प्रमोद जोशी
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार-वार्ता में गतिरोध आने के बाद भारत में मोटे तौर पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ हैं. सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि भारत को अमेरिका का साथ छोड़कर रूस और चीन के गुट में शामिल हो जाना चाहिए.वहीं गंभीर पर्यवेक्षकों का कहना है कि इतनी जल्दी निष्कर्ष नहीं निकाल लेने चाहिए. भारत की नीति किसी गुट में शामिल होने की नहीं है. व्यापार-वार्ता में तनातनी का समाधान दोनों देश आपस की बातचीत से ही निकाल सकते हैं.
पर बात यहीं खत्म नहीं होती. वैश्विक-व्यवस्था भी तेज बदलाव की दिशा में बढ़ रही है. ब्रिक्स जैसे समूह का उदय उसी प्रक्रिया की शुरुआत है. ऐसा लगता है कि वैश्विक-मुद्रा के रूप में अमेरिकी डॉलर की हैसियत देर-सबेर खत्म होगी.
अमेरिका का महत्व
बावज़ूद इसके आज भी वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और टेक्नोलॉजी में दुनिया का इनोवेशन सेंटर है. वहाँ का बहुजातीय समुदाय और मजबूत लोकतंत्र उसका एक और सकारात्मक पहलू है, पर डॉनल्ड ट्रंप ने इस व्यवस्था को एक नया मोड़ दिया है.
भारत-अमेरिका के बीच व्यापार पर बात करने का काम विशेषज्ञों का है. उसकी क प्रक्रिया है, पर अब लगता है कि अमेरिका के फैसले ‘प्रोसेस ड्रिवन’नहीं होंगे, बल्कि राष्ट्रपति की सनक से तय होंगे.
सवाल किया जा रहा है कि ट्रंप ‘दादागीरी’अंदाज़ में क्यों बोल रहे हैं? इसका जवाब है कि यह उनकी शैली है, पर अंततः फैसले ‘प्रोसेस ड्रिवन’ही होने होंगे, व्यक्तिगत सनक से नहीं. ऐसा नहीं हुआ, तो समझौते हो ही नहीं पाएँगे.
ट्रंप की टुकड़ेबाज़ी की भारत ने शुरू में अनदेखी की थी, पर ऐसा लगता है कि अब तुर्की-ब-तुर्की जवाब देने का फैसला किया गया है. रक्षामंत्री राजनाथ के एक ताज़ा बयान से ऐसा ही लगता है.
व्यापार-वार्ता का क्या होगा?
ट्रंप ने संकेतों में एक बात कही है कि जब तक रूस से पेट्रोलियम की खरीद का मसला तय नहीं होता, व्यापार वार्ता आगे नहीं होगी. इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि इस महीने के तीसरे हफ्ते अमेरिका से भारत आने टीम नहीं आएगी.
आएगी या नहीं आएगी, इसके बारे में कोई आधिकारिक वक्तव्य नहीं है, केवल ट्रंप के एक अनौपचारिक वक्तव्य से निकाला गया, अनुमान है. उधर अमेरिकी विदेश विभाग ने 7 अगस्त को ज़ोर देकर कहा कि भारत, हमारा प्रमुख रणनीतिक साझेदार और दोनों देशों के बीच ‘पूर्ण और स्पष्ट’ बातचीत जारी रहेगी.
अमेरिकी विदेश विभाग के प्रमुख उप प्रवक्ता टॉमी पिगॉट ने यह बात कही. उधर उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला से और उसके अगले दिन रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात की. उधर नरेंद्र मोदी की 31 अगस्त की चीन-यात्रा से कई तरह के निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं.
रूसी तेल का सवाल
ट्रंप साहब कह रहे हैं कि भारत सस्ते रूसी तेल की आदत छोड़े, वरना उसे भारी टैरिफ का सामना करना पड़ेगा. ट्रंप की इच्छा पूरी करने के लिए भारत को क्या करना होगा? ट्रंप की धमकी के बाद भारत चाहे भी तो रूस से तेल खरीदना बंद नहीं कर सकता. यह कोई आसान काम नहीं है.
तीन साल पहले, भारत ने रूस से तेल आयात बढ़ा दिया था. यह एक ऐसा कदम था जिससे दोनों देशों को फ़ायदा हुआ-और एक तरह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी, क्योंकि उससे पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ नहीं पाईं.
यूक्रेन युद्ध से पहले, भारत अपनी आवश्यकता का केवल 1प्रतिशत तेल रूस से आयात करता था. जब यूरोप ने रूस पर उसके व्यापक आक्रमण की सज़ा के तौर पर उससे तेल खरीदना बंद कर दिया, तो चीन की तरह भारत ने भी इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए कई डॉलर प्रति बैरल की छूट पर कच्चा तेल ख़रीदा.
विकल्प नहीं
मई 2023तक रूस से भारत का तेल आयात, लगभग बीस लाख बैरल प्रतिदिन हो गया, और तब से यह स्थिर बना हुआ है, जो उसके कुल आयात का एक तिहाई से भी अधिक है. भारत प्रतिदिन लगभग 50लाख बैरल तेल का उपभोग करता है, जो चीन और अमेरिका से थोड़ा ही पीछे है.
भारतीय रेटिंग एजेंसी इक्रा का अनुमान है कि रूसी तेल खरीदने से भारतीय कंपनियों को दो वर्षों में 13अरब डॉलर की बचत हुई. पर यह केवल फायदे की बात नहीं है. तकनीकी दृष्टि से भी भारत को यह फैसला बदलने के लिए कई तरह की व्यवस्थाएँ करनी होंगी.
रिफाइनिंग उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि रूस से आने वाले तेल ग्रेड के लिए कुछ प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है, और रिफाइनरियों को अपनी सुविधाओं को फिर से बदलना होगा. नई रिफाइनरियों की तकनीक ऐसी है कि यह बदलाव फौरन संभव है, पर सभी में ऐसा संभव नहीं है.
इसके अलावा शिपिंग के समझौतों को बदलना होगा. और सबसे बड़ी बात कीमत की है. भारत यदि फिर से पुराने उत्पादकों से तेल खरीदेगा, तो कीमत न केवल ज्यादा होगी, बल्कि और बढ़ जाएगी.
रूसी तेल की बात से हटकर भी मसले हैं. भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि जहाँ तक भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्रों की बात है, हम अमेरिका की माँग पूरी नहीं कर सकेंगे. हमारे विदेश मंत्रालय ने इस दंड को ‘अनुचित और अविवेकपूर्ण’ बताया है और कहा है कि ‘भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगा.’
रोजी-रोटी का सवाल
टैरिफ़ एक सरकार या एक देश द्वारा दूसरे पर लगाए जाते हैं, लेकिन असल व्यापार देशों के बीच नहीं, बल्कि लोगों और कंपनियों के बीच होता है. इसमें बदलाव होने से सरकार भले ही धक्के को सहन कर ले, पर कुछ छोटी कंपनियाँ संकट में आ जाएँगी और उनमें काम करने वाले लोग भी. इसलिए हमें जल्द से जल्द नए बाज़ार भी खोजने होंगे.
असली नुकसान जीडीपी के नुकसान के रूप में भले ही बहुत ज्यादा नहीं हो, परआजीविका के रूप में ज्यादा होगा. परिधान और कालीन या खाद्य-प्रसंस्करण निर्यात अत्यधिक श्रम-प्रधान हैं और ऐसे क्षेत्रों में जीडीपी में आधा प्रतिशत की गिरावट आजीविका के लिए गहरे संकट पैदा कर सकती है.
ब्रिक्स से नाराज़गी
ट्रंप भले ही भारत और ब्राज़ील को आँखें दिखा रहे हों, पर चीन से सीधे पंगा लेने की स्थिति में नहीं हैं. चीन से टकराव के प्रति उनकी अनिच्छा दर्शाती है कि वैश्विक व्यापार में ताकत भी मायने रखती है और कमजोरियों का शोषण किया जाता है.
भारत और ब्राज़ील दोनों ही अमेरिका से 50 फीसदी टैरिफ़ का सामना कर रहे हैं. ये सभी देश ब्रिक्स के सदस्य है, जो ट्रंप की आँख की किरकिरी है. ट्रंप ने पहले ही धमकी दे रखी है कि ब्रिक्स देशों के खिलाफ भी अतिरिक्त टैरिफ लगेगा.
ब्रिक्स केवल एक शुरुआत है, जो भविष्य का राजनीतिक और आर्थिक-संकेतक भी है. विश्व बैंक और आईएमएफ के मार्फत अमेरिका का वैश्विक-व्यवस्था पर नियंत्रण है. उसका डॉलर वैश्विक-मुद्रा की तरह चलता है. इन सभी क्षेत्रों में बदलाव के आसार हैं.
डॉलर ही नहीं अमेरिकी अर्थव्यवस्था का वर्चस्व भी संकट में है. अमेरिका पर भारी कर्ज है, जो अमेरिकी बॉण्डों के रूप में है. अपनी घाटे की व्यवस्था को अमेरिका नए नोट छापकर पूरा करता है. ऐसा कब तक चलेगा?
ट्रंप की निजी जीत
अमेरिका में एक धड़ा मानता है कि ट्रंप ही फैसले कर रहे हैं, इसलिए अमेरिका जीत रहा है. यूरोपियन यूनियन, जापान और दक्षिण कोरिया ने जल्दबाजी में समझौते कर लिए हैं, पर दुनिया पूरी तरह से व्यापार युद्ध में नहीं उतरी है. हालाँकि भारत किसी युद्ध की मुद्रा में नहीं है, पर अभी तक दबाव में भी नहीं आया है.
चीन समेत कुछ देशों ने जवाबी कार्रवाई भी की है, पर, काफी देशों ने झुककर उच्च शुल्क स्वीकार कर लिए हैं, अपने बाज़ार खोल दिए हैं और अमेरिका में भारी निवेश का वादा किया है.
दूसरी तरफ बड़ी संख्या में अमेरिकी अर्थशास्त्री मानते हैं कि ट्रंप ने जो शुरू किया है, उससे अमेरिका जीतेगा नहीं, बल्कि हारेगा. समझ यह है कि उच्च टैरिफ अमेरिका को नहीं, बल्कि व्यापारिक साझेदारों को दंडित करते हैं.
येल बजट लैब के अनुसार, अमेरिका की प्रभावी टैरिफ दर बढ़कर 18प्रतिशत हो गई है, जो जनवरी की तुलना में लगभग आठ गुना अधिक है. अमेरिकी सीमा शुल्क विभाग को अब हर महीने लगभग 30अरब डॉलर की कमाई हो रही है.
जनता की हार
अर्थशास्त्री मानते हैं कि व्यापार के बारे में यह बुनियादी ग़लतफ़हमी है. जब ट्रंप टैरिफ बढ़ाते हैं, तो वे अपने ही देशवासियों को कम कीमतों पर माल खरीदने से वंचित करते हैं. अनुभव बताता है कि टैरिफ से सामान बेचने वालों को उतना नुकसान नहीं होता जितना खरीदारों को होता है.
बहरहाल अभी तक शेयर बाजारों में भी उछाल है. इसकी एक वजह यह है कि अमेरिका तेजी से आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस पर निवेश कर रहा है, जिससे उसकी तकनीकी कंपनियों की हैसियत बढ़ रही है. इन कंपनियों को भी काफी चीजें बाहर से लेनी होंगी, जो टैरिफ की वजह से महंगी होंगी.
अभी इसके दीर्घकालीन भविष्य की तरफ ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं है. 2025की पहली छमाही में विकास दर कमज़ोर और मुद्रास्फीति ऊँची रही. रोज़गार सृजन धीमा पड़ रहा है, और बॉस के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि सेवा क्षेत्र की गतिविधियाँ लगभग ठप्प हो सकती हैं.
इसके पहले तक अमेरिका में अधिकांश उत्पादों पर, चाहे उनका मूल कहीं भी हो, एक समान टैरिफ दर लगती थी. पर अब यह तय हो रहा है कि सामान कहाँ से आता है, और वह भी सौदेबाजी के सहारे है. राष्ट्रपति खुश, तो छूट और नाराज़, तो धमकी.
आंतरिक राजनीति
इस नीति के पूरे निहितार्थ भी तक सामने नहीं हैं. पहले अमेरिकी खरीदार के पास विकल्पों की भरमार थी, क्योंकि घरेलू या विदेशी उत्पादक जो सामान बेचने के लिए प्रतिस्पर्धा करते थे, उन्हें ऑर्डर मिलते थे. अब दंद-फंद का दौर आएगा, लॉबिंग बढ़ेगी. यानी कि पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे मजबूत पक्ष पीछे चला जाएगा.
इसके राजनीतिक पहलू पर अभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है. अमेरिकी जनता का विचार क्या है? अभी कुछ समय तक उसे पता नहीं लगेगा, क्योंकि बाजार में पुराना माल है और कीमतें भी तकरीबन पुरानी हैं, पर छह महीने बाद स्थिति बदल जाएगी.
बहुत सी पसंदीदा चीजें बाजार में नहीं होगी, बहुत सी नई चीजें बाजार में होगी. इसका जनता पर असर क्या होगा, इसका पता अगले साल के मध्यावधि चुनाव में लगेगा. अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव का चुनाव हरेक दो साल में होता है. तब लगेगा ट्रंप की लोकप्रियता का पता.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)
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