बंटवारे का सच और सिनेमा की चुप्पी: पसमांदा मुसलमान अब भी पर्दे से गायब

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 13-08-2025
Desh Ki Azadi: Scenes of Partition in Indian Society and Cinema
Desh Ki Azadi: Scenes of Partition in Indian Society and Cinema

 

अब्दुल्लाह मंसूर

जब 15 अगस्त 1947 की सुबह भारत ने स्वतंत्रता की सांस ली, उसी क्षण उसकी फिज़ाओं में बँटवारे का ज़हर भी घुल गया. यह वह ऐतिहासिक पल था जब जश्न के साथ-साथ कराह, उल्लास के साथ शोक और आज़ादी के साथ विस्थापन ने जन्म लिया.
 
भारत और पाकिस्तान के इस विभाजन ने केवल भौगोलिक सीमाएँ नहीं खींचीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और भावनात्मक धरातलों को भी बेरहमी से चीर दिया. परिवारों के बिखराव, साम्प्रदायिक हिंसा, और विस्थापन की त्रासदी ने जो घाव समाज के शरीर और आत्मा पर किए, उन्हें सबसे अधिक शब्दों और छवियों में साहित्य और सिनेमा ने सहेजा.
 
जहाँ साहित्य ने पीड़ा को लिखने की कोशिश की, वहीं सिनेमा ने उसे दृश्य में ढालकर सामाजिक चेतना में गूंजने वाला बना दिया. सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, समाज की सामूहिक स्मृति का दस्तावेज़ है.
 
इसके माध्यम से न केवल ऐतिहासिक घटनाएँ सामने आती हैं, बल्कि वे सवाल भी उठते हैं जिन्हें समय दबा देना चाहता है. विभाजन के संदर्भ में, जब सिनेमा इस विषय को छूता है, तो वह केवल इतिहास नहीं रचता, वह संवेदना का सार्वजनिक मंच भी बन जाता है. लेकिन यह भी देखने की बात है कि हिंदी सिनेमा में यह संवेदना किसके लिए, किसके ज़रिए और किन सीमाओं तक व्यक्त होती है.
 
बँटवारे के सबसे अधिक शिकार क्षेत्रों में पंजाब प्रमुख था—वहीं क्षेत्र, जिसने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को अनेक गायक, अभिनेता, लेखक और तकनीशियन दिए थे. इस सांस्कृतिक-मानविक पलायन का असर फिल्म उद्योग पर भी पड़ा। नूरजहाँ जैसी गायिका पाकिस्तान चली गईं, तो दिलीप कुमार जैसे अभिनेता भारत में धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक बने रहे.
 
बावजूद इसके, शुरुआती हिंदी फिल्मों में बँटवारे को विषय बनाने से संकोच रहा. 1950 और 60 के दशक की ‘छलिया’ (1960) और ‘धर्मपुत्र’ (1961) जैसी फिल्में बंटवारे को छूती तो हैं, पर सतही ढंग से.
 
इन फिल्मों का मुख्य स्वर साम्प्रदायिक सद्भाव था, न कि विभाजन की भयावहता. इस दौर की फिल्मों में एक विचित्र शांति और सामंजस्य की कल्पना दिखाई गई, जो तत्कालीन यथार्थ से मेल नहीं खाती थी.
 
ऐसा लगता है मानो बंटवारे की पीड़ा को दिखाने की बजाय उसे भूल जाने की कोशिश की गई। यह समझना जरूरी है कि उस समय के फिल्मकार खुद विभाजन के साक्षी थे, फिर भी उन्होंने इस विषय से दूरी बनाए रखी. क्या यह राज्य की नीतियों का प्रभाव था? या फिर वह सिनेमा जो उद्योग के रूप में खुद अस्थिर था, एक संवेदनशील मुद्दे से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पाया ?
 
1961 में चेतन आनंद की ‘हकीकत’ जैसी युद्धकथा भले सीधे बंटवारे पर केंद्रित नहीं थी, पर इसके भावनात्मक स्वर में एक टूटे हुए देश का दर्द मौजूद था./ लेकिन यहाँ भी आम मुसलमान, विशेषकर पसमांदा मुसलमान की उपस्थिति अनुपस्थित रही.
 
वह वर्ग जो बंटवारे की सबसे बड़ी कीमत चुका रहा था—जुलाहा, कसाई, धोबी, मोची, नाई, हलालखोर—उनकी छवि इन फिल्मों में कहीं नहीं दिखती. 1973 में आई ‘गर्म हवा’ ने इस चुप्पी को पहली बार तोड़ा.
 
एम.एस. सथ्यू की यह फिल्म एक मुस्लिम व्यापारी के ज़रिए विभाजन के बाद भारत में बचे मुसलमानों की दुविधा, पीड़ा और असुरक्षा को सामने लाती है। बलराज साहनी की भूमिका गहरी थी, लेकिन एक बार फिर केंद्र में वह ‘शहरी’, ‘मध्यवर्गीय’, ‘क्लासिकल मुसलमान’ था, जिसकी जीवनशैली में संस्कृति, तहज़ीब और उर्दू शायरी थी—न कि जाति, श्रम और पसमांदगी। यह दर्शाता है कि फिल्में बनाते समय जिन मुसलमानों की छवि पर्दे पर लाई जाती है, वह अभी भी एक खास वर्गीय और जातीय पहचान से जुड़ी है.
 
1987 में आई ‘तमस’, जो भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित थी, शायद विभाजन की सबसे राजनीतिक व्याख्या थी. गोविंद निहलानी की यह प्रस्तुति हिंसा और सत्ता की साज़िशों को निर्भीकता से उजागर करती है.
 
इसमें धर्म और राजनीति का गठजोड़ जिस तरह दर्शाया गया, वह आज के संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है. मगर इस फिल्म में भी जिस मुसलमान की तस्वीर उभरती है, वह अब भी एक अमूर्त ‘दूसरा’ है—उसकी जाति, श्रम, जीवन स्थितियाँ अस्पष्ट हैं.
 
1998 में दीपक मेहता की ‘1947: अर्थ’ ने विभाजन को पारसी नज़रिए से दिखाया. ‘पिंजर’ (2003) ने विभाजन की त्रासदी को स्त्री के ज़रिए व्यक्त किया. पूरो और राशिद की कहानी ने प्रेम, बलात्कार, आत्मनिर्भरता और विरोध की उलझी हुई परतों को उकेरा.
 
यह फिल्म एक नया विमर्श खोलती है कि स्त्री अपने लिए निर्णय ले सकती है, वह ‘इज़्ज़त’ नहीं, ‘इंसान’ है. इसी वर्ष ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ ने खुशवंत सिंह की कथा को रूपांतरित किया, लेकिन उपन्यास जितनी गहराई फिल्म में नहीं आ सकी। श्याम बेनेगल की ‘मम्मो’ ने अलग तरह से उस स्त्री का चित्र खींचा, जिसे विभाजन ने दर-ब-दर कर दिया था। वह अपनी जन्मभूमि में भी ‘अवैध’ बन गई थी..
 
2001 में आई ‘गदर: एक प्रेम कथा’ ने विभाजन के दर्द को भुनाने का एक अलग ही तरीका अपनाया. यहाँ प्रेम और पारिवारिक मूल्यों के आवरण में राष्ट्रवाद की पराकाष्ठा थी. तारा सिंह और सकीना की प्रेमकथा के इर्द-गिर्द फिल्म गढ़ी गई, पर प्रस्तुतिकरण में मुस्लिम पात्रों को नकारात्मक, धर्मांध और हिंसक दिखाया गया। यह फिल्म बताती है कि कैसे सामूहिक त्रासदी को भावनात्मक उत्तेजना और सांप्रदायिक राजनीति का औजार बनाया जा सकता है.
 
इतिहास के एक बेहद ज़रूरी तथ्य की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है—1946 का आम चुनाव, जिसे पाकिस्तान निर्माण के संदर्भ में लोकमत संग्रह मान लिया गया. लेकिन उस चुनाव में सिर्फ़ तेरह फ़ीसदी वयस्कों को ही मताधिकार मिला था—वो भी विशिष्ट टैक्स या शिक्षा की शर्तों के साथ.
 
ग़रीब, अशिक्षित, श्रमिक, दस्तकार, और पसमांदा तबकों की आबादी लगभग पूरी तरह वंचित थी. उस वंचना का नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान के पक्ष में खड़ी मुस्लिम लीग ने यह दावा कर लिया कि पूरा मुसलमान समाज उसके साथ है.
 
जबकि हकीकत में मोमिन कॉन्फ्रेंस जैसे संगठन पसमांदा समाज को मुस्लिम लीग की कट्टर, शाही, और अलगाववादी राजनीति से दूर रखने का प्रयास कर रहे थे. उन्होंने रोज़गार, शिक्षा और सामाजिक बराबरी के मुद्दों को आगे रखा। पसमांदा आंदोलन ने न केवल मुस्लिम समाज में व्याप्त जात-पात को उजागर किया, बल्कि धार्मिक वर्चस्व की राजनीति के विरुद्ध एक निचले तबके की राजनीतिक चेतना को भी जन्म दिया.
 
2004 में यश चोपड़ा की ‘वीर-ज़ारा’ एक अलग स्वर लिए सामने आई। यहाँ सरहदों से बड़ा प्रेम दिखाया गया, जिसमें ज़ारा और वीर की मोहब्बत दोनों मुल्कों के बीच एक सेतु बनती है.
 
यह फिल्म राजनीतिक से अधिक भावनात्मक थी, और बताती है कि मनुष्यता सीमा से बड़ी होती है. ‘हे राम!’ (2000) में कमल हासन ने एक आत्मनिरीक्षण की कथा कही. फिल्म में नायक पहले सांप्रदायिक उन्माद में फँसता है, लेकिन अंत में गांधी से प्रेरित होकर आत्म परिवर्तन का रास्ता चुनता है. यह फिल्म इस मायने में खास है कि यह हिंसा के भीतर से उभरती संवेदना की खोज है.
 
बंटवारे पर बनी फिल्मों में सबसे सशक्त वे फिल्में रहीं, जो साहित्यिक स्रोतों पर आधारित थीं—जैसे मंटो की कहानियाँ. ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘टोबा टेक सिंह’ जैसे कथानकों में वेश्या, कसाई, नाई, पल्लेदार जैसे पात्र मिलते हैं—वही लोग जो पसमांदा तबकों से आते हैं.
 
नंदिता दास की ‘मंटो’ (2015) ने इन कहानियों को दृश्य में बदलने की कोशिश की, लेकिन सामाजिक वर्ग की गहराई कभी-कभी सतह पर ही रह गई. 2007 की ‘खामोश पानी’ एक पाकिस्तानी फिल्म है जो भारतीय दर्शकों के लिए भी महत्वपूर्ण बन गई। यह एक सिख स्त्री की कहानी कहती है, जो बंटवारे में मुसलमान बन जाती है.
 
यह धार्मिक पहचान और व्यक्तिगत स्मृति के बीच के टकराव की कहानी है. लेकिन यहाँ भी जातीय पहचान का पहलू कहीं नहीं है.‘भाग मिल्खा भाग’ (2013) और ‘गोल्ड’ (2017) जैसी फिल्में विभाजन की त्रासदी को केवल एक ‘मॉंटाज’ की तरह इस्तेमाल करती हैं.
 
दोनों में राष्ट्र निर्माण की भावना प्रमुख है, बंटवारे की जटिलता नहीं। हाल की वेब सिरीज़ ‘ताज’ और ‘तांडव’ में सांप्रदायिकता और पहचान की राजनीति के संकेत जरूर मिलते हैं, लेकिन पसमांदा दृष्टिकोण से वे अभी भी दूर हैं.
 
समग्रतः देखें तो बंटवारे पर बनी हिंदी फिल्मों में  मुसलमान या तो पीड़ित के रूप में दिखाई देता है, या खलनायक के रूप में. लेकिन मुसलमानों का वह बहुसंख्यक हिस्सा—पसमांदा—जो जातीय, आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे अधिक पीड़ित था, लगभग अदृश्य रहा है. न तो उसे पाकिस्तान ने अपनाया, न भारत ने गले लगाया, और न ही फिल्मों ने उसकी कहानियों को स्थान दिया.
 
वास्तविकता यह है कि बंटवारे के दौरान सबसे अधिक विस्थापन, बलात्कार, हिंसा और भुखमरी उन लोगों ने झेली, जो पहले से ही समाज के निचले पायदान पर थे. लेकिन जब सिनेमा उनकी आवाज़ नहीं सुनता, तो वह केवल आंशिक सच को दिखाता है.
 
यदि भारतीय सिनेमा वास्तव में एक समावेशी ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनना चाहता है, तो उसे उन तबकों की कहानी भी सुनानी होगी जिन्हें अब तक ‘चुप्पी’ में रखा गया. विभाजन का यथार्थ तभी पूरा होगा जब उसमें सबकी पीड़ा हो—खासतौर पर उस ‘गुमनाम मुसलमान’ की जो सिलाई करता था, मांस काटता था, बाल बनाता था, चप्पल सिलता था और मर्दुमशुमारी में केवल एक संख्या रह गया.
 
विभाजन पर हिंदी सिनेमा की कोशिशें अनेक रही हैं—कुछ संवेदनशील, कुछ सतही, कुछ ईमानदार और कुछ प्रचारपरक. लेकिन सिनेमा की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि वह समाज को केवल वह नहीं दिखाए जो ‘बेच सकता है’, बल्कि वह भी दिखाए जो ‘सच’ है.
 
क्योंकि इतिहास केवल तटस्थ दस्तावेज़ नहीं, बल्कि चेतावनी भी होता है.अगर सिनेमा को समाज की आत्मा की आवाज़ बनना है, तो उसे उन आवाज़ों को भी मंच देना होगा जो अब तक अंधेरे में थीं। नहीं तो हमारे दृश्य कथानक अधूरे रहेंगे—और हमारा समाज, विभाजन के बाद भी, भीतर से बंटा ही रहेगा..
 
(लेखक पसमांदा चिंतक हैं)