एक बार फिर पाकिस्तान ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ के विकृत सिद्धांत को दोहरा रहा है

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 18-05-2025
Once again Pakistan is repeating the distorted theory of ‘Ghazwa-e-Hind’
Once again Pakistan is repeating the distorted theory of ‘Ghazwa-e-Hind’

 

गुलाम रसूल देहलवी

एक बार फिर पाकिस्तान ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ के उस विकृत और ग़लत रूप को दोहरा रहा है, जिसे सबसे पहले उमय्यदों ने अपने विस्तारवादी और साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए गढ़ा था.

इस बार यह केवल कट्टरपंथी मौलवियों की ज़ुबान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसे पाकिस्तान की सैन्य बयानबाज़ी में भी सुना गया, जहाँ धार्मिक प्रतीकों को राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ जोड़ा गया.

भारत-पाकिस्तान के मौजूदा संघर्ष में इस प्रकार के धार्मिक-अंत-समय के सैन्यवाद (eschatological militarism) को जनभावनाओं को उकसाने के लिए धार्मिक आवरण में प्रस्तुत किया गया.

क्या वह पैग़म्बर, जिन्होंने भारत की धरती से ठंडी हवाएं महसूस की थीं, उसी ज़मीन पर सैन्य हमला करने की इजाज़त दे सकते हैं? क्या वह नबी (स.अ.व.), जिन्होंने कई हदीसों में भारत के लोगों के प्रति सम्मान और आशावाद का भाव प्रकट किया, वास्तव में इस भूमि पर सैन्य आक्रमण को इस्लामी जिहाद का दर्जा दे सकते हैं?

पाकिस्तानी मौलवी, विचारक और कट्टरपंथी इस्लामी समूह एक बार फिर इस गठित, मनगढ़ंत और विकृत अवधारणा ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ को दोहरा रहे हैं, और इसे भारत के खिलाफ दुष्प्रचार के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.

मौलाना तारिक जमील, मुफ्ती तारिक मसूद और उनके उस्ताद मुफ्ती अब्दुर रहीम जैसे प्रमुख पाकिस्तानी प्रचारकों ने ‘ग़ज़वा-ए-हिंद पाकिस्तान से शुरू होगा’ जैसी बातें प्रचारित की हैं। ये सभी देवबंदी विचारधारा से जुड़े हैं.

लेकिन ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ की यह अवधारणा, विशेषकर जिस रूप में आज इसे राजनीतिक और सैन्य प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, एक विकृत इस्लामी विचारधारा है.

यह कुछ कमज़ोर, विवादास्पद और अत्यधिक बहस योग्य हदीसों पर आधारित है, जिन्हें वर्तमान में खासकर भारत-पाकिस्तान संघर्ष के संदर्भ में गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है.

1947 के बाद, पाकिस्तान के कुछ तत्वों ने ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ को भारत के प्रति शत्रुता को वैध ठहराने के धार्मिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया, मानो यह कोई दैवी भविष्यवाणी हो या धार्मिक कर्तव्य.

लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन और ज़ैद हामिद जैसे विचारकों ने इस सिद्धांत का उपयोग पाकिस्तानी युवाओं के बीच हिंसक उग्रवाद और जिहादी सोच को बढ़ावा देने के लिए किया है.

हालांकि, भारत और दुनिया भर के प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वानों ने इस ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ के विचार को दुष्प्रचार और धार्मिक युद्ध के औजार के रूप में इस्तेमाल करने की कड़ी निंदा की है। उनके तर्क हैं:

  • यह इस्लाम के सार्वभौमिक शांति और न्याय के संदेश को विकृत करता है.

  • यह जटिल भू-राजनीतिक संघर्षों को धार्मिक विभाजन के रूप में सरल बनाता है.

  • यह चरमपंथ और धर्मों के बीच नफ़रत को बढ़ावा देता है.

पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) ने भारत (हिंद) की बहुत प्रशंसा की थी, जिसे शाह वलीउल्लाह देहलवी (1703–1762 ई.) जैसे बड़े भारतीय इस्लामी विद्वानों ने अपनी किताबों में प्रमाणित किया है। शाह वलीउल्लाह ने एक हदीस का उल्लेख किया है जिसमें नबी (स.अ.व.) ने कहा:
“मैं अरब का हूं, लेकिन अरब मुझ में नहीं है, और मैं हिंद का नहीं हूं, लेकिन हिंद मुझ में है।”
यह हदीस अल-तबरानी अल-अवसत में संदर्भित है।

इमाम बुखारी (810–870 ई.), जिनका हदीस संग्रह इस्लाम में सबसे विश्वसनीय माना जाता है, ने एक हदीस उल्लेख की है:

“उम क़ैस बिन्त मिहसान से वर्णित है: मैंने पैग़म्बर (स.अ.व.) को कहते सुना: भारतीय अगरबत्ती का उपयोग करो, क्योंकि उसमें सात बीमारियों के इलाज की शक्ति है; यह गले की बीमारी में सूंघी जाए और पसली के दर्द वाले व्यक्ति के मुंह के एक किनारे में रखी जाए.”
(सहीह अल-बुखारी, खंड 7, किताब 71, हदीस 596)

"अल-अदब अल-मुफरद" में भी उल्लेख है कि जब हज़रत आयशा (र.अ.) बीमार हुईं, तो उनके भतीजों ने इलाज के लिए एक हिंदी हकीम को बुलाया.

हज़रत अली इब्न अबू तालिब (अ.स.) को भी भारत की भूमि से विशेष लगाव था। इब्न अब्बास के अनुसार, हज़रत अली (अ.स.) ने कहा:“स्वर्ग की सबसे सुगंधित हवा भारत की धरती से आती है.”(मुसतद्रक अल-हाकिम, हदीस सं. 4053)

इसी हदीस से प्रेरित होकर, अल्लामा इक़बाल ने अपनी मशहूर नज़्म बांग-ए-दरा में लिखा:

"मीर-ए-अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है"

पैग़म्बर (स.अ.व.) द्वारा यह कहने का कि "मैं हिंद का नहीं, लेकिन हिंद मुझ में है", कारण यह हो सकता है कि उनका नूर (नूर-ए-मुहम्मदी), जो सबसे पहले आदम (अ.स.) में था, भारत में ही उतरा था.

हाफिज़ इब्न कसीर अल-दमिश्क़ी ने उल्लेख किया है कि:“आदम (अ.स.) जन्नत से उतरे और भारत की धरती में दहना नामक स्थान पर आए. उनके साथ जन्नत से कुछ पत्तियां और इत्र भी उतरे, जिनसे भारत की भूमि पर खुशबूदार वृक्ष उगे.”

इस प्रकार, भारत को शत्रु भूमि के रूप में नहीं, बल्कि पवित्र, सम्माननीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महान भूमि के रूप में देखा गया.

कुछ मौखिक परंपराओं में बताया गया है कि हज़रत अली (अ.स.) ने उस हमले को रोक दिया था जो उमय्यद खलीफा मुआविया भारत पर इस्लाम के प्रचार के नाम पर करना चाहता था.

बाद में, मुआविया ने सिंध और मकरान क्षेत्रों की ओर सैन्य अभियान चलाया, लेकिन यह धार्मिक कारणों से नहीं, बल्कि राजनीतिक विस्तारवाद के तहत था.सबसे अधिक उद्धृत हदीस, जो ग़ज़वा-ए-हिंद से जुड़ी है, वह मुसनद अहमद में मिलती है:

"मेरी उम्मत में से एक समूह हिंद के राजाओं को पराजित करेगा, और अल्लाह उनके पापों को क्षमा कर देगा."
(मुसनद अहमद, 28/637 – कमज़ोर परंतु लोकप्रिय हदीस)

जावेद अहमद ग़ामदी जैसे आधुनिक विद्वानों ने इस हदीस को पूरी तरह से ख़ारिज किया है, जबकि डॉ. इमरान नज़र हुसैन जैसे पारंपरिक आख़िरी ज़माने के विशेषज्ञ इसे आध्यात्मिक संघर्ष के रूप में देखते हैं — न कि जातीय युद्ध या आधुनिक राजनीतिक सीमाओं के संदर्भ में.

यह उल्लेखनीय है कि ये हदीसें सहीह बुखारी या सहीह मुस्लिम जैसे सर्वमान्य संग्रहों में नहीं पाई जातीं, बल्कि सुनन नसाई जैसे द्वितीयक स्रोतों में मिलती हैं, जिनकी प्रामाणिकता को कई विद्वानों ने संदेहास्पद बताया है.

अंततः, आज जो ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ के नाम पर हिंसक विचारधाराएं फैलाई जा रही हैं, वे वास्तव में उमय्यद-यज़ीदी मानसिकता की पुनरावृत्ति हैं. ये हदीसें न तो अहले-बैत की परंपरा में हैं और न ही अहले-सुन्नत या शिया परंपराओं के प्रामाणिक हदीस संग्रहों में.