सईद नकवी
इस रविवार, 6 जुलाई, मोहर्रम का दसवां दिन यानी आशूरा पड़ रहा है—एक ऐसा दिन जो इस बार इतिहास में एक अनूठे रूप में दर्ज होगा. कर्बला की त्रासदी का महान शोक यहाँ गहरे भावों के साथ मनाया जाएगा, लेकिन इसके साथ-साथ एक उत्सव की अनुभूति भी जुड़ी होगी—दुनिया भर में लोग काले कपड़े पहन कर शोक मनाएँगे, पर कहीं कहीं यह जश्न रूप ले लेगा. पश्चिमी मीडिया के कथन से बिल्कुल उलट, यह जश्न ईरान और इज़राइल के बीच वर्तमान तनाव को लेकर एक संदेश भी बनकर उभरेगा.
कर्बला की त्रासदी 680 ईस्वी में घटित हुई, पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के मात्र 48 साल बाद. उस समय हुसैन ने यज़ीद की तानाशाही से विरोध स्वरूप मदीना छोड़ दिया था. कर्बला पहुंचने पर वे अपने 72 अनुयायियों और परिवार के साथ पानी और सुविधाओं से बंचक हो गए.
तीन दिन फ़रात नदी का जल मार्ग टूट चुका था. दहकती गर्मी में उनका सामना एक विशाल सेना से हुआ—शांति के सभी रास्ते बंद थे, सिर्फ़ केवल दो विकल्प बाकी थे: यज़ीद का समर्थन करना, या देशभक्ति और सिद्धांत की परख में मोल लेना.
हुसैन ने अपनी पहचान का फैसला युद्ध के मैदान पर दिया. उन्होंने एक-एक करके अपने साथियों को युद्ध तत्पर किया, जैसा उस समय की प्रथा थी. इसलिये कर्बला की लड़ाई केवल एक सैन्य हमले से अधिक बन गई—यह शिया मानस की गहराई में दबी शहादत की भावना का प्रतीक बन गई. कवियों ने इस लड़ाई को वीरता, सम्मान, भाईचारे और बलिदान की महागाथा के रूप में उकेरा। नौहे, मर्सिए, और मसहूर कवि मीर अनीस ने इस त्रासदी को साहित्य में अमर कर दिया.
इस बार आशूरा के दिन का विरोधाभास इस तथ्य में है कि हिंदुस्तान, फारस, और दुनिया भर के शियाओं में गहरे दुख के साथ-साथ उन भारतीय शिया समुदायों सहित कुछ समूहों में एक प्रकार का उत्साह भी समाया हुआ है—वह उत्साह जो ईरान द्वारा इज़रायल की दुनिया में स्थापत्य महिमा को चुनौती देने की तुलना में व्यक्त हो रहा है. उनके लिए इस जश्न का भाव ‘यज़ीद की प्रेरित नेतृत्व वाली सत्ता’—विशेषकर नेतन्याहू की—उत्सव के रूप में प्रकट हो रहा है.
पश्चिमी मीडिया इस पूरे आयोजन का पटाक्षेप कर रहा है—उन्हें लगा कि सिर्फ़ एक धार्मिक आयोजन है; लेकिन फ़्रीडमैन जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों की व्याख्याएँ इस परिप्रेक्ष्य को बदल देती हैं. वे साज़िशन इज़राइल और ईरान की राजनीतिक चालों को प्रसारित कर रहे हैं और यज़ीद-नेतांयाहू समाजवादी संस्कृति को जोड़ रहे हैं.
उनके अनुसार, सीरिया या लेबनान में उनकी कथित विशेषज्ञता इस्लामिक समूहों में पश्चिमी गठजोड़ को समर्थन दे रही है, और यह आश्चर्यचकित करने वाला है कि कैसे “सभ्य लोकतंत्र” के ऊँचे नाम का ढोंग खेला जा रहा है.यह लेख स्पष्ट करता है कि आशूरा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि मानवता, शक्ति, सत्ता और सत्य की लड़ाई में एक मंच है—जहाँ पर इतिहास और राजनीति के धारों का संगम होता है.
इस आशूरा पर विश्व के अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर ईरान, लेबनान, इराक, सीरिया, यमन, बहरीन, सऊदी अरब, कुवैत, भारत और पाकिस्तान में यह आयोजन एक सांदेह-पूर्ण मानवीय दृश्य प्रस्तुत कर रहा है.
मोहर्रम और आशूरा को उपेक्षित करना उन समुदायों के इतिहास, विरासत और आत्मा के साथ सामूहिक विश्वासघात की तरह है. उदाहरण के लिए, जब दसवीं शताब्दी में फलाहिमी शासनों के दौरान काहिरा और सिसिली में नियमित आशूरा जुलूस होते थे, यह दर्शा देता है कि यह प्रथा वैश्विक स्तर पर गहरी जड़ों वाली रही है.
इसलिए, इस आशूरा पर न सिर्फ एक धार्मिक कार्यक्रम चल रहा है, बल्कि राजनीतिक संदेश, मानवीय संवेदना और ऐतिहासिक पुनर्गठन का भी महत्त्व है. हुसैन की शहादत हमें एक बार फिर याद दिलाती है कि जब सत्ता शांति के रास्ते बंद कर देती है, तब मानवता के पास विकल्प क्या होते हैं.
और आज, जब हम दुनिया की जटिलताओं को देखते हैं—कतई समानता नहीं बची हुई—तो हमें याद रखना होगा कि शहादत हमेशा नए प्रश्न खड़ी करती है, और इतिहास का हर पन्ना सिर्फ़ विडंबना नहीं, बल्कि चेतावनी भी है.