हिंदुस्तान के हुनरमंद -4ः पड़ोसी से सीखी वेणु कला, अब अजत अली बनाते हैं बांस की अनुपम कलाकृतियां

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 03-03-2023
अजत अली बनाते हैं बांस की अनुपम कलाकृतियां
अजत अली बनाते हैं बांस की अनुपम कलाकृतियां

 

अर्चना


शिल्पकारों के संघर्ष की कहानी के क्रम में हम बात कर रहे हैं असम के शिल्पकार अजत अली और उनके भाई हसन अली की. करीब तीस साल पहले घर में रोजगार का कोई माध्यम नहीं था. दो बीघा जमीन थी. वह भी उपजाऊ कम थी. बड़ी मुश्किल से परिवार को साल भर का राशन मिल पाता था, लेकिन खेत में अक्सर खाद डालने के लिए पैसे नहीं होते थे. कई बार उधार लेकर खाद और बीज की व्यवस्था हो पाती थी.

परिवार की आय बढ़ाने के लिए अजत अली पड़ोसी के घर जाकर बांस से बनने वाले सामान की कला सीखी. करीब दो साल तक कला की बारीकी को समझा. फिर घर पर बंबू मंगाकर उससे छोटे-छोटे सामान बनाने की प्रेक्टिस शुरू की.

हाथ साफ होने के बाद घर से करीब 60 किमी दूर गोहाटी जाकर दूसरों के लिए काम करना शुरू किया. उससे महीने भर में 800 से 1000 रुपए मिल जाते थे. यह संघर्ष करीब 1993 तक चलता रहा. कुछ पैसा एकत्र करने के बाद उन्हों अपना खुद का कारोबार शुरू किया. आज इस काम में अजत अली और उनका परिवार एक मुकाम हासिल कर चुका है. साथ ही सात लोगों को रोजगार भी दे रखा है.

तीसरी जमात तक की पढ़ाई

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अजत अली के बेटे अब्दुल अजीज ने एक मुलाकात में बताया कि उनके पिता ने  महज तीसरी तक पढ़ाई की है. असम के जिला बोरबड़ा निवासी अजत अली के समय में पढ़ाई की अच्छी सुविधा नहीं थी. स्कूल भी दूर थे. साथ ही घर की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर थी.

ऐसे में वह तीसरी क्लास तक पढ़ाई कुछ काम सीखने का मन बनाया. अब्दुल अजीज बताते हैं कि उनके वालिद अजत अली ने 8-10 साल की उम्र में ही काम सीखने के लिए  पड़ोसी के यहां जाना शुरू कर दिया था. दो साल तक पड़ोसी के घर जाकर उन्हें बंबू और केन काट छांट कर दिया करते थे. साथ ही इस कला की बारीकी पर नजर रखते थे.

दो साल तक बारीकियों को समझा

अजीज बताते हैं कि दो साल तक पड़ोसी की बंबू कला की बारीकी सीखते रहे. उन्हें किसी ने हाथ पकड़कर कला नहीं सिखाई. कई बार पड़ोसी के घर पर ही बंबू से सामान बनाते और उस पर अंतिम टचिंग पड़ोसी करता था. चूंकि घर में पैसे थे नहीं. ऐसे में काम शुरू करना भी आसान नहीं था. बंबू मंगाने तक के पैसे नहीं थे. दो बीघा खेती से भी कोई बचत नहीं होती थी. ऐसे में उन्होंने साइकिल से अपने घर से करीब 60 किमी दूर गोहाटी में दूसरों के लिए सामान बनाने जाने लगे.

बहुत कम मजदूरी

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अजीज कहते हैं कि वर्ष 1993 में उनके वालिद अजत अली दिन भर गोहाटी में दूसरों के लिए सामान बनाते थे. उसके बदले महीने भर में महज 800 से 1000 रुपए मिलते थे. इस पैसे से थोड़ा-थोड़ा करके कुछ पैसे एकत्र किए. फिर उससे बंबू खरीदकर घर लाया यगा और उन्होंने उससे अपनी कलाकारी करनी शुरू की.

उन्होंने बताया कि बंबू से उनके पिता फ्लावर स्टैंड, कप, फूलदान, जांगला, आराम चेयर, पानी की बोतल, भगवान गणेश की प्रतिमा, पेन स्टैंड, डलिया, पाइप सीनरी, ट्रे, मानी ब्लेन आदि बनाते हैं. उन्होंने बताया कि पहले घर पर ही सामान बनाकर जिले के बाजारों एवं गांव के आसपास लगने वाले बाजारों मंे बेचा करते थे.

बंबू कला बनी रोजगार का जरिया

अजीत बताते हैं कि उनके पिता ने जब खुद सामान बनाकर बाजारों  में बेचना शुरू किया, तो आज से करीब 30 साल पहले उन्हें 1000-1200 रूपए महीना मिल जाता था. परिवार बढ़ने के साथ ही खर्च भी बढ़ने लगा था. सामानों में नक्काशी अच्छी होने से इनके उत्पाद की मांग बढ़ने लगी.

आसपास के जिलों से भी मांग होेने लगी. माल को पूरा करने के लिए कुछ पड़ोसी गांवों के छोटे-छोटे शिल्पकारों से माल बनवाना शुरू कर दिया. फिर इसी को अपने रोजगार का जरिया बना लिया. अजीज का कहना है कि उन्हांेने घर पर भी छोटा सा वर्कशॉप बना रखा है. वहां सात कर्मचारी काम करते हैं.

अब पूरा परिवार इसी धंधे  में शामिल

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परिवार में सात सदस्य हैं. सभी इसी काम में लगे हैं. परिवार के सहयोग से काम तेजी से बढ़ रहा है. काम पर रखे गए कर्मचारियों को खर्च निकालने, सामान की लागत आदि खर्च निकालने के बाद अब हर महीने 35 से 40 हजाार रुपए की तक आदमनी हो जाती है. अब्दुल अजीज कहते हैं कि उन्हें राज्य सरकार की ओर से भी सुविधा मिलती है. देश के विभिन्न राज्यों  में लगने वाले मेले अथवा प्रदर्शनी में उन्हें भेजा जाता है, ताकि वह आसाम की कला का प्रचार प्रसार कर सकें.

ऐसे बनाते हैं सामान

अजीज का कहना है कि वह बाजार से हरा बंबू खरीदकर लाते हैं. फिर उसे बीच से फाड़ते हैं. साथ ही ऊपर के छिलके को हटाते हैंं. फिर सामान की जरूरतों के हिसाब से उसे लंबे व बारीकी से पट्टी चीरते हैं. उनका कहना है कि किसी भी प्रोडक्ट में कोई आर्टिफिशियल कलर का प्रयोग नहीं करते. बल्कि आग से तपाकर हल्का ब्लैक कलर दिया जाता है.

गणेश की प्रतिमा मंे ही हल्का ब्लैक रंग का प्रयोग करते हैं. उनका कहना है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों को चाहिए कि वह शिल्पकारों को आगे बढ़ाने के लिए एक ऐसा मंच प्रदान करें, जो स्थायी हो. साथ ही इसे विदेशों में भी भेजा जाए. उनका कहना है कि सरकार को हुनर हॉट शुरू करना चाहिए.

नौकरी से बेहतर अपना काम

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अजीज कहते हैं कि केंद्र एवं राज्य सरकार सभी लोगों को सरकारी नौकरी नहीं दे सकती. असम जैसे राज्य में प्राइवेट कंपनियां और औद्योगिक इकाईयां भी बहुत कम है. ऐसे में स्वरोजगार अच्छा विकल्प है. उनका कहना है कि प्राइवेट कंपनियों अथवा दुकानों पर दिन भर काम करके जितना वेतन महीने में मिलेगा, उतना समय खर्च कर अपने कारोबार में अच्छी कमाई की जा सकती है.

( हिंदुस्तान के हुनरमंद सीरीज में हम देश के शिल्पकारों, दस्तकारों और कारीगरों की कहानियां आपको एक श्रृंखला के रूप में पेश करेंगे. आप की राय और टिप्पणियों का इंतजार रहेगाः संपादक)