ग़ुलाम रसूल देहलवी
इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद (स.अ.) के दामाद और चौथे खलीफा (सुन्नी मत के अनुसार) तथा पहले इमाम (शिया मत के अनुसार) इमाम अली इब्न अबी तालिब की हत्या इब्न मुल्जिम ने 661 ईस्वी में कर दी थी. ख़ारिजी, जो पहले इमाम अली के समर्थक थे, लेकिन सीरियाई गवर्नर मुआविया के साथ सिफ़्फ़ीन की जंग में मध्यस्थता पर सहमत होने के बाद उनके खिलाफ हो गए थे.
उन्होंने पहले इमाम अली को 'गुमराह' घोषित किया और फिर उनकी हत्या का आदेश दिया. उन्होंने क़ुरआन की इस आयत को गलत तरीके से उद्धृत किया: “हुकूमत तो केवल अल्लाह ही की है” (सूरह 4:64), और इसी को आधार बनाकर हत्या को जायज़ ठहराया.
उनका मानना था कि एक ऐसे इस्लामी खलीफा की हत्या करना उनका फर्ज़ है जो उनके अनुसार इस्लाम से भटक गया था. इस प्रकार ख़ारिजी, जिन्होंने इमाम अली की हत्या की साजिश रची, इस्लामी इतिहास के पहले आतंकवादी थे जिन्होंने हत्या को अंजाम देने के लिए क़ुरआन का दुरुपयोग और ग़लत उद्धरण दिया — और वह भी सबसे मासूम इमाम की हत्या.
इसी तरह, हज़रत मोहम्मद (स.अ.) के नवासे इमाम हुसैन को भी पहले ‘गुमराह’ घोषित किया गया और फिर 680 ईस्वी में करबला की जंग में यज़ीद इब्न मुआविया की सेना ने उन्हें शहीद कर दिया.
इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैअत (वफ़ादारी की शपथ) यह कहकर ठुकरा दी थी कि वह एक अन्यायी और इस्लाम-विरोधी शासक है. उनका इनकार किसी बग़ावत के तहत नहीं बल्कि न्याय के सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों पर आधारित था.
लेकिन यज़ीदी शासन ने धार्मिक दलीलों और क़ुरआन की आयतों का ग़लत इस्तेमाल कर इमाम हुसैन और उनके साथियों को बाग़ी और राज्य के लिए खतरा बता दिया.
कुछ यज़ीदी तो उन्हें 'काफ़िर' तक कहने लगे. यज़ीदी कमांडर उबैदुल्लाह इब्न ज़ियाद ने इमाम हुसैन को उस समय शहीद किया जब वे सजदे की हालत में नमाज़ अदा कर रहे थे। इमाम अली की हत्या भी इसी तरह की गई थी — इब्न मुल्जिम ने उन्हें फ़ज्र की नमाज़ के दौरान ज़हर से बुझी तलवार से सिर पर वार कर के शहीद किया.
यह पृष्ठभूमि बताती है कि कैसे ख़ारिजियों और बाद में यज़ीदियों — इस्लामी इतिहास के पहले आतंकी समूहों — ने अपने अन्यायी और आतंककारी कार्यों को धार्मिक रूप देने के लिए क़ुरआन की ग़लत व्याख्या और उद्धरण दिए.
आज यही काम पाकिस्तान की आतंकवादी संगठनें और अब खुद पाकिस्तानी सेना भी कर रही है, जो क़ुरआनी आयतों का ग़लत इस्तेमाल कर भारत के खिलाफ अपने ड्रोन हमलों और सैन्य अभियानों को धार्मिक जामा पहनाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने इस अभियान को "ऑपरेशन बुनयान अल-मरसूस" नाम दिया है — जिसे उन्होंने एक बड़ा जवाबी हमला बताया है.
पाकिस्तानी सेना ने “बुनयान अल-मरसूस” (सूरह अस-सफ़ 61:4) नामक क़ुरआनी शब्द का अतिशय शाब्दिक और संदर्भ से हटकर अर्थ निकाल कर इस अभियान को 'ईश्वरीय समर्थन' प्राप्त बताने की कोशिश की है.
जबकि हक़ीक़त में यह एक और बार क़ुरआन की आत्मा और मूल भावना का उल्लंघन है. क़ुरआन की आयत का दुरुपयोग करके धार्मिक एकता और जिहाद के नाम पर राज्य के भू-राजनीतिक हितों के लिए आक्रामक सैन्य गतिविधि को वैध ठहराना, ख़ारिजी आतंकवादियों की ही नीति है.
इस आयत का सही भावार्थ यह है:"निस्संदेह, अल्लाह उन्हें पसंद करता है जो उसकी राह में एक पंक्ति में इस प्रकार लड़ते हैं जैसे वे एक मजबूत दीवार हों." — क़ुरआन 61:4
इस आयत का भावार्थ सांकेतिक और रूपकात्मक है — यह ईमान वालों की एकता, अनुशासन और सामूहिक संघर्ष की बात करता है, विशेषकर नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर। यह किसी भी आक्रामकता या अंधे सैन्य अभियान को जायज़ नहीं ठहराता.
असदुद्दीन ओवैसी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष ने पाकिस्तानी सेना द्वारा "बुनयान अल-मरसूस" के गलत इस्तेमाल पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा:
“वे (पाकिस्तानी) जानबूझकर बुनयान अल-मरसूस के असल मर्म को तोड़-मरोड़ रहे हैं और क़ुरआन के असली संदेश को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. इस आयत से ठीक पहले कहा गया है: 'तुम वो क्यों कहते हो जो तुम करते नहीं?' लेकिन पाकिस्तान इसे नजरअंदाज कर अपनी सैन्य कार्रवाइयों को धार्मिक रंग दे रहा है.”
उन्होंने पाकिस्तान की धार्मिक ग्रंथों के चयनात्मक उपयोग की प्रवृत्ति की भी आलोचना की और कहा, “जब 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेशी मुसलमानों पर बमबारी की थी, तब उन्हें बुनयान अल-मरसूस की आत्मा क्यों याद नहीं आई?” उन्होंने उस समय के पाकिस्तानी नेता जुल्फिकार अली भुट्टो का ज़िक्र करते हुए यह सवाल उठाया.
(लेखक इस्लाम के जानकार हैं)