स्मृति दिवस : रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी,आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 03-03-2023
स्मृति दिवस : रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी,आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी
स्मृति दिवस : रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी,आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी

 

ज़ाहिद ख़ान

‘‘एक उम्दा मोती, खु़श लहजे के आसमान के चौहदवीं के चांद और इल्म की महफ़िल के सद्र. ज़हानत के क़ाफ़िले के सरदार। दुनिया के ताजदार। समझदार, पारख़ी निगाह, ज़मीं पर उतरे फ़रिश्ते, शायरे-बुजु़र्ग और आला. अपने फ़िराक़ को मैं बरसों से जानता और उनकी ख़ासियतों का लोहा मानता हूं. इल्म और अदब के मसले पर जब वह ज़बान खोलते हैं, तो लफ़्ज़ और मायने के हज़ारों मोती रोलते हैं और इतने ज़्यादा कि सुनने वाले को अपनी कम समझ का एहसास होने लगता है. वह बला के हुस्नपरस्त और क़यामत के आशिक़ मिज़ाज हैं और यह पाक ख़ासियत है, जो दुनिया के तमाम अज़ीम फ़नकारों में पाई जाती है.’’

यह मुख़्तसर सा तआरुफ़ अज़ीम शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का है. उनके दोस्त शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में फ़िराक़ का ख़ाका खींचते हुए उनके मुताल्लिक़ यह सब बातें कहीं हैं. जिन लोगों ने भी फ़िराक़ को देखा, पढ़ा या सुना है, वे सब अच्छी तरह से जानते हैं कि फ़िराक़ गोरखपुरी की शख़्सियत इन सबसे कमतर नहीं थी, बल्कि कई मामलों में, तो वे इससे भी कहीं ज़्यादा थे.
 
फ़िराक़ जैसी शख़्सियत, सदियों में एक पैदा होती है. फ़िराक़ गोरखपुरी का ख़ाका लिखते वक़्त जोश मलीहाबादी यहीं नहीं रुक गए, बल्कि इसी मज़ामीन में उन्होंने डंके की चोट पर यह एलान भी कर दिया,‘‘जो शख़्स यह तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदुस्तान के माथे का टीका और उर्दू ज़बान की आबरू, शायरी की मांग का संदल है, वह खु़दा की क़सम पैदाइशी अंधा है.’’
 
फ़िराक़ गोरखपुरी की सतरंगी शख़्सियत का इससे बेहतर तआरुफ़ शायद ही कोई दूसरा हो सकता है.  28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में जन्में रघुपति सहाय बचपन से ही शायरी से हद दर्जे के लगाव और मोहब्बत के चलते फ़िराक़ गोरखपुरी हो गए.
 
उन्होंने अपना यह तख़ल्लुस क्यों चुना ?, इसका भी एक मुख़्तसर सा क़िस्सा है, जो उन्होंने मौलाना खै़र बहोरवी के नाम लिखे अपने एक ख़त में वाजे़ह किया था. इस ख़त में फ़िराक़ लिखते हैं, ‘‘वे ‘दर्द’ देहलवी के कलाम से काफ़ी मुतास्सिर थे.
 
raghupati
 
‘दर्द’ के उत्तराधिकारी नासिर अली ‘फ़िराक़’ थे. चूंकि वे भी ‘दर्द’ देहलवी के कलाम के मद्दा थे, लिहाज़ा उन्हें यह तख़ल्लुस ख़ूब पसंद आया और उन्होंने भी अपना तख़ल्लुस ‘फ़िराक़’ रख लिया. ‘फ़िराक़’ तख़ल्लुस पसंदगी की एक और वजह शायद इस लफ़्ज़ के मायने भी हैं, जो उनकी शख़्सियत से काफ़ी मेल खाते हैं. गोरखपुर में पैदाइश की वजह से उनका पूरा नाम हुआ, फ़िराक़ गोरखपुरी. 
 
बहरहाल, फ़िराक़ के वालिद मुंशी गोरख प्रसाद खुद एक अच्छे शायर थे और उनका तख़ल्लुस ‘इबरत’ था. वे फ़ारसी के आलिम थे और उर्दू में शायरी करते थे. ज़ाहिर है कि घर के अदबी माहौल ने फ़िराक़ के मासूम ज़ेहन पर भी असर डाला. वे भी शायरी के दिलदादा (शौकीन) हो गए.
 
बीस साल की उम्र आते-आते वे भी शे’र कहने लगे. शुरुआत में उन्होंने फ़ारसी के उस्ताद महदी हसन नासिरी से कुछ ग़ज़लों पर इस्लाह ली। बाद में खु़द के अंदर ही शे’र कहने की इतनी सलाहियत आ गई कि किसी उस्ताद की ज़रूरत नहीं पड़ी.
 
फ़िराक़ की इब्तिदाई शायरी यदि देखें, तो उसमें जु़दाई का दर्द, ग़म और जज़्बात की तीव्रता शिद्दत से महसूस की जा सकती है. अपनी ग़ज़लों, नज़्मों और रुबाईयों में वे इसका इज़हार बार-बार करते हैं,
 
वो सोज़-ओ-दर्द मिट गए, वो ज़िंदगी बदल गई
सवाल-ए-इश्क़ है अभी ये क्या किया, ये क्या हुआ.

वे अपने ज़ाती दर्द को इन अल्फ़ाज़ में आवाज़ देते हैं,
 
उम्र फ़िराक़ ने यों ही बसर की
कुछ ग़में जानां, कुछ ग़में दौरां.

जुदाई के दर्द के अलावा उनके अश्आर में ‘रात’ एक रूपक के तौर पर आती है. उनके कलाम का एक हिस्सा ऐसा है, जिसकी बिना पर उन्हें शायरे-नीमशबी कहा जा सकता है. मिसाल के तौर पर उनके कुछ ऐसे ही अश्आर हैं,
 
उजले-उजले से कफ़न में सहरो-शाम ‘फ़िराक़’
एक तस्वीर हूं मैं रात के कट जाने की.

तारीकियां चमक गयीं आवाजे़-दर्द से
मेरी ग़ज़ल से रात की जुल्फ़ें संवर गयीं.

फ़िराक़ गोरखपुरी हालांकि अपनी ग़ज़लों और मानीख़ेज़ शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उन्होंने नज़्में भी लिखी. और यह नज़्में, ग़ज़लों की तरह खू़ब मक़बूल हुईं. ‘आधी रात’, ‘परछाइयां’ और ‘रक्से शबाब’ वे नज़्में हैं, जिन्हें जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी से लेकर अली सरदार जाफ़री तक ने दिल खोलकर दाद दी.
 
‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियां’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी फ़िराक़ की शानदार नज़्में हैं, जिनमें उनकी तरक़्क़ीपसंद सोच साफ़ ज़ाहिर होती है. ‘हिंडोला’ नज़्म में तो उन्होंने हिंदुस्तानी तहज़ीब की शानदार तस्वीरें खींची हैं. हिंदू देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मज़हबी-समाजी यक़ीनों का इज़हार इस नज़्म में उन्होंने बड़े ही खू़बसूरती से किया है.
 
उर्दू आलोचकों ने इस नज़्म को पढ़कर, बेसाख़्ता कहा, यह नज़्म हिंदुस्तानियत की बेहतरीन मिसाल है. इस नज़्म में मक़ामी रंग शानदार तरीके़ से आए हैं. फ़िराक़ गोरखपुरी के एक और समकालीन फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने एक मज़मून में उनके कलाम की तारीफ़ करते हुए कहा था,‘‘फ़िराक़ साहिब जज़्बात व एहसासात की बारीकबीनी में इज़्हार के ढंग के बारे में कशीदाकारी के माहिर थे.
 
इस लिहाज़ से कुल्ली तौर से न सही, बहुत हद तक उनका ‘सौदा’ और ‘मीर’ से मुक़ाबला कर सकते हैं.’’फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों-नज़्मों में फ़ारसी, अरबी के ही कठिन अल्फ़ाज़ नहीं होते थे, बल्कि कई बार अपने शे’रों में उस हिंदुस्तानी ज़बान को इस्तेमाल करते थे, जो हर एक के लिए सहल है. मिसाल के तौर पर उनके कुछ इस तरह के शे’र हैं,
 
तुम मुख़ातिब भी हो, क़रीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें.

मुहब्बत में मिरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां
तिरा आना, तिरा मिलना, तिरा उठना, तिरा जाना.

 फ़िराक़ ने श्रंगार रस में डूबी अनगिनत ग़ज़लें भी लिखीं. जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयात लिखीं, नज़्में लिखीं. पचास साल से ज़्यादा वक़्त की अपनी अदबी ज़िंदगी में फ़िराक़ गोरखपुरी ने तकरीबन 40 हज़ार अशआर लिखे.
 
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ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक उनका लेखन नहीं छूटा. वे आख़िरी समय तक एकेडमिक और अदबी महफ़िलों की रौनक बने रहे. फ़िराक़ जैसी शोहरत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है. 3 मार्च, 1982 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा.
 
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ख़याल आयेगा कि तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा था.