डॉ. रेशमा रहमान
असम, भारत का एक ऐसा राज्य है जहां विविधता अपने चरम पर है.2011की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल 3.12करोड़ आबादी में से 1.07करोड़ यानी लगभग 34.22% मुसलमान हैं.हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने वक़्फ़ बिल को लेकर दिए एक बयान में दावा किया कि राज्य में मुस्लिम आबादी अब 40%तक पहुंच चुकी है, जो कि एक अनुमानित नवीनतम आंकड़ा हो सकता है.प्रतिशत के हिसाब से देखें तो असम मुस्लिम जनसंख्या में देशभर में तीसरे स्थान पर है.
पहले स्थान पर लक्षद्वीप और दूसरे पर जम्मू-कश्मीर आते हैं.संख्या के आधार पर उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, केरल और झारखंड में मुसलमानों की तादाद अधिक है.इन राज्यों के मुसलमान अपनी संस्कृति, परंपराएं और धार्मिक नियमों का पालन करते हैं.
हालांकि इन क्षेत्रों में सामाजिक और भाषायी विविधता देखने को मिलती है, लेकिन एक बात जो कई जगह समान रूप से देखने को मिलती है वह है – कजिन मैरिज यानी चचेरे, ममेरे, फुफेरे या खलेरे भाई-बहन से विवाह.ऐसा इसलिए क्योंकि इस्लाम में इसकी अनुमति है.हालांकि जरूरी नहीं कि यह हर मुस्लिम समुदाय में होता हो.यह एक विकल्प है. कोई अनिवार्यता नहीं.
भारत में कजिन मैरिज केवल मुसलमानों में नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के हिंदू समुदायों में भी काफ़ी प्रचलित है.एक रिपोर्ट के अनुसार साउथ इंडिया के हिंदुओं में 30%से अधिक कजिन मैरिज होती हैं (Human Population Genetics).
1991-92 के आंकड़ों के अनुसार भारत में सबसे ज़्यादा सगोत्र विवाह मुसलमानों (31%) में हुए. इसके बाद बौद्ध (22%), फिर हिंदू और ईसाई (लगभग 14%).जैन और सिख समुदायों में क्रमशः 6%और 2%ही सगोत्र विवाह पाए गए (inflibnet.ac.in).लेकिन जब हम भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से की बात करते हैं तो यहां की तस्वीर बिल्कुल अलग है.
क्या उत्तर-पूर्व के मुसलमानों में होती है कजिन मैरिज?
उत्तर-पूर्व भारत के मुस्लिम समुदायों में कजिन मैरिज की कोई परंपरा नहीं है.यहां न केवल चचेरे-ममेरे बल्कि दूर के रिश्तेदारों से भी विवाह नहीं किया जाता.इस परंपरा को यहां सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता, बल्कि इसे तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है.
यहां विवाह अधिकतर अपने समुदाय या जनजाति में ही होते हैं, लेकिन रक्त संबंध से पूर्णतः अलग व्यक्ति से ही.यह नियम असमिया मुस्लिम संस्कृति का मूल हिस्सा है.केवल वे मुस्लिम परिवार जो असम में अन्य राज्यों से विस्थापित होकर आए हैं .
जैसे बंगाली भाषी मुसलमान, बिहार या उत्तर प्रदेश से आए मुस्लिम प्रवासी – वे अपने साथ अपने रीति-रिवाज और परंपराएं लेकर आए हैं, जिनमें कजिन मैरिज शामिल हो सकती है.लेकिन यहां की सांस्कृतिक हवा में घुलते-घुलते यह परंपरा भी काफी कम हो गई है.
"स्वदेशी" असमिया मुसलमान और उनके विवाह नियम
2020 में असम सरकार ने पांच मुस्लिम उप-समूहों – गोरिया, मोरिया, जुलाहा, देशी और सैयद – को "स्वदेशी" असमिया मुसलमान के रूप में मान्यता दी.ये सभी केवल असमी भाषा बोलते हैं और पूरी तरह से असमिया संस्कृति को अपनाते हैं.
ये लोग मिश्रित सांस्कृतिक तत्वों को स्वीकार नहीं करते, बल्कि खालिस असमिया परंपराओं को प्राथमिकता देते हैं.इन समुदायों में रक्त संबंधियों से विवाह करना न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि विवाह तय करने से पहले विशेष रूप से यह देखा जाता है कि लड़का-लड़की के बीच कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पारिवारिक रिश्ता न हो.
यह नियम न केवल असम में बल्कि मेघालय जैसे राज्यों के खासी मुस्लिम जनजातियों में भी लागू होता है.यहां मुस्लिम महिलाएं पारंपरिक अबाया या हिजाब की जगह असमिया परिधान 'मैखला चादर' पहनती हैं और बिहू जैसे सांस्कृतिक पर्वों में पूरे जोश से हिस्सा लेती हैं.असमिया मुस्लिम और हिंदू महिलाओं को उनके परिधान के आधार पर अलग पहचानना बेहद मुश्किल हो जाता है.
असमिया मुसलमानों में विवाह कैसे होते हैं?
यहां विवाह की प्रक्रिया और नियम देश के अन्य हिस्सों से थोड़ा अलग हैं.असमिया मुस्लिम महिलाएं सशक्त हैं.अपने इस्लामिक अधिकारों को भली-भांति समझती हैं.विवाह से पहले ‘मेहर’ की तय राशि पर चर्चा होती है जो लड़के की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देखकर तय की जाती है.दहेज जैसी कोई प्रथा यहां नहीं है.परिवार कुछ ज़रूरी चीजें उपहार के रूप में देते हैं, लेकिन दहेज का कोई बोझ नहीं होता.
विवाह के प्रमुख रिवाज़
ब्राइड हेयर-ऑयलिंग – पांच कुंवारी लड़कियां दुल्हन के बालों में तेल लगाकर उसे सोने की अंगूठी से तीन बार छूती हैं.
मसूर दाल की हल्दी रस्म – उड़द की दाल, हल्दी और गुलाब जल मिलाकर दुल्हन को लगाया जाता है, फिर उसे गमछे से साफ किया जाता है.
मिलाद – निकाह से पहले दुआ होती है और पारंपरिक असमिया दावत चलती है.
जूरोन – लड़के वालों की ओर से दुल्हन के लिए गहने, मैखला चादर, मेकअप किट, पान, दो बड़ी मछलियां आदि भेजी जाती हैं.
निकाह और बारात – दुल्हन पारंपरिक पोशाक और आभूषणों में होती है, जबकि दूल्हा सिल्क कुर्ता, सदरी और गमछा पहनता है.
आठ मंगोला – शादी के 8वें दिन दूल्हा दुल्हन को मायके से लाता है और उसे विशेष 8व्यंजन परोसे जाते हैं.
इस्लाम में कजिन मैरिज का क्या स्थान?
इस्लाम में कजिन मैरिज को हराम नहीं कहा गया है, लेकिन यह फर्ज़ भी नहीं है.यह एक विकल्प है – आप चाहें तो करें, चाहें तो नहीं करें.क़ुरान में स्पष्ट किया गया है कि किनसे निकाह कर सकते हैं और किनसे नहीं.जैसे दहेज इस्लाम में वर्जित है.लेकिन भारतीय समाज ने इसे अपनी आदत बना लिया है. उसी तरह कुछ समुदायों ने कजिन मैरिज को एक परंपरा की तरह अपना लिया है.
डॉ. मुज़्ज़मिल सिद्दीकी (पूर्व अध्यक्ष, इस्लामिक सोसायटी ऑफ नॉर्थ अमेरिका) के अनुसार, कजिन मैरिज भारत, पाकिस्तान, मध्य पूर्व और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में आम है, लेकिन तुर्की और यूरोपीय देशों में इसका चलन नहीं के बराबर है.
वह बताते हैं कि पैग़म्बर मुहम्मद ने भी अपनी दो पत्नियों और एक बेटी का निकाह रिश्तेदारों से किया था.यह विवाह सामाजिक सुरक्षा, संबंधों को मजबूत करने और समुदाय को एकजुट रखने के नजरिए से होता है.
मीडिया और गलतफहमियाँ
भारतीय मीडिया ने अक्सर मुसलमानों के बारे में कजिन मैरिज को लेकर गलत धारणाएं वाला नैरेटिव तैयार किया है.सोशल मीडिया पर ऐसी टिप्पणियां आम हैं जो मुस्लिम समुदाय को नीचा दिखाने के उद्देश्य से फैलाई जाती हैं.लेकिन हकीकत यह है कि भारत जैसे विविधता भरे देश में हर समुदाय और क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक परंपराएं होती हैं.
जैसे साउथ इंडिया के हिंदू समाज में कजिन मैरिज आम है,लेकिन नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखी जाती. वैसे ही उत्तर-पूर्व के मुस्लिम समुदाय में यह प्रथा मौजूद ही नहीं है.यह बात मीडिया में कभी उजागर नहीं की गई.
हर क्षेत्र और समुदाय की अपनी संस्कृति होती है.एक क्षेत्र के रिवाज को पूरे समुदाय पर लागू कर देना न केवल अनुचित है, बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देता है.उत्तर-पूर्व भारत विशेषकर असम में मुस्लिम समुदायों की शादी की परंपराएं यह दर्शाती हैं कि हर मुसलमान कजिन से शादी करता है – यह धारणा पूरी तरह गलत और भ्रामक है.
(लेखिका: डॉ. रेशमा रहमान, सहायक प्रोफेसर व शोधकर्ता, USTM)