EXCLUSIVE INTERVIEW : ‘नेमतखाना’ के लेखक प्रो. खालिद जावेद ने क्यों कहा बच्चों को उर्दू पढ़ाना जरूरी ?

Story by  मोहम्मद अकरम | Published by  [email protected] | Date 20-02-2023
‘नेमतखाना’ के लेखक प्रो. खालिद जावेद ने क्यों कहा बच्चों को उर्दू पढ़ाना जरूरी है ?
‘नेमतखाना’ के लेखक प्रो. खालिद जावेद ने क्यों कहा बच्चों को उर्दू पढ़ाना जरूरी है ?

 

मोहम्मद अकरम /  नई दिल्ली

उर्दू साहित्य में कई बड़े ऐसे विद्वानों के नाम हैं जिनके उपन्यास की दुनिया ने लोहा माना हैं, मौजूदा समय में उर्दू साहित्य का विभिन्न भाषा में अनुवाद करके बड़े स्तर पर लोग पढ़ रहे हैं. बीते दिनों जामिया मिल्लिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के शिक्षक प्रो. खालिद जावेद की उपन्यास ‘नेमतखाना’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘द पैराडाइस ऑफ फूड’ जेसीबी अवॉर्ड फॉर लिटरेचर-2022से सम्मानित किया गया हैं, जिसके बाद उर्दू उपन्यास पर पूरी दुनिया की नज़र हैं.

प्रो. खालिद जावेद ने इस उपन्यास को उर्दू भाषा में साल 2014 में लिखा जिसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद प्रो. बारा फारूकी ने किया है. ऐसे में उर्दू उपन्यास, उर्दू भाषा के विकास और भविष्य को लेकर प्रो. खालिद जावेद क्या सोचते हैं इस बारे में आवाज द वाइस ने उन से विशेष बातचीत की है.

किताब की विशेषता क्या है?
 
इस सवाल के जवाब प्रो. खालिद जावेद कहते हैं कि इसके बारे में मैं नहीं कह सकता हूं लेकिन जो अवार्ड के लिए फैसला करने वाले लोग थे उसमें बड़े बड़े लेखक थे. उन्होंने जो किताब के बारे में लिखा है कि इस लिखने का स्टाइल बहुति ही अनोखा हैं. इस किताब में खाने, किचन के बारे में लिखा गया है. आमतौर पर हम खाने की चीजों को बहुत ही पवित्र समझते हैं जिसका ताल्लुक हमारी जिंदगी से हैं लेकिन मैंने इसका दूसरे यानी नकारात्मक पहलू को सामने लाया हैं, ये लड़ाईयों की जगह है. विशेष कर भारत में जिसके कारण घरों का बंटवारा होता है, जहां औरतों के बीच में खाना बनाने को लेकर झगड़े होते रहते हैं. उस पर किताब आधारित हैं.

वह आगे बताते हैं कि “मैंने सोचा कि घर में ही एक मैदान ए जंग है तो इस को हमने दुनिया में चलने वाली जंग से तअल्लुक कायम किया. दुनिया में जमीन के एक टुकड़े के लिए एकि देश दूसरे देश से लड़ता है, घरों में लड़ाई होती है जिसको हम बावर्ची खाना या किचन कहते हैं. ये अवॉर्ड मेरा नहीं, पूरी उर्दू दुनिया का अवार्ड है मैं तो सिर्फ लिखने वाला हूं.

उर्दू भाषा दूसरे भाषा के लोगों तक कैसे पहुंच रही हैं?
 
जाहिर हैं, कि उर्दू की कोई चीज अच्छी होगी तो नोटिस में लिया जाएगा लेकिन ये जरुरी हैं कि बड़े पैमाने पर फैालने के लिए, चूंकि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है तो उर्दू वालों को उर्दू तक सीमित रहेंगे तो ये छोटी दुनिया हैं इसका अनुवाद होना चाहिए. उसके बाद देखा जाएगा कि आपकी जो चीज है,
 
दुनिया के अच्छे लेखक के मुकाबले में आप कहां है. उर्दू वालों को मशवरा देते हुए प्रो. खालिद जावेद करते हैं कि अगर आप उर्दू के हद तक महदूद (सीमित) रहेंगे तो Self Satisfied (आत्म संतुष्ट, खुद पसंद) रह जाएगा. इससे उर्दू का भला नहीं होगा.

मौजूदा समय में उर्दू भाषा को आप कैसे देखते हैं?

इस भाषा में बड़ी संख्या में किताबें प्रकाशित हो रही हैं, शायरी की किताबें बहुत छप रही है. वह आगे कहते हैं कि शायरी में रोमन में किताबें छपी हो लेकिन उपन्यास और Fiction में रोमन किसी लेखक की किताब छपी हुई मैंने नहीं देखी है. अगर छपेगी तो लोग उसे पसंद नहीं करेंगे. उर्दू सबसे अच्छी जुबान हैं, सबसे अच्छी बात ये हैं इसका माज़ी (भूतकाल) बहुत सुनहरी रहा है. जाहिर सी बात हैं कि जिस जुबान के अंदर मंटू, बेदी, क़ुअतुल ऐन हैदर , इंतजार हुसैन, ग़ालिब, अख्तरुल इमान, अहमद मुश्ताक हो तो उस जुबान की पहुंच है.

ज़बान पहले पैदा होती हैं और अदब बाद में

जबान से कुछ नहीं होता बल्कि ये देखा जाता हैं कि जबान में अदब (साहित्य) कैसा लिखा जा रहा है, इसलिए ज़बान अलग चीज होती है और अदब अलग चीज. ज़बान पहले पैदा होती हैं और अदब बाद में पैदा होता है.

अच्छे योग्यता वाले उर्दू में आने की ज़रुरत

हम ये भी देखते हैं कि लोग उर्दू में सिर्फ इसलिए आ रहे हैं कि उनका दूसरी जगह दाखिला नहीं हुआ है. उर्दू में वह लोग पास हो जाते हैं, तो जो अच्छा ब्रेन होता है वह सोशल साइंस में निकल जाता है या मैनेजमेंट में चला जाता है.

ऐसे में जरुरत इस बात है कि ऐसी सलाहियतों (योग्यता) को पहचाना जाएं और वह लोग उर्दू में आएं. वह आगे अफसोस करते हुए कहते हैं कि “इस तरह के लोग उर्दू में आने कम हो गए हैं. जबान अच्छा चल रहा है लोग सीख रहे हैं लेकिन उसमें कैसा अदब तखलीक करेंगे ये उसकी ज़हानत पर निर्भर होगा, उस तखलिक़़ी ज़हानत का मैं आज की पीढ़ी में कुछ कमी पा रहा हूं.

कैसे उर्दू को जिंदा रख सकते हैं?

जिंदगी की हकीकतें अलग होती हैं ज़ज्बाती बातें अलग होती है. इस समय बच्चे जिस तरह की तालीम हासिल कर रह हैं वह इसलिए हासिल कर रहा हैं कि उसमें उसका करियर बने, ऐसे में उर्दू वालों को चाहिए कि लोग अपने बच्चों को घर पर ऐसी तालीम दें जैसे कि मज़हबी तालीम (धार्मिक शिक्षा) देते हैं. बच्चों को घर पर उर्दू पढ़ना जरूरी करार देना चाहिए, उसके बाद कोई भी भाषा पढ़ें. ये उनकी मर्जी हैं लेकिन उर्दू पढ़ना, लिखना और बोलना आना चाहिए. ये काम करके हम उर्दू को जिंदा रख सकते हैं.

 

जिस समय आपको अवार्ड दिया जा रहा था कैसे महसूस हुआ?

इस प्रश्न के उत्तर में प्रो. खालिद जावेद कहते हैं कि जिस समय अवॉर्ड का ऐलान हुआ  उस समय बहुत अच्छा लगा, शुरू में लगा कि नाकाबिल ए यकीन है, इसलिए कि ये गुप्त रखा गया था. वक्त लंदन से इसका ऐलान हुआ था तो कुछ देर के लिए लगा कि ये अवॉर्ड मुझे नहीं किसी और को मिला है.

इस कामयाबी के पीछे किसका हाथ है? देखिए जो लेखक होता है वह अकेला होता है, तखलीक कार (रचनात्मक कार्य करने वाला) होता है वह बिलकुल अकेला होता है. मेरे राईटिंग के पीछे मेरा हाथ है. मुझे लगता हैं कि तखलिक़ी काम हमेशा अकेला होता हैं उसमें किसी का सहारा नहीं होता है. उर्दू ने हमें सहारा दिया जिसमें मैं अपनी रचनात्मक कार्यों का इजहार कर सका.

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छात्रों को खूब पढ़ने का पैग़ाम

एक शिक्षक के तौर पर आप उर्दू के छात्रों को क्या पैगाम देंगे?  इस बारे में प्रो. खालिद जावेद ने जोर देते हुए कहा कि अगर किसी छात्र में रचनात्मक योग्यता हो तो वह उसे बेकार नहीं होने दें. छात्रों के अंदर अगर थोड़ा भी Fiction लिखने का शौक हो तो हिचकिचाए नहीं और लगातार लिखें सिर्फ और अभी प्रकाशित कराने में नहीं लगे. खूब प्रैक्टिस करें और उससे ज्यादा साहित्यिक किताबों को पढ़ें. पढ़ना, लिखने से ज्यादा जरुरी है और छात्रों को सिर्फ कोर्स नहीं पढ़ना चाहिए बल्कि उसके बाहर की जो दुनिया है उस पर भी ध्यान देनी चाहिए.