तिब्बत से विश्व मंच तक: दलाई लामा क्यों हैं आज भी प्रासंगिक?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 06-07-2025
The Dalai Lama: Compassion, Peace and the Soul of Tibet
The Dalai Lama: Compassion, Peace and the Soul of Tibet

 

अनीता

“मेरी असली धर्म पताका करुणा है.” - तेनजिन ग्यात्सो, 14वें दलाई लामा. जब भी विश्व में अहिंसा और करुणा का नाम लिया जाता है, तो महात्मा गांधी के बाद जिस महान व्यक्ति का नाम लिया जाता है, वह हैं दलाई लामा. बौद्ध परंपरा में ‘दलाई लामा’ केवल एक धार्मिक उपाधि नहीं, बल्कि करुणा, शांति और तिब्बती पहचान का प्रतीक है. आज के दौर में जब हिंसा, युद्ध और सत्ता संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं, तब दलाई लामा जैसे नेताओं की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है.

‘‘मेरा धर्म बहुत साधारण है. मेरा धर्म करुणा है;.’’ - दलाई लामा. दलाई लामा का सबसे बड़ा मानवीय पहलू उनकी निर्विकार करुणा, सहानुभूति और हर जीव मात्र के प्रति आदर में छुपा है. उन्होंने बौद्ध धर्म के ‘करुणा’ के सिद्धांत को केवल किताबों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि अपनी जीवन शैली में उतारकर दिखाया.
वे हमेशा कहते हैं कि “सच्चा धर्म केवल करुणा है.”

उन्होंने अपने निर्वासन के जीवन को भी एक मिशन बना लिया है - तिब्बतियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना, लेकिन बिना हिंसा के. वे दुनिया भर के विभिन्न धर्मों के नेताओं से संवाद करते हैं, ताकि अंतरधार्मिक सौहार्द बना रहे. अमेरिका की प्रोफेसर मेलिसा करल्सन कहती हैं - “दलाई लामा राजनीतिक ज्ञान और मानवीय करुणा के एक अद्वितीय संश्लेषण का प्रतीक हैं.” (परम पावन दलाई लामाः एक जीवनी, दलाई लामाः मनुष्य, भिक्षु, रहस्यवादी)

क्यों जरूरी हैं दलाई लामा विश्व शांति के लिए?

दलाई लामा का नाम 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से भी जोड़ा गया. यह पुरस्कार उन्हें इसलिए दिया गया, क्योंकि उन्होंने तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए कभी भी हिंसक रास्ता नहीं अपनाया. दलाई लामी की ‘पांच बिंदु तिब्बत योजना’ आज भी विश्व में अहिंसक संघर्ष का आदर्श मॉडल माना जाता है. वे जलवायु परिवर्तन, गरीबी और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर भी बोलते हैं.

उनका मानना है कि ये समस्याएं युद्ध से भी बड़ा खतरा हैं. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था- “दलाई लामा करुणा का अभ्यास करने का एक सशक्त उदाहरण हैं.” उनके अमेरिका, यूरोप, भारत, जापान आदि में निरंतर दौरे होते हैं और लाखों लोग उनके सार्वजनिक प्रवचनों में भाग लेते हैं. वे युवाओं को शांति और ‘भावनात्मक स्वच्छता’ सिखाते हैं. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने दलाई लामा को “पूर्व और पश्चिम के बीच एक पुल” कहा था. (द आर्ट ऑफ हैप्पीनेसः दलाई लामा और हॉवर्ड सी-कटलर, बीबीसी की दलाई लामा की यात्राओं पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट)

तिब्बतियों के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं दलाई लामा?

तिब्बतियों के लिए दलाई लामा सिर्फ एक धार्मिक गुरु नहीं हैं, बल्कि वे तिब्बत की राष्ट्रीय पहचान के प्रतीक हैं. चीन के कब्जे के बाद भी तिब्बती संस्कृति दलाई लामा के नेतृत्व में जिंदा है. तिब्बतियों का कहना है, “दलाई लामा हमारे मूल गुरु और हमारे राष्ट्रीय ध्वज हैं.” लाखों निर्वासित तिब्बती धर्मशाला (भारत) और नेपाल में रहकर भी अपनी संस्कृति से जुड़े हैं, क्योंकि दलाई लामा ने इसे संरक्षित किया.

1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद दलाई लामा भारत आए और धर्मशाला में ‘केंद्रीय तिब्बती प्रशासन’ (सीटीए) बनाई, जो तिब्बतियों की निर्वासित सरकार कही जाती है. सीटीए के माध्यम से तिब्बतियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति की रक्षा होती है. भारत सरकार ने उन्हें शरण देकर तिब्बती समुदाय को जीवित रखा है और उन्हें हरसंभव सहयोग प्रदान कर रही है. (फ्री तिब्बत ऑर्गेनाईजेशन रिपोर्ट्स)

चीन की दखलंदाजी

दलाई लामा के उत्तराधिकारी का विवाद तिब्बत, चीन और भारत के लिए नाजुक और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण है. पारंपरिक चयन प्रणाली की परंपरा के अनुसार, दलाई लामा का पुनर्जन्म होता है. तिब्बत में उच्च भिक्षु पैनल ‘गोल्डन अर्न’ प्रणाली से अगले दलाई लामा को खोजता है. जबकि चीन कहता है कि वह ‘पैनचेन लामा’ को नियंत्रित करने की तरह, दलाई लामा के उत्तराधिकारी को भी नियंत्रित करेगा.

1995 में 11वें पैनचेन लामा का विवाद इसका उदाहरण है, जिस पैनचेन लामा को तिब्बतियों ने चुना, उसे चीन ने गायब कर दिया और अपनी पसंद का ‘पैनचेन लामा’ नियुक्त कर दिया. इसीलिए, दलाई लामा स्वयं कहते हैं, “मैं तिब्बत के बाहर भी पुनर्जन्म ले सकता हूं ताकि चीन मुझे नियंत्रित न कर सके.”

भारत का रुख  

भारत के लिए यह रणनीति मसले से ज्यादा भावनात्मक और आध्यात्मिक मसला है, क्योंकि दलाई लामा भारत में रहते हैं और भारत भूमि पर जन्मी बौद्ध मत परंपरा के सिद्ध संत हैं. इसलिए चीन के किसी ‘पैरोकार’ दलाई लामा को भारत कभी मान्यता नहीं देगा. भारत के अल्पसंख्यक मंत्री किरेन रिजिजू स्पष्ट कर चुके हैं कि दलाई लामा और उनकी परंपरा के सभी श्रद्धालु चाहते हैं कि नए दलाई लामा के उत्तराधिकारी का चुनाव वर्तमान दलाई लामा ही करें. अमेरिका और यूरोप भी इस मुद्दे पर तिब्बतियों के पक्ष में खड़े हैं. (उत्तराधिकार पर रॉयटर्स की विशेष रिपोर्ट)

भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं दलाई लामा?

भारत में तिब्बती शरणार्थी बस्तियां धर्मशाला, लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश आदि में हैं. दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बती नागरिक शांतिपूर्ण ढंग से रहते हैं और भारत को अपना दूसरा घर मानते हैं. यह भारत की साफ्ट पॉवर भी है. इसलिए कि तिब्बती शांति का संदेश भारतीय धरती से जाता है. सामरिक दृष्टि से तिब्बत भारत के लिए बफर स्टेट रहा है. चीन इसे कब्जा करके भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता है.

आगे क्या होगा ?

विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि चीन अपना दलाई लामा थोपता है, तो वह तिब्बती जनता के लिए कभी स्वीकार्य नहीं होगा. हो सकता है कि दो दलाई लामा हों - एक चीन के कब्जे वाला, दूसरा निर्वासन में. यह विवाद भविष्य में भारत-चीन तनाव को और जटिल बना सकता है. इसीलिए दलाई लामा ने एक बार कहा था - ‘‘तिब्बती, दलाई लामा की संस्था को समाप्त करना चाहते हैं, वे ऐसा कर सकते हैं - क्योंकि इसे चीन के लिए राजनीतिक उपकरण नहीं बनना चाहिए.’’

आधुनिक विश्व में जब शांति, करुणा और पर्यावरण संरक्षण के लिए वास्तविक नेताओं की जरूरत है, तब दलाई लामा या उनके उत्तराधिकारी जैसे व्यक्तित्व समाज को सही दिशा दिखा सकते हैं. तिब्बतियों के लिए वे संस्कृति के संरक्षक हैं, विश्व के लिए शांति और करुणा का संदेश हैं और भारत के लिए सामरिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. जैसा दलाई लामा ने खुद कहा है - “जब भी संभव हो, दयालु बनें - यह हमेशा संभव है.”