हरजिंदर
स्वतंत्रता दिवस पर जब देश के प्रधानमंत्री लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हैं तो इस संबोधन का अंत जिस शब्द से होता है वह हमेशा ही होता है ‘जय हिंद‘. आजादी से बाद से लगातार यही होता रहा है. भारत की आजादी से पहले सुभाष चंद्र बोस का यह प्रिय नारा था. उस समय कांग्रेस के अधिवेशनों में भी इसका ही इस्तेमाल होता था. खासकर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को तो यह बहुत ही प्रिय था. लेकिन अक्सर हम नहीं सोचते कि इस नारे को गढ़ा किसने था ?
यह नारा दिया था आबिद हुसैन सैफरानी ने. हैदराबाद के रहने वाले आबिद हुसैन बचपन से ही पढ़ाई लिखाई में काफी तेज थे. उनमें भविष्य की काफी संभावनएं देखी जा रही थीं. इसलिए उन्हें आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाईं के लिए जर्मनी भेज दिया गया.
जर्मनी उस समय उन क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था जो भारत को किसी भी तरह से आजाद कराना चाहते थे. आबिद हुसैन का उन सबसे संपर्क बन गया.उस समय भारत के क्रांतिकारियों का प्रिय रंग केसरिया था.
आबिद हुसैन ने इसी रंग से प्रभावित होकर अपने नाम के आगे सैफरानी जोड़ लिया.सुभाष चंद्र बोस जब जर्मनी पहंचे तो वे सैफरानी से काफी प्रभावित हुए. उन्हें अपना सेक्रेटरी और अनुवादक बना लिया.
आजाद हिंद फौज तब तक बन चुकी थी. यह तय हो रहा था कि इस फौज का नारा क्या बनाया जाए. इस फौज के एक जनरल ठाकुर यशवंत सिंह का सुझाव था कि यह नारा होना चाहिए- हिंदुस्तान की जय. सुभाष चंद्र बोस इसके लिए राजी भी हो गए थे.
उधर, सैफरानी को इस नारे की भावना बहुत अच्छी लग रही थी. लेकिन उन्हें यह भी लग रहा था कि यह थोड़ा बड़ा है. सैफरानी कोई दूसरा नारा तलाशने में जुट गए. इसी तलाश का नतीजा था ‘जय हिंद‘. यह नारा सभी को पसंद आया. तुरंत स्वीकार भी कर लिया गया.
यह सैफरानी ही थे जो बाद में बोस को जर्मनी की यू-बोट में जर्मनी से लेकर दक्षिण एशिया आए. तब तक आजाद हिंद सेना में उन्हें मेजर का पद मिल चुका था.
यहां एक दिलचस्प बात यह है कि जब सैफरानी बोस के साथ पूरी तरह सक्रिय थे. दुनिया के कईं दूसरे हिस्सों में घूम रहे थे. यहां भारत में उनके भाई बदरुल हसन आजादी की एक दूसरी लड़ाई में शामिल थे. वे महात्मा गांधी के सहयोगी थे.
आजादी के बाद सैफरानी कांग्रेस में शामिल हुए. नेहरू के दिमाग में उन्हें लेकर कुछ और ही योजना थी. नेहरू उनकी प्रतिभाओं को पहचानते थे. नेहरू ने उन्हें विदेश सेवा में शामिल कर लिया. इसके बाद उन्हें पहले इजिप्ट और फिर डेनमार्क का राजदूत बनाया गया. 1969 में जब वे रिटायर हुए तो फिर वापस हैदराबाद में बस गए. 1984 में वहीं उनका निधन हो गया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)