जब स्वतंत्र भारत में पसमांदा को 6 महीने तक मिला आरक्षण

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 28-05-2023
अखिल भारतीय पिछड़ा मुस्लिम मोर्चा के वरिष्ठ नेता
अखिल भारतीय पिछड़ा मुस्लिम मोर्चा के वरिष्ठ नेता

 

आशा खोसा / नई दिल्ली

भारत की आजादी के साढ़े छह महीने तक पसमांदा मुसलमान संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत आरक्षण के हकदार रहे. मगर 10 अगस्त, 1950 को राष्ट्रपति ने पसमांदा को वंचित समुदायों की सूची से हटा दिया, जबकि उन्हें आरक्षण की आवश्यकता थी.

इस आदेश ने लाखों भारतीय मुसलमानों को प्रभावित किया. भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के भीतर विभाजन को तेज कर दिया.अखिल भारतीय पसमांदा महाज की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष शमीम अंसारी कहते हैं, ‘‘‘(जवाहर लाल) नेहरू सरकार का कदम 90 प्रतिशत भारतीय मुसलमान के प्रति तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के इशारे पर उठाया गया था.’’ 
 
पसमांदा मुसलमानों के साथ आजाद ने अशरफ के समान व्यवहार किया. मुस्लिम जिनके पूर्वज दूसरे देशों से आए थे. वे आरोप लगाते हैं कि अशराफ राजनीति पर हावी और हेरफेर करना जारी रखे हुए हैं. पसमांदा मुसलमानों के मन में अशरफ के प्रति काफी द्वेष है.
आवाज-द वॉयस के साथ एक विशेष साक्षात्कार में, शमीम अंसारी ने कहा कि पांच मुस्लिम सदस्यों, मौलाना अबुल कलाम आजाद, हुसैन भाई लालजी, तजम्मुल हुसैन, बेगम एजाज रसूल और मौलाना हिजबुल रहमान ने दलित मुसलमानों को अनुसूचित सूची में शामिल करने के कदम का विरोध किया.
 
यह विरोध उन्होंने संविधान सभा के अल्पसंख्यक अधिकारों के संरक्षण पर उप-समिति में बहस के दौरान जातियों को आरक्षण देने के सवाल पर किया. इसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ बी आर अम्बेडकर ने पसमांदा मुसलमानों के मामले का समर्थन किया. (अशरफ) मुस्लिम सदस्यों ने इसका पुरजोर विरोध किया.
 
इतिहास पर शोध करने वाले शमीम अंसारी कहते हैं,  पांचों नेताओं ने तर्क दिया कि मुसलमान अन्य धार्मिक समुदायों के विपरीत हैं. उनमें कोई पसमांदा नहीं है. उन्होंने पटेल और अंबेडकर से कहा कि इस्लाम के अनुयायियों की कोई जाति नहीं. किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता, इसलिए उन्हें आरक्षण की सूची में शामिल करने की कोई आवश्यकता नहीं है. 
 
अंबेडकर ने हिंदू और मुस्लिम दलितों के बीच दीवार नहीं बनाई. अंततः उनकी और दलितों की जीत हुई.मुसलमानों को उक्त अनुच्छेद के तहत आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किया गया था.
 
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हालाँकि, यह अल्पकालिक साबित हुआ. 10 अगस्त, 1950 को मौलाना आजाद ने नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार से दलित मुसलमानों के लिए आरक्षण समाप्त करने के लिए कहा. उन्होंने पसमांदा के लिए दरवाजे बंद कर दिए.
 
10 अगस्त, 1950 का अनुच्छेद 341 पर राष्ट्रपति का आदेश अस्सी के दशक में शाह बानो मामले पर कांग्रेस पार्टी की कार्रवाई के समान था!पश्चिमी यूपी के बिजनौर के एक राजनीतिक कार्यकर्ता शमीम अंसारी कहते हैं कि पसमांदा समुदाय पर शोध करते हुए, वह 2000 की सर्दियों में अल्पसंख्यक संरक्षण उप-समिति की एकमात्र जीवित सदस्य बेगम एजाज रसूल से मिले थे.
 
बताते हैं, “मैं उनसे लखनऊ में यूपी विधानसभा के करीब स्थित उनकी हवेली के साफ- सुथरे लॉन में मिला था. वह छह फीट लंबी थी.उन्होंने कहा कि बेगम रसूल 85 साल की थीं और उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं लग रहा था.
वह बड़े घर में नौकरों की फौज के साथ अकेली रहती थीं और आर्थिक रूप से संपन्न लगती थीं. मैंने उनसे पूछा कि उनके मन में क्या था, जब उनसे और अन्य लोगों ने पसमांदा को आरक्षण के लाभ से वंचित करने की मांग की थी. उनके जवाब ने मुझे अवाक कर दिया. मैंने बातचीत समाप्त कर दी.
 
बेगम ने जवाब दिया, यह उनके उस गुनाह के लिए है कि अल्लाह ने अब उन्हें सजा दी है और वह पीड़ित है.शमीम ने कहा कि वह शायद अपनी निजी जिंदगी में किसी बात को लेकर परेशान थीं.
 
कुछ समय बाद उनका निधन हो गया.उन्होंने कहा कि आज के पढ़े-लिखे पसमांदा युवा इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए इतिहास की खोज कर रहे हैं कि मुस्लिम लीग का समर्थन करने वाले मुसलमानों के एक वर्ग और पाकिस्तान के विचार को पसमांदा के खिलाफ क्यों बनाया गया.
 
भारत के विभाजन का घोर विरोध भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता रहता है.उदाहरणों का हवाला देते हुए, शमीम अंसारी कहते हैं कि 1946 में आज के पश्चिमी यूपी में गांव चांदपुरे तहसील गोइली के चैधरी मोखा के नाम से एक व्यक्ति ने कांग्रेस को वोट दिया था, जबकि अधिकांश मुस्लिम जमींदारों ने जिन्ना की मुस्लिम लीग को वोट दिया था. धनी जमींदारों ने इस पसमांदा वोटर के दुस्साहस के लिए हुक्का पन्नी बंद करने का आदेश दिया.
 
1946 का भारत अलग था. हर कोई मतदान नहीं कर सकता था.केवल अमीर जमींदार और सामंती मुखिया जो 64 रुपये का वार्षिक कर चुकाते थे, जिन लोगों ने 1.25 रुपये की चैकीदारी फीस का भुगतान किया था या मैट्रिक पास थे. वे वोट डालने के पात्र थे.
 
 साथ ही, हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र थे.इस प्रणाली में, पसमांदा की राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं थी.वह कहते हैं, “मैं (पसमांदा मुस्लिम) न तो वार्षिक कर चुकाने के लिए अमीर था और न ही शिक्षित. मेरे पास जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं था. मैं खुले में और सड़कों के किनारे और गाँवों और शहरों के किनारों पर रहता था.
 
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बिहार में 1946 के चुनाव में, (पसमांदा) बुनकरों की पार्टी मोमिन कॉन्फ्रेंस ने मुसलमानों की 40 सीटों में से छह पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस ने एक और मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने 33 सीटें जीतीं. कांग्रेस बिहार में सरकार बनाने की स्थिति में थी. वह अब्दुल कय्यूम अंसारी के नेतृत्व वाले मोमिन कॉन्फ्रेंस का समर्थन चाहती थी.
 
बिहार कैबिनेट को अंतिम रूप देने के लिए मौलाना आजाद सदाकत आश्रम आए. उन्होंने मोमिन कांफ्रेंस से सदस्य चुनने के बजाय अपने एक रिश्तेदार शाह उमैरा को चुना. अंत में, अब्दुल कय्यूम अंसारी को बिहार में मोहम्मद यूसुफ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में जेल मंत्री बनने के लिए दिल्ली से सरदार पटेल के हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ी.
 
आजाद का व्यवहार अंसारी द्वारा महात्मा गांधी के अनुरोध पर अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय करने के बावजूद था.यही वह बिंदु था जहां से हम कांग्रेस से अलग हुए. अब हम महसूस करते हैं कि पार्टी ने मुस्लिम नेतृत्व के नाम पर सभी अशरफों को शामिल कर लिया. उन्हें सिर्फ हमारे वोट की जरूरत थी.
 
शमीम ने कहा कि इतिहास से सबक लेते हुए पसमांदा नेता आज राजनीतिक दलों से निपटने में व्यवहारिक हो गए हैं. हम उन्हें बताते हैं कि हमारा वोट केवल उस पार्टी के लिए है जिसने चुनाव लड़ने के लिए पसमांदा उम्मीदवारों को प्रतिनिधित्व दिया.
 
क्या बीजेपी पसमांदा का इस्तेमाल मुसलमानों को बांटने के लिए नहीं कर रही है? इस पर शमीम ने कहा कि पसमांदा मुसलमान उनकी दुर्दशा को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने और अशरफ को हमेशा पार्टी के मुस्लिम चेहरे के रूप में चुनने की अपनी पार्टी भाजपा की सामान्य प्रथा में सुधार शुरू करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभारी हैं.
 
हालांकि वह कहते हैं कि जब अखिल भारतीय पसमांदा निकाय ने 1979 में दिल्ली में अपने अधिकारों के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था, तब भाजपा वहां नहीं थी, फिर भी मुसलमान भाजपा शासित उत्तर प्रदेश को पसमांदा के लिए सशक्तिकरण के द्वार खोलते हुए देखते हैं.
 
शमीम ने प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले प्रधानमंत्री मोदी के साथ अपनी पहली मुलाकात का एक दिलचस्प किस्सा साझा किया. वह गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए थे. मैं उनसे अहमदाबाद में मिला था. जफर सरेशवाला ने बैठक आयोजित की थी.”
 
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उनका कहना है कि यह एक कट्टर कार्यकर्ता और एक नेता के बीच स्पष्ट बातचीत थी. मोदी ने उन्हें स्वीकार किया कि वह पसमांदा समुदाय को नहीं जानते हैं और यह तथ्य कि भाजपा भी अशरफ को जगह दे रही है, न कि पसमांदा को. वह रमजान का समय था. बैठक में मुझे कोई कुर्सी-पानी नहीं दिया गया था. मुझे बताया गया कि यह एक दुर्लभ अवसर है और मुझे इसका अधिकतम लाभ उठाना चाहिए.
 
मोदी ने उन्हें धैर्यपूर्वक सुना और विषय का अध्ययन करने के लिए उनके पास रखी फाइल मांगी. यह ऐसे प्रयासों के कारण है कि मोदी ने 2 जुलाई, 2022 को हैदराबाद में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पसमादा मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया. उन्होंने भाजपा सदस्यों से कहा कि पसमांदा का वोट सभी को चाहिए, लेकिन कोई भी दल उन्हें सत्ता में अपना हिस्सा नहीं देना चाहता.
 
वह कहते हैं,  “कल्पना कीजिए कि एक प्रधानमंत्री हमारे लिए बोल रहा है. हमारे संघर्ष पर इसका जबरदस्त प्रभाव है.शमीम मानते हैं कि 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव तक मुसलमानों (पसमांदा) ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था. “तब हमें एहसास हुआ कि सपा ने मुसलमानों को टिकट दिया, लेकिन वे सभी अशरफ थे.
पीएम के भाषण के बाद, योगी आदित्य नाथ के नेतृत्व वाली भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों को सशक्त बनाना शुरू कर दिया. दानिश अंसारी का योगीजी के मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में नियुक्त होना पहला संकेतक था. योगी जी ने पसमांदा समुदाय के लोगों को उर्दू अकादमी, मदरसा बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोग आदि का अध्यक्ष नियुक्त किया है.
 
उनका कहना है कि इसके बाद बीजेपी ने यूपी में हाल ही में संपन्न हुए नगरपालिका चुनावों में पसमांदा उम्मीदवारों को रिकॉर्ड संख्या में टिकट दिए. आज हमारे समुदाय से 190 निर्वाचित पार्षद और नगर निगमों के सात अध्यक्ष हैं.
 
हमने महसूस किया है कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हमारा वोट चाहती हैं, लेकिन सत्ता में हमें हमारा हिस्सा नहीं देना चाहतीं. हमें अब नफरत की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है.
 
हमारी राजनीति हमारे समावेशन के मूर्त रूप पर आधारित है न कि मोदी हटाओ, भाजपा हटाओ की नकारात्मक राजनीति पर.हमारे युवाओं को नफरत और हिंदू बनाम मुस्लिम कहानी की राजनीति को आगे बढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं है.
 
शमीम का कहना है कि समुदाय के साथ हुए अन्याय के बारे में जागरूकता फैलाने का उनका काम आसान नहीं रहा है.हमें उन मिथकों को खत्म करना है जो हमारे दिमाग में भर गए थे. उनमें से एक सरदार पटेल (स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री) के बारे में था, जिसे मुस्लिमों के लिए खलनायक के रूप में पेश किया गया था.
 
उनका कहना है कि उनके जैसे कार्यकर्ताओं के लिए अपने समुदाय के लोगों को यह बताना काफी मुश्किल है कि पटेल ने भारत के 563 राज्यों को समाप्त कर दिया था, जिनमें कुछ मुस्लिम नवाबों द्वारा शासित थे.
इससे वह मुस्लिम विरोधी नहीं हो गए. हमें अपने लोगों को यह समझाना पड़ा कि नवाब हमारे नहीं थे और उन्होंने हम पर कर लगाया. पटेल ने उनके अत्याचारी शासन को समाप्त कर दिया था.