भाग-एक: द्विराष्ट्र सिद्धांत और पसमांदा प्रतिरोध

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 18-08-2024
Part-I: Two-Nation Theory and Pasmanda Resistance
Part-I: Two-Nation Theory and Pasmanda Resistance

 

faiziडा . फैयाज अहमद फैजी

द्विराष्ट्र सिद्धांत अर्थात मुसलमान स्वयं में एक अलग राष्ट्र हैं .उसकी सभ्यता संस्कृति भारत के अन्य धर्म के मानने वालों से बिल्कुल अलग  है. इस विचार को सर सैयद, अल्लामा इकबाल, मौलाना अशरफ अली थानवी और मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी(जमीयतुल उलेमा के प्रमुख) आदि प्रमुख लोगों ने मजबूती किया. यही मानसिकता आगे चल कर मुस्लिम लीग के जन्म का आधार बनती है.

मुस्लिम लीग शुरू से ही साम्प्रदायिक आधार पर भारतीय समाज के बटवारे की पक्षधर रही जो आगे चल कर देश के बटवारे के रूप में परिणत होता है. अशराफ मुसलमानों के नेतृत्व में मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा. हालांकि कुछ अशराफ और अशराफी संगठन भी मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र सिद्धांत के विरोधी थे, लेकिन मुस्लिम लीग का सबसे प्रबल विरोध आसिम बिहारी के नेतृत्व वाली जमीयतुल मोमिनीन(मोमिन कांफ्रेंस) ने सांगठनिक रूप से किया.


अपनी कामगर(पेशावर) देशी पहचान को आगे रखते हुए मुस्लिम लीग के लिए लगभग हर मोर्चे पर प्रतिरोध खड़ा किया. मोमिन कॉन्फ्रेंस के सक्रिय कार्यकर्ता एवं संगठन की पत्रिका मोमिन अंसार के संपादक मौलाना इमामुद्दीन रामनगरी (वाराणसी) द्वारा कुरान का प्रथम हिन्दी अनुवाद भी इसी सोच के तहत था ताकि देशज पसमांदा स्वयं कुरान को पढ़ समझ सके और मुस्लिम लीग के बहकावे में न आ सके.

मोमिन कांफ्रेस द्वारा न सिर्फ संगठन के स्तर पर बल्कि उसके द्वारा निकाले जाने वाले पत्र और पत्रिकाओं द्वारा भी मुस्लिम लीग के राष्ट्र विरोधी चरित्र को उजागर किया जा रहा था. संगठन द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका मोमिन गैज़ेट में पत्रिका के सम्पादक मौलाना अबु उमर भागलपुरी ने अपने सम्पादकीय(1937ई०)में मुस्लिम लीग के चरित्र को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि, "लीग एक ऐसा बलिगृह है जहाँ हवस और स्वार्थ पर गरीबो की बलि दी जाती है.

लीग संगे तराज़ू है जो सौदे के वक़्त किसी पलड़े पर झुक पड़ेगी. लीग एक सियासी डिक्शनरी है जिसमे हर किस्म के कमज़ोर शब्दों का भण्डार है. लीग एक कवि है जो आक़ाओं की प्रसंशा में सुंदर प्रसंशा गीत गा सकता है. लीग पूंजीवादी और उच्च वर्ग का स्टेज़ है जहाँ स्वार्थ और नफ्सपरस्ती पर बहस होता है. लीग सम्पन्न वर्ग और राजतन्त्र का अनुवादक है जिनकी एकता से देश की गुलामी में तरक़्क़ी होती है.

 लीग एक ऐसी अभिनेत्री है जो अनुभवहीन दर्शको के दिलो को अपनी तरफ खीच सकती है. लीग आज़ादी और गुलामी का च्यवनप्राश है जो पूंजीपतियो के दिलो को ताक़त पहुंचाकर हवस और स्वार्थ की भूख पैदा कर सकती है."मुस्लिम लीग द्वारा साम्प्रदायिक आधार पर जनगणना में जाति के कॉलम में सिर्फ मुस्लिम लिखवाने की अपील का मोमिन कॉन्फ्रेंस ने पुर जोर विरोध किया.

महिला प्रभाग, ज़िला मोमिन कांफ्रेंस के 19 जनवरी 1941 को खीरगाँव, हज़ारीबाग़ में हुए सम्मेलन में बेगम मोईना ग़ौस ने अपने स्वागत भाषण में इस ओर ध्यान दिलाते हुए ये कहा कि मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता पसमांदा मुस्लिमो को बहका रहे है कि वो जनगणना में अपनी जाति का नाम ना लिखवाएं. इसके लिए वो बंगाल सरकार के एक फ़र्ज़ी सर्कुलर और बिहार के जनगणना विभाग द्वारा 689 रुपये जमा कराने की बात का झूठा प्रचार कर रहें हैं.
 

उन्होंने यह भी बताया कि दिसंबर 1940 के अखबारो में बिहार मुस्लिम लीग के वर्किंग कॉमेटी के नामज़द मेम्बरों के नाम उनके जाति के नाम के साथ प्रकाशित किया गया,लेकिन मोमिनो (पसमांदा मुस्लिमो) को अपनी जाति बताने पर क्रोध प्रकट किया गया.

जब 30 मार्च 1940 को लाहौर में हुए अपने अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने "पाकिस्तान" के प्रस्ताव को पारित कर दिया. तब इसके विरोध में सब से संगठित, तार्किक सधा और गरजदार आवाज़ मोमिन नौजवान कांफ्रेंस(मोमिन कांफ्रेंस का नौयुवक शाख) ने अपने 19 अप्रैल 1940 को पटना में हुए अधिवेशन में उठाया.

मोमिन कांफ्रेंस ने मई 1940 में दिल्ली में एक विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया गया जिसमें लगभग 40 हजार पसमांदा मुसलमानों ने भाग लेकर देश के बटवारे के विरोध में अपनी मजबूत आवाज प्रस्तुत किया.

मोमिन कांफ्रेंस का यह तर्क था कि मुस्लिम लीग का यह कहना कि इस्लाम खतरे में हैं सिर्फ बहकाने की एक चाल भर है जैसा कि नाजीमुद्दीन इलाहाबादी ने पटना की एक मीटिंग में कहा था कि मुस्लिम लीग की लीडरशिप खतरे में है ना कि इस्लाम खतरे में है.

अब्दुल कय्यूम अंसारी के अनुसार पाकिस्तान योजना 'इस्लाम की सच्ची अवधारणा' के विपरीत थी. सांस्कृतिक असमानता के तर्क को जिसे मुस्लिम लीग ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का आधार बनाया, वह अंतर-सामुदायिक सह-अस्तित्व के क्षेत्रीय ढांचा को प्रतिबिंबित नहीं करता था.
 उन्होंने प्रश्न किया कि आख़िर भारतीय मुसलमानों में अरब और तुर्की के मुसलमानों के साथ क्या समानता है? बंगाल के मुसलमानों में उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत के अपने सहकर्मियों की तुलना में

अपने क्षेत्र के हिंदुओं के साथ अधिक समानता है. आसिम बिहारी के अनुसार पसमांदा मुसलमानों को किसी भी प्रकार का धार्मिक, भाषाई या सांस्कृतिक भय नहीं है. वे जहाँ रहते हैं वही स्थान उनके लिए पवित्र है पाकिस्तान(पाक - पवित्र, स्तान - स्थान) है.

पटना सिटी में अखिल भारतीय मोमिन युवा सम्मेलन में मुहम्मद नूर ने पाकिस्तान योजना को 'गैर-इस्लामिक, अप्राकृतिक, देशभक्ति रहित और बिल्कुल अव्यवहारिक' बताया. चूंकि देश में रहने वाले समुदाय एक-दूसरे से मिले-जुले अस्तित्व में रहते हैं, इसलिए उनका मत था कि भारत के विभाजन की बात करना बेतुका है.

मौलाना अतिकुर रहमान आरवी ने मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र सिद्धांत के विरोध में हिन्दू और पसमांदा एकता को मजबूत करने के लिए अपने दोनों बेटे का नाम मोहनलाल और सोहनलाल रखा. ज्ञात रहें कि विदेशी अशराफ ने उनको जातिवादी अपमानजनक उद्बोधन "डोमवा मौलाना" से मशहूर किया था. उन्होंने ऊंच नीच का विरोध करते हुए एक डोम के हाथ से पानी पिया था.

गोरखपुर में अखिल भारतीय मोमिन कॉन्फ्रेंस के सातवें वार्षिक अधिवेशन 27 से 29 दिसंबर 1939, में मुहम्मद नूर ने एक प्रस्ताव पेश किया कि देश का भावी संविधान केवल वयस्क मताधिकार पर आधारित संविधान सभा द्वारा बनाया जाना चाहिए, जिसमें मोमिनों(पसमांदा) के लिए एक अलग निर्वाचन क्षेत्र हो.

अलग पसमांदा निर्वाचन क्षेत्र की मांग इस आधार पर की गई थी कि मौजूदा मताधिकार के आधार पर तैयार की गई मतदाता सूची संपत्ति, कर-भुगतान और शैक्षिक योग्यता पर आधारित थी जिससे सिर्फ मुस्लिम लीगी अशराफ मुसलमानों के हितों का संरक्षण होता था.

दूसरे शब्दों में, मताधिकार की मौजूदा प्रणाली 'मुसलमानों के बीच अल्पसंख्यक (अशराफ) को बहुमत (बहुसंख्यक) में बदलकर' लोकतंत्र के सिद्धांत के विरुद्ध काम कर रही है.मोमिन कॉन्फ्रेंस रज़ील-अशरफ़ विभाजन के तथ्य के आधार पर मुस्लिम लीग का विरोध कर रहा था, लेकिन मुस्लिम लीग के लिए रज़िल श्रेणी जैसी कोई चीज़ से इनकार करना आम बात थी.

इस प्रकार, एक अवसर पर, विधानसभा में नगरपालिका संशोधन विधेयक पर बहस के दौरान कांग्रेस पार्टी के पसमांदा नेता हाफिज जफर हुसैन ने स्थानीय निकाय चुनावों में संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र को यह कहते हुए समर्थन दिया किया कि पृथक चुनाव क्षेत्र में केवल अमीर मुस्लिम ही चुनाव जीत पाते हैं जो अपने सहधर्मी गरीब मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं.

जिस पर मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी के मोहम्मद यूनुस जिन्हे इमारत ए शरिया और जमीयतुल उलेमा का समर्थन था हस्तक्षेप करते हुए कहा कि मुस्लिम समाज में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग जैसी कोई चीज नहीं होती है.

सारे मुसलमान बराबर हैं. यह कांग्रेस सरकार है जो व्यवस्थित रूप से एक काल्पनिक विभाजन को अतिशय वर्णन कर मुस्लिम समाज में जातिवाद को बढ़ावा दे रही है.इसके कुछ ही महीने बाद पसमांदा नेता मोहम्मद नूर द्वार मुसलमानों के पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए एक योजना तैयार करने के कांग्रेस सरकार से आग्रह का प्रस्ताव लाया गया, जिस पर कांग्रेस के शाह मोहम्मद उमैर ने दृढ़ता से कहा कि मुसलमानों में कोई पिछड़ा वर्ग नहीं हैं.

वो यह स्वीकार करने को तैयार थे कि कुछ बुनकरों और मंसूरियों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है लेकिन उन्होंने दावा किया कि वे किसी भी सामाजिक पिछड़ेपन से पीड़ित नहीं हैं. उन्हें इस आधार पर सहायता की आवश्यकता नहीं है.

आसिम बिहारी के नेतृत्व में मोमिन कान्फ्रेंस ने मुस्लिम लीग के एकरूपता वाले नेतृत्व को उखाड़ फेंकने के लिए अन्य पिछड़े मुस्लिम संगठनों को इस आधार पर एकत्रित करना शुरू किया कि  मोमिन और अन्य पेशावर (कामगार) मुसलमानों को मुस्लिम लीग ने पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था जिससे किसी को भी मुस्लिम लीग पर कोई भरोसा नहीं है.

तब मोमिन आंदोलन का उद्देश्य न केवल मोमिनों का बल्कि राईन (सब्जी विक्रेता और उत्पादक), मंसूरी (कपास, रुई धुनने वाले) इदरीसी (दर्जी) और कुरैशी (कसाई) समुदाय आदि का भी उत्थान करना था.

लेख का दूसरा और अंतिम भाग रविवार को...

( लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं )