कर्बला का पैग़ाम

Story by  फिरदौस खान | Published by  [email protected] | Date 06-07-2025
The message of Karbala
The message of Karbala

 

-फ़िरदौस ख़ान
 
कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत ये पैग़ाम देती है कि इंसान को हमेशा हक़ के रास्ते पर ही चलना चाहिए, चाहे इस रास्ते पर कितनी ही मुसीबतें क्यों न आएं. दरहक़ीक़त इस्लाम का पैग़ाम मार्क-ए कर्बला में ही पोशीदा है. कर्बला के वाक़िये ने ये साबित कर दिया कि कौन हक़ पर है और कौन अपने फ़ायदे के लिए हक़ पर होने का पाखंड कर रहा है. कर्बला का वाक़िया दीन-ए-इस्लाम की हिफ़ाज़त का सितून साबित हुआ. अगर इस्लाम को समझना है, तो मार्क-ए-कर्बला को गहराई से जानना होगा.
 
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कर्बला को जाने बिना इस्लाम को समझना मुमकिन ही नहीं है. इस वाक़िये ने क़यामत तक के लिए हक़ और बातिल के दरम्यान एक ऐसी लकीर खींच दी, जिससे पता चलता है कि कौन हिदायत पर है और कौन गुमराह है. इस वाक़िये ने इस्लाम और अहले-बैत के दुश्मनों को मैदाने-कर्बला में बेनक़ाब कर दिया. अफ़सोस की बात ये है कि इस्लाम और अहले-बैत के दुश्मन आज भी हैं. 
 
हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया- “जो हम पर होने वाले ज़ुल्म से बेख़बर हैं, हमारे हक़ूक़ छिनने से ग़ाफ़िल हैं और जो हमारे साथ होने वाली बदसलूकी से बेख़बर हैं, यक़ीनन उम्मत के वो लोग ज़ालिमों में से हैं.   
 
क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है- “हर जानदार को मौत का ज़ायक़ा चखना है.”यानी हर जानदार को एक दिन मौत आनी है.तारीख़ ने लिखा है कि जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मुहर्रम का चाँद देखा, तो उनकी ज़बान से यही अल्फ़ाज़ निकले- “इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन”यानी हम अल्लाह के हैं और उसी की तरफ़ लौटने वाले हैं.
 
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया- “हक़ की राह में मरना कितना आसान और आरामदेह है. और इज़्ज़त की मौत हक़ीक़ी ज़िन्दगी है और ज़िल्लत की ज़िन्दगी बदतरीन मौत का पेश ख़ेमा है.” 
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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की वसीयत 

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत हमें ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की तरग़ीब देती है. आपकी वसीयत हमें बेहतर ज़िन्दगी जीने की सीख देती है. एक ऐसी ज़िन्दगी, जिसका ज़िक्र क़ुरआन करीम में बार-बार किया गया है यानी नेकी के रास्ते पर चलकर गुज़ारी जाने वाली ज़िन्दगी.   अबू जाफ़र मुहम्मद बिन जरीर अत्तबरी की किताब ‘तारीख़-ए-तबरी’ समेत कई तारीख़ी किताबों में इस वसीयत का ज़िक्र मिलता है.
 
जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीने से मक्का जाने का इरादा किया, तो आपने एक वसीयत लिखी और अपनी अंगूठी से उस पर मोहर लगाई. फिर उसे अपने भाई मुहम्मद बिन हनफ़िया को सौंप दिया. इस वसीयत में आपने लिखा है-“ये वह वसीयत है, जिसे हुसैन इब्ने अली अपने भाई मुहम्मद के नाम कर रहे हैं, जो इब्ने हनफ़िया के नाम से मशहूर हैं.
 
बेशक हुसैन बिन अली गवाही देते हैं कि अल्लाह के सिवा कोई और माबूद नहीं है. वह अकेला है, जिसका कोई शरीक नहीं है. और बेशक हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उसके बन्दे और रसूल हैं. जो सच के साथ हक़ की तरफ़ से आए हैं. और बेशक जन्नत और दोज़ख़ हक़ है. और क़यामत आने वाली है और इसमें कोई शक नहीं है. और ये कि जो क़ब्रों में हैं, अल्लाह उन सबको दोबारा उठाएगा.
 
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मैं न ख़राबी और फ़साद फैलाने निकला हूं और न ज़ुल्म करने के लिए निकला हूं, बल्कि मैं अपने नाना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्मत की इस्लाह के लिए निकला हूं. मैं अच्छे कामों की तरग़ीब देना चाहता हूं और बुराई से रोकना चाहता हूं. और मैं अपने नाना सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और अपने वालिद हज़रत अली इब्ने अबू तालिब अलैहिस्सलाम की सुन्नत और सीरत पर चलना चाहता हूं. 
 
जिसने मुझे हक़ के साथ क़ुबूल किया, तो अल्लाह हक़ का ज़्यादा हक़दार है. और जो कोई मेरी तरफ़ से इसे रद्द करेगा, तो मैं सब्र करूंगा, यहां तक कि अल्लाह मेरे और लोगों के दरम्यान हक़ के साथ फ़ैसला कर दे. और वह बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है.
 
और ये मेरी वसीयत है मेरे भाई! मेरी तौफ़ीक़ सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ से है. मैं उसी पर भरोसा करता हूं और उसी की तरफ़ रुजू करता हूं. सलाम हो तुम पर और हिदायत की पैरवी करने वालों पर. और अल्लाह के सिवा कोई ताक़त नहीं है, जो बड़ा अज़ीम है.”
           
बेशक हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने नाना हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दीन की हिफ़ाज़त करना चाहते थे. वे आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की उम्मत में इस्लाह करना चाहते थे. वे लोगों को बुराई से रोककर हक़ के रास्ते पर चलने की दावत देना चाहते थे. 
 
हालांकि यज़ीद हक़ पर होने का दावा कर रहा था और आलिमों का एक बड़ा गिरोह भी उसके साथ हो गया था. उसने जुआ, शराब और ब्याज़ जैसी तमाम बुराइयों को आम कर दिया. हालांकि इस्लाम में ये सब हराम है.
 
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वह अवाम पर बहुत ज़ुल्म कर रहा था. हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने उसके ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. यज़ीद ने उन पर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन उन्होंने इससे साफ़ इनकार कर दिया. इससे क्रोधित होकर उसने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को क़त्ल करने का फ़रमान जारी कर दिया. 
 
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से अपने घरवालों, अपने जांनिसार साथियों के साथ कूफ़ा के लिए रवाना हो गए, जिसमें उनके ख़ानदान के 123 सदस्य शामिल थे. यज़ीद की फ़ौज ने उन्हें कर्बला के मैदान में ही रोक लिया और उन पर यज़ीद की बात मानने के लिए दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने यज़ीद की अधीनता क़ुबूल करने से साफ़ मना कर दिया.
 
इस पर यज़ीद ने दरिया-ए-फ़ुरात पर पहरा लगवा दिया और उनके पानी लेने पर सख़्ती से रोक लगा दी गई. तीन दिन गुज़र जाने के बाद जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ानदान के बच्चे प्यास से तड़पने लगे, तो उन्होंने यज़ीद की फ़ौज से पानी मांगा.
 
फ़ौज ने पानी देने से यह सोचकर मना कर दिया कि बच्चों की भूख-प्यास देखकर वे उनकी बात मान जाएंगे. जब उन्होंने यज़ीद की बात नहीं मानी, तो फ़ौज ने उनके ख़ेमों पर हमला कर दिया. इस हमले में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम समेत उनके ख़ानदान के 72 लोग शहीद हो गए.
 
इसमें छह महीने से लेकर तेरह साल तक के बच्चे भी शामिल थे. दुश्मनों ने छह महीने के मासूम अली असग़र के गले पर तीन नोक वाला तीर मारकर उन्हें भी शहीद कर दिया. उन्होंने सात साल आठ महीने के औन और मुहम्मद यानी आपकी बहन के बेटों के सिर पर तलवार से वार कर उन्हें भी शहीद कर दिया. उन्होंने तेरह साल के हज़रत क़ासिम को घोड़ों की टापों से कुचल कर शहीद कर दिया. हालत ये थी कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की औलादों को पानी और कफ़न तक नहीं मिला. 
 
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हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कर्बला में अपनी और अपने ख़ानदान की क़ुर्बानी देकर अल्लाह के उस दीन को ज़िन्दा रखा, जिसे उनके नाना सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम लेकर आए थे. 
मिट्टी में मिल गए हैं इरादे यज़ीद के
लहरा रहा है आज भी परचम हुसैन का...

डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी के अल्फ़ाज़ में- 

मंश-ए किब्रिया, जाने ख़ैरुलवरा, मक़्सदे-दीनो दुन्या, ये क्या कर दिया
तुमने दीने ख़ुदा की, बक़ा के लिए, सारे कुन्बे को नज़्रे-क़ज़ा कर दिया 

जो अदू-ए हुसैनो, हसन फ़ातिमा, वह अदू-ए अली, मुस्तफ़ाओ ख़ुदा 
बा ख़ुदा यह, अहादीसो-क़ुरआन ने, साफ़ ऐलाने-रब्बुलउला कर दिया

शर को सर दे दिया, सिर्रे हक़ ना दिया, शर को क़ुरबानियां दे के, सर कर लिया 
बंदगी ने तड़प कर कहा मरहबा, तुमने हक़ बंदगी का, अदा कर दिया 

हौसले को नया हौसला बख़्श के, दौरे मुश्किल में भी, इब्ने मुश्किल कुशा 
आपने तीरो-तलवार के सामने, नन्हा मासूम प्यासा गला कर दिया 

साया गुम दोपहर आतशी धूप में, दे दिया नेजे़ के सर को सर आपने 
हम गुनहगारों के वास्ते हश्र की, तश्नगी-ओ-तपिश की रिदा कर दिया 

रूठते जा रहे मेरे अपने सभी, भूलकर भी न मांगूंगी पानी कभी 
उट्ठो प्यारे चचा माफ़ कर दो ख़ता, प्यास ने तुमको मुझसे जुदा कर दिया 

शाह रग दोनों में कटनी थी एक की, शाह के दीन या दीन के शाह की 
इसलिए ख़ातिरे दीं ‘बहार’ आपने, तिफ़्लो -पीरो जवां को, अता कर दिया

 (लेखिका आलिमा हैं और इन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)