रकाशन: सिढौर-1892, ससंदर्भ अतीक सिद्दीकी: सर सय्यद अहमद खां एक सियासी मुताला, अध्याय: 8, तालीमी तहरीक और उसकी मुखालिफत, शीर्षक: गुरबा को अंग्रेजी तालीम देने का खयाल बड़ी गलती है, पृष्ठः 144,

प्रोफेसर मौलाना मसऊद आलम फलाही अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान’ में लिखते हैं कि अशफाक हुसैन अंसारी पूर्व सांसद, पूर्व सदस्य राजकीय पिछड़ा वर्ग आयोग (पहला) का दैनिक राष्ट्रीय सहारा उर्दू, नयी दिल्ली 19 दिसम्बर 2001 के अंक में एक लेख ‘अंकल के मैदान में दोजखी के खाने से’ प्रकाशित हुआ था.

उसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस की लीडरशिप में किसी स्तर पर पसमांदा मुसलमान दिखाई नहीं देते. प्रत्येक स्थान पर सवर्ण मुसलमानों का प्रभुत्व है. उनके इस लेख पर प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, पूर्व सांसद, पूर्व प्रोफेसर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी डॉ. सैयद मोहम्मद हाशिम किदवई ने एक आलोचनात्मक पत्र 30 दिसम्बर 2001 के अंक में लिखा.

इसमें उन्होंने मुसलमानों के अंतर्गत पायी जाने वाली ऊंच-नींच की अवधारणा को इस्लामी दृष्टिकोण से अनुचित बताया और इसको समाप्त करने पर जोर दिया. उन्होंने लिखा कि मुसलमानों को परस्पर एकता की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु ’दुर्भाग्य से इस लेख से मुसलमानों के आपसी मतभेद दूर नहीं हुए.’ ( रोजनामा राष्ट्रीय सहारा (उर्दू), नई दिल्ली, 30 दिसम्बर 2001, कॉलम: मुरासिलात (चिट्ठियां), पृष्ठ: 3)

वह अपने पत्र को समाप्त करते हुए लिखते हैं, ‘‘दुर्भाग्यवश, सवर्ण बनाम अवर्ण का फितना गत शताब्दी से प्रारंभ हुआ और अफसोस कि सर सय्यद अहमद खां साहब ने भी इस को रोकने के लिए कुछ नहीं किया, बल्कि अपने मैदान में उन्होंने इसके विरुद्ध हथियार डाल दिया. उन्होंने अंग्रेजी और पश्चिमी शिक्षा को केवल सवर्ण मुसलमानों तक ही सीमित करने के लिए कहा. यह अन्यत्र है कि अब वह जाति पर आधारित पत्रों एवं लेखों की भरपूर प्रशंसा करने लगे हैं.’’

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अभी तक यह स्पष्ट हो चुका होगा कि सर सैयद का शिक्षा में किया गया योगदान सिर्फ अशराफ वर्ग तक ही सीमित था. पर जैसे ही आप यह बात साबित करते हैं, फौरन आपको बताया जाता है कि आज तो वहां हजारों पसमांदा पढ़ रहे हैं. आज विरोध क्यों कर रहे हो?

जब अशराफ यह कह रहे होते हैं कि आज अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को फायदा हो रहा है, ठीक उसी वक्त वह यह बात छुपा रहे होते हैं कि आजादी से पहले इसी अलीगढ़ से पसमांदा मुसलमानों को जबरदस्त नुकसान भी हुआ है.

जब पसमांदा मुसलामनों की शैक्षिक स्थिति दयनीय थी, जिस वक्त सरकारी रोजगार अंग्रेजी माध्यम में थे. उस वक्त सर सैयद ने अपने विश्विद्यालय में पसमांदा छात्रों को घुसने नहीं दिया. आज जो पसमांदा समाज की दयनीय स्थिति है, उसका एक कारण यह भी है.

आज अगर अलीगढ़ में पसमांदा मुसलमान पढ़ रहे हैं, तो यह भारतीय संविधान की देन है, सर सैयद की नहीं. आरटीआई द्वारा प्राप्त किये गए आंकड़े यह दिखाते हैं कि आज भी अलीगढ़ में एससी/एसटी/ओबीसी की संख्या बहुत कम है,

जब तक यह विश्वविद्यालय मुसलमानों की एक संस्था के रूप में जाना जाता रहेगा, तब तक इस विश्वविद्यालय से पसमांदा मुसलमानों को लाभ नहीं होगा. इस विश्वविद्यालय में आज भी ओबीसी आरक्षण नहीं दिया जाता, जबकि 85 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों में पसमांदा मुसलमानों की है.

चलिए, एक पल को उन्हीं का तर्क मान लेते हैं कि सर सैयद के बनाए अलीगढ़ में आज पसमांदा पढ़ रहे हैं. इसलिए सर सैयद की तारीफ की जाए, तो क्या इस बिना पर हम अंग्रेजों को भी तौल सकते हैं? जैसे कि- रेलवे अंग्रेजों ने इसलिए बनाई थी कि पूरे देश का कच्चा माल वो अपने देश में ले जाएं, पर आज इसी रेलवे से करोड़ों भारतीय लाभ उठा रहे हैं.

मैकाले अंग्रेजी को भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इसलिए लाया, ताकि वह अच्छे क्लर्क पैदा कर सके, जो चमड़ी से भले ही भारतीय हों पर सोच से अंग्रेज. पर आज इसी अंग्रेजी की वजह से लाखों-करोड़ों लोगों को नौकरी मिली हुई है, तो क्या इस आधार पर हम “मैकाले डे” मनाते हैं? भारत में अधिकतर व्यवस्था और संस्था अंग्रेजों ने ही बनाई है, जिसका आज हम लाभ उठा रहे हैं.

तो क्या अंग्रेजी हुकूमत का गुणगान किया जाता है? रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि, “आमाल का दारोमदार नियत पर है!” यहीं पर पसमांदा और बहुजन छात्र सवाल उठाते हैं कि सर सैयद की नियत क्या थी? पसमांदा मुसलमानों और लड़कियों को अलीगढ़ में पढ़ाने की? जवाब है ‘नहीं’! जो उनके उपरोक्त कथनों से बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो चुका है.

आज पसमांदा आंदोलन सर सैयद का विरोध कर रहा है, तो वह सिर्फ एक व्यक्ति का विरोध नहीं है. सर सैयद उस अशराफ विचारधारा का प्रतीक है, जो पसमांदा समाज की पसमांदगी का कारण है, जो भारत में दो-राष्ट्र सिद्धांत का पोषक है.

जब एक व्यक्ति बन जाता है प्रतीक

शोषण का, अन्याय का, असमानता का

तब जरूरी हो जाता है उसका दहन

दहन व्यक्ति के रूप में विचार का

दहन प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष का, विराट से सूक्ष्म का

मायने नहीं रखते हैं नाम, रावण, यजीद या सर सैयद

प्रतीक याद दिलाते हैं, हमारा पक्ष क्या है! न्याय के युद्ध में.

 

संदर्भः

1- मुबारक अली, ‘अलमिया-ए-तारीख़, तारिख पब्लिकेशन, लाहौर, पाकिस्तान, संस्करण 1994 

2- मसऊद आलम फलाही, 'हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान' आइडियल फाउंडेशन, मुंबई, संस्करण 2009
 
3- अली अनवर, 'मसावात की जंग' वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001
 
4- SPEECH OF SIR SYED AHMED
 
AT LUCKNOW [1887] http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00islamlinks/txt_sir_sayyid_lucknow_1887.html
 
5- डॉक्टर इरशाद अहमद 'सर सैयद के सामाजिक नज़रियात', राज श्री आफसेट, पटना , प्रथम संस्करण 2011
 
6- सर सैयद  अहमद खां : व्याख्यान एवं भाषणों का संग्रह, संकलन : मुंशी सिराजुद्दीन, प्रकाशन : सिढौर 1892, ससंदर्भ अतीक़ सिद्दीक़ी : सर सय्यद अहमद खां एक सियासी मुताला, अध्याय : 8, तालीमी तहरीक और उस की मुखालिफ़त, शीर्षक : गुरबा को अंग्रेज़ी तालीम देने का खयाल बड़ी ग़लती है, पृष्ठ : 144/145