इस्लाम युद्ध के नियमों और औचित्य के बारे में क्या कहता है?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 16-05-2025
What does Islam say about the rules and justifications of war?
What does Islam say about the rules and justifications of war?

 

– एमन सकीना

इस्लाम, अन्य प्रमुख धर्मों की तरह, संघर्ष और युद्ध की वास्तविकताओं को स्वीकार करता है, लेकिन इसका अंतिम उद्देश्य शांति की स्थापना है. इस्लाम में युद्ध को न तो महिमामंडित किया गया है और न ही उसे प्राथमिकता दी गई है; बल्कि इसे केवल कुछ नैतिक और धार्मिक सीमाओं के तहत अनुमति दी गई है.

युद्ध के बारे में इस्लामी शिक्षाएं क़ुरआन (पवित्र ग्रंथ) और हदीस (पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन व कार्यों) में गहराई से निहित हैं. इन दोनों स्रोतों में युद्ध के औचित्य और युद्ध के दौरान आचरण के नियमों का स्पष्ट उल्लेख है.

इस्लाम हिंसा, रक्तपात या आक्रामकता का धर्म नहीं है. यह भूमि पर विजय पाने के लिए बल प्रयोग की शिक्षा नहीं देता और न ही दूसरों को जबरन अपने धर्म में लाने को सही ठहराता है.

इस्लाम कहता है कि कोई भी दुश्मनी न्याय के साथ व्यवहार करने की भावना को नहीं मिटा सकती. अगर स्वयं अल्लाह ने इंसान को जबरन कोई राह नहीं अपनाने दी, तो हमें ऐसा करने का क्या अधिकार है?

बल प्रयोग की बात तो दूर, इस्लाम दूसरों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा की भी शिक्षा देता है. पैगंबर मुहम्मद (स.अ.) ने पेड़ों तक के अधिकारों की रक्षा की बात की—यह दर्शाता है कि इस्लाम जीवन की पवित्रता को कितनी प्राथमिकता देता है.

युद्ध की स्थिति में निर्धारित नियम

अगर युद्ध अपरिहार्य हो भी जाए, तब भी इस्लाम में युद्ध के कड़े नियम निर्धारित हैं, जो हिंसा की सीमाएं तय करते हैं, निर्दोषों की रक्षा करते हैं, और न्याय सुनिश्चित करते हैं.

1. गैर-लड़ाकों को हानि न पहुँचाना

पैग़ंबर मुहम्मद (स.अ.) ने स्पष्ट रूप से महिलाओं, बच्चों, संन्यासियों और बुजुर्गों की हत्या को मना किया. साथ ही उन्होंने फसलें नष्ट करने, पेड़ों को काटने और पूजा स्थलों को नुकसान पहुँचाने से भी मना किया.

2. युद्धबंदियों के साथ मानवीय व्यवहार

क़ुरआन युद्धबंदियों के साथ दया का व्यवहार करने और उन्हें दान या फिरौती के रूप में मुक्त करने की बात करता है:
"...तो या तो उन्हें कृपा स्वरूप छोड़ दो, या फिरौती लेकर छोड़ो, जब तक कि युद्ध समाप्त न हो जाए।" (क़ुरआन 47:4)

3. जबरन धर्म परिवर्तन की मनाही

इस्लाम जबरन धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं देता। युद्ध की स्थिति में भी धार्मिक स्वतंत्रता को कायम रखा जाता है:
"धर्म में कोई ज़बरदस्ती नहीं है।" (क़ुरआन 2:256)

4. यदि शत्रु शांति चाहता है, तो शांति स्वीकार की जाए

यदि विरोधी पक्ष शांति की पहल करता है, तो मुसलमानों को उसे स्वीकार करना अनिवार्य है:
"और यदि वे शांति की ओर झुकें, तो तुम भी उसकी ओर झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा रखो।" (क़ुरआन 8:61)

इस्लाम में युद्ध के औचित्य

इस्लामी क़ानून (शरीअत) के अनुसार, युद्ध केवल विशेष नैतिक और न्यायसंगत परिस्थितियों में ही किया जा सकता है. मुख्य औचित्य निम्नलिखित हैं:

1. आत्मरक्षा

इस्लाम आत्मरक्षा में युद्ध की अनुमति देता है:
"अल्लाह के मार्ग में उनसे लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं, लेकिन सीमा न लांघो. निस्संदेह, अल्लाह अतिक्रमण करने वालों को पसंद नहीं करता." (क़ुरआन 2:190)
यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि युद्ध केवल आत्मरक्षा में जायज़ है, आक्रामकता में नहीं.

2. धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा

धार्मिक उत्पीड़न को रोकने और सभी को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देने के लिए इस्लाम युद्ध की अनुमति देता है:
"और उनसे लड़ो जब तक कि कोई उत्पीड़न न रहे, और धर्म केवल अल्लाह के लिए हो जाए। लेकिन यदि वे रुक जाएँ, तो अत्याचारियों के अलावा किसी पर आक्रमण नहीं किया जाएगा." (क़ुरआन 2:193)

3. अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष

इस्लाम ज़ुल्म और अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने को न्याय का एक रूप मानता है:
"और तुम्हें क्या हो गया है कि तुम अल्लाह के मार्ग में और उन कमज़ोर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के लिए युद्ध नहीं करते, जिन्हें दबाया जा रहा है..." (क़ुरआन 4:75)

इस्लामी शिक्षाएं युद्ध और न्याय के बीच संतुलन बनाने पर आधारित हैं. युद्ध इस्लाम में विजय पाने या आधिपत्य स्थापित करने का साधन नहीं है, बल्कि यह एक अंतिम विकल्प है—वह भी विशेष नैतिक शर्तों के अंतर्गत.

इस्लाम में दया, संयम और न्याय को इतना महत्व दिया गया है कि युद्ध की स्थिति में भी मानव गरिमा और शांति की भावना को सर्वोपरि रखा गया है.आज के समय में, इस्लाम की मूल शिक्षाओं को सही रूप में समझना अत्यंत आवश्यक है ताकि ग़लतफहमियों को दूर किया जा सके और सत्य व सम्मान पर आधारित संवाद को प्रोत्साहन मिल सके.