भारत से खास रिश्तों के लिए याद रहेंगे गोर्बाचेव

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 01-09-2022
भारत से खास रिश्तों के लिए याद रहेंगे गोर्बाचेव
भारत से खास रिश्तों के लिए याद रहेंगे गोर्बाचेव

 

permodप्रमोद जोशी

भारत की जनता के मन में कुछ विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के प्रति विशेष सम्मान है.इनमें अमेरिकी जॉन एफ कैनेडी और रूसी मिखाइल गोर्बाचेव के नाम शामिल किए जा सकते हैं.पूर्व सोवियत संघ के अंतिम नेता मिखाइल गोर्बाचेव (गोर्बाचोव या गोर्बाचौफ) को हिंदी वर्तनी के अलग-अलग रूपों की तरह अलग-अलग कारणों से याद कर सकते हैं.

शीतयुद्ध खत्म कराने या अनायास हो गए साम्यवादी व्यवस्था के विखंडन में उनके योगदान के लिहाज से या फिर भारत के साथ उनके विशेष रिश्तों के कारण। यह आलेख भारत के साथ रिश्तों को लेकर ही है.उन रिश्तों को समझने के लिए भी उस पृष्ठभूमि को समझना होगा, जिसकी वजह से वे महत्वपूर्ण हैं.

सन 1985में जब वे सत्ता में आए, तब उनका इरादा सोवियत संघ को भंग करने का नहीं था, बल्कि वे अपनी व्यवस्था को लेनिन के दौर में वापस ले जाकर जीवंत बनाना चाहते थे.वे ऐसा नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने अपने समाज के जिन अंतर्विरोधों को उन्होंने खोला उन्हें पिटारे में बंद करने की कोई योजना उनके पास नहीं थी.

उन्हें न केवल सोवियत संघ में, बल्कि रूस के इतिहास में सबसे साफ-सुथरे और निष्पक्ष चुनाव कराने का श्रेय जाता है.उन्होंने व्यवस्था को सुधारने की लाख कोशिश की, फिर भी सफल नहीं हुए.दूसरी तरफ कट्टरपंथियों ने उनके तख्ता पलट की कोशिशें भी कीं, वे भी सफल नहीं हुए.अंततः 1991 में सोवियत संघ 1991 बिखर गया.

modi

ताजा हवा का झोंका

गोर्बाचेव सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के पहले ऐसे महासचिव थे, जिनका जन्म 1917 की क्रांति के बाद हुआ था और कई उम्रदराज नेताओं के बाद उन्हें राजनीति में ताज़ा हवा के झोंके जैसा माना जाता था.उनका खुला रवैया उन्हें अपने दूसरे नेताओं से अलग बनाता था.

उनके सामने पहली चुनौती ध्वस्त हो रही सोवियत अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकने की थी.वे कम्युनिस्ट पार्टी में सिर से लेकर पैर तक बदलाव करने की इच्छा लेकर आए थे, जो लगभग असंभव संकल्प था.

उन्होंने दुनिया को दो नए रूसी शब्द दिए, ‘ग्लासनोस्त’ यानी खुलापन और 'पेरेस्त्रोइका' यानी पुनर्गठन। उनके विचार से नए निर्माण के लिए खुलापन जरूरी है.पर यह खुलापन बाजार की अर्थव्यवस्था का खुलापन नहीं है.

एक बात उन्होंने पार्टी प्रतिनिधियों से 1985 में कही थी, हमें अपने जहाज को बचाना है, जो समाजवाद है.उनके नेतृत्व में पहली बार सोवियत संघ की सर्वोच्च संस्था 'कांग्रेस ऑफ़ पीपुल्स डेप्युटीज़' के चुनाव हुए थे.

वैश्विक स्तर पर वे गोर्बाचेव शीत युद्ध को ख़त्म करना चाहते थे.इसके लिए उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के साथ निरस्त्रीकरण संधि भी की.उनके खुलेपन और लोकतांत्रिक भावना पर पहला उन गणराज्यों पर पड़ा, जो कालांतर में सोवियत संघ में शामिल हुए थे.उन इलाकों में आज़ादी की मांग उठने लगी.

शुरुआत उत्तर में बाल्टिक गणराज्यों से हुई.लात्विया, लिथुआनिया और एस्तोनिया ने खुद को अलग किया.इसका वॉरसा संधि में शामिल देशों पर पड़ा.दोनों जर्मनियों के नागरिकों ने एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना शुरू किया.इस बिखराव के विरोध में तख्ता-पलट हुआ, पर अंततः सोवियत संग टूट गया.

दूसरी तरफ वे अपने देश में ही अलोकप्रिय हो गए.1996 में उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें सिर्फ 6फीसदी वोट मिले.उन्हें जो भी इज्जत मिली, वह पश्चिमी देशों से ही मिली, जिसमें नोबेल शांति पुरस्कार शामिल है.

russia

भारत के साथ रिश्ते

सोवियत संघ और भारत के बीच रिश्ते हालांकि काफी पहले से बन चुके थे, पर इन रिश्तों को बेहतर बनाने में गोर्बाचेव की खास भूमिका थी.इसीलिए इन रिश्तों में स्थिरता है.सोवियत संघ टूटने के बाद भी वे बदस्तूर बने हैं.

खासतौर से उस संधिकाल में जब सोवियत संघ टूट रहा था और शीतयुद्ध खत्म हो रहा था.विदेश-नीति और रक्षा सहयोग की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है.वे 1986और 1988में भारत की यात्रा पर भी आए थे.

यह वह दौर था, जब अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप के खिलाफ लड़ाई चल रही थी, जिसके कारण अमेरिका और पाकिस्तान के बीच दोस्ताना संबंध बढ़ रहे थे.कश्मीर में अफगान कबायलियों की मदद से हिंसा का एक नया दौर शुरू होने वाला था.

भारत की सुरक्षा के लिए नया खतरा पैदा हो रहा था.उस समय रूस ने टी-72 टैंक भारत को देने का समझौता किया था.रूस ने ऐसी कई रक्षा-तकनीकें भारत को दीं, जो उसने किसी दूसरे देश को नहीं दीं.

गोर्बाचेव के राष्ट्रपति बनने के करीब पाँच साल पहले दिसम्बर 1979में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में अपनी सेना उतार दी थी.उसके बाद वहाँ प्रतिरोधी आंदोलन चला, जिसमें पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका थी.

उसे अमेरिका के अलावा सऊदी अरब और चीन का समर्थन भी मिल रहा था.सितंबर, 1988में गोर्बाचेव ने ही अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने का फैसला किया था.सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद भी गृहयुद्ध चलता रहा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता मोहम्मद नजीबुल्ला सरकार को चलाते रहे.

gandhi

राजीव-गोर्बाचेव संवाद

इस दौरान भारत के रिश्ते ताजिक मूल के नॉर्दर्न एलायंस के साथ बने, जिसमें रूस की भूमिका थी.आज भी भारतीय वायुसेना का हवाई अड्डा ताजिकिस्तान में है.इस लिहाज से 1986और 1988 की गोर्बाचेव की भारत-यात्राएं जियो-पॉलिटिक्स के लिहाज से महत्वपूर्ण थीं.

1986 में वे जिस प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत आए थे, उसमें 110 से ज्यादा सदस्य थे.यह यात्रा इसलिए भी ऐतिहासिक थी क्योंकि 1985 में पद ग्रहण करने के बाद गोर्बाचेव की किसी एशियाई देश की यह पहली यात्रा थी.

उस यात्रा के दौरान उन्होंने भारत की संसद को भी संबोधित किया.उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मुलाकात की और एक ‘दिल्ली घोषणापत्र’ जारी किया गया.गोर्बाचेव मार्च 1985में राष्ट्रपति बने थे, जबकि उसके चार महीने पहले नवंबर 1984 में राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने थे.

हालांकि वह छोटा सा दौर ही था, पर उसमें दोनों देशों के रिश्तों में जो समझदारी विकसित हुई, वह चमत्कारिक थी.अक्तूबर 1985में यूके, बहामास, क्यूबा, अमेरिका और नीदरलैंड्स की यात्रा पर निकले राजीव गांधी ने अचानक मॉस्को में उतरने का फैसला किया.

उन्हीं दिनों गोर्बाचेव जिनीवा में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन से मुलाकात करने वाले थे.बाद में पता लगा कि रोनाल्ड रेगन से मुलाकात करने के पहले गोर्बाचेव भारत के दृष्टिकोण को समझना चाहते थे.

1985 से 1989 के बीच राजीव गांधी और गोर्बाचेव का संवाद किसी न किसी रूप में चलता रहा.यह वह दौर था, जब वैश्विक-राजनीति में बदलाव आ रहा था.ऐसे में रूस और भारत दोनों देशों में भविष्य को लेकर कई प्रकार की आशंकाएं थीं.

भारत की चिंता थी कि रूस के अमेरिका के साथ रिश्ते बेहतर होंगे, तो कहीं हम अकेले तो नहीं पड़ जाएंगे.वहीं रूस को फिक्र थी कि शीतयुद्ध खत्म होने पर भारत कहीं अमेरिकी खेमे में तो नहीं चला जाएगा.

रक्षा और डिप्लोमेसी

भारत के रूस से रिश्ते दो सतह पर थे। एक वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के धरातल पर और दूसरे राजनयिक धरातल पर.भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी हद तक रूसी तकनीक पर आधारित है.

1974 में भारत ने अपने पहले नाभिकीय परीक्षण की सूचना सोवियत संघ को पहले से दे दी थी.भारत का पहला उपग्रह रूसी रॉकेट पर सवार होकर गया था.हमारे पहले अंतरिक्ष-यात्री राकेश श

र्मा रूस रॉकेट पर ही गए थे.आज गगनयान पर बैठकर जाने वाले हमारे पहले अंतरिक्ष-यात्रियों को रूस में ही प्रशिक्षण मिल रहा है.

ALSO READ हमारा स्वतंत्रता संग्राम और मुसलमान

हमारी चिंता संरा सुरक्षा परिषद में कश्मीर को लेकर रूसी समर्थन से भी जुड़ी है.पचास के दशक में रूस ने ही ऐसे सभी प्रस्तावों को वीटो किया, जो भारत-विरोधी थे.बहरहाल रूस ने न केवल कश्मीर पर अपने वचन का पालन किया है, बल्कि भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन किया है.

5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी बनाए जाने के फैसले के बाद चीन ने संरा में इस मसले को उठाने का प्रयास किया, जिसे रोकने में फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका के अलावा रूस ने भी हमारा साथ दिया.रूस के साथ रिश्तों की जो मजबूत बुनियाद है, उसमें कुछ ईंटें गोर्बाचेव ने भी रखी हैं.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )