– इमान सकीना
इस्लामी चंद्र कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम की 10वीं तारीख को आने वाला आशूरा का दिन पूरी मुस्लिम दुनिया के लिए अत्यंत धार्मिक, ऐतिहासिक और भावनात्मक महत्व रखता है. हालांकि इस दिन की अहमियत सुन्नी और शिया मुसलमानों के लिए अलग-अलग रूपों में व्यक्त होती है, लेकिन इसकी मूल भावना गहरी श्रद्धा और आत्ममंथन से जुड़ी होती है.
शिया मुसलमानों के लिए आशूरा का दिन गहरे शोक और मातम का दिन है, जो 680 ईस्वी में कर्बला के तपते रेगिस्तान में घटी एक ऐतिहासिक त्रासदी की याद दिलाता है. उस दिन पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.) के प्यारे नवासे इमाम हुसैन (र.अ.) और उनके 72 साथियों को उमय्यद शासक यज़ीद इब्न मुआविया की सेना ने निहायत ही बेरहमी से शहीद कर दिया था.
इमाम हुसैन ने एक ज़ालिम और भ्रष्ट शासक की वफ़ादारी से इनकार कर दिया था. उन्होंने सत्ता के लालच में नहीं, बल्कि इस्लामी मूल्यों – सत्य, न्याय और मानव गरिमा की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर किए.
कर्बला की ज़मीन पर इमाम हुसैन, उनके परिवार के बच्चे-बूढ़े, यहाँ तक कि छह महीने के मासूम अली असग़र तक को पानी से वंचित कर दिया गया. अंततः सबको निर्दयता से मार दिया गया. यह घटना ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने, ईमानदारी और नैतिक साहस की एक मिसाल बन गई, जो आज तक लोगों को प्रेरित करती है.
मजलिस और मातम: शिया समुदाय आशूरा के दौरान विशेष मजलिस आयोजित करता है, जिनमें विद्वान कर्बला की कहानी सुनाते हैं और इमाम हुसैन व उनके परिवार की कुर्बानियों को याद करते हैं. इन सभाओं में मर्सिया, नौहा और भावपूर्ण वाणी के ज़रिए लोगों की आंखें नम हो जाती हैं.
मातम और लतमियाह: दुख और एकजुटता जताने के लिए लोग छाती पीटते हैं जिसे मातम कहते हैं. कुछ समुदायों में ज़ंजीरों से प्रतीकात्मक प्रहार भी किया जाता है, हालांकि आधुनिक विद्वानों में इस पर मतभेद हैं.
ताज़िया और पुनःअभिनय: ईरान, इराक और भारत के कुछ हिस्सों में लोग कर्बला की घटनाओं को नाटक के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे नई पीढ़ी को इस महान बलिदान की भावना को महसूस कराया जा सके.
काले कपड़े और जुलूस: लोग काले कपड़े पहनते हैं और जुलूस निकालते हैं, जिसमें इमाम हुसैन के प्रति श्रद्धांजलि और उनके घराने के साथ वफ़ादारी के नारे लगाए जाते हैं.
रोजा और दान: कुछ शिया मुसलमान इमाम हुसैन की भूख-प्यास की याद में उपवास रखते हैं और ज़रूरतमंदों को खाना, पानी और दान देते हैं.
रोजा और इबादत: सुन्नी मुसलमान इस दिन का सम्मान करते हुए मुहर्रम की 9वीं और 10वीं या 10वीं और 11वीं तारीख को उपवास रखते हैं. यह उस दिन की याद में होता है जब पैग़ंबर मूसा (अ.स.) और उनकी कौम को अल्लाह ने फिरऔन से निजात दी थी। यह उपवास नबी मुहम्मद (स.अ.) की सुन्नत मानी जाती है.
दुआ और चिंतन: इस दिन इमाम हुसैन की शहादत का ज़िक्र किया जाता है, नमाज़ें पढ़ी जाती हैं और आत्मचिंतन किया जाता है, हालांकि शिया जैसी मजलिस या मातम की परंपरा नहीं होती.
हालाँकि शिया और सुन्नी परंपराओं में आशूरा मनाने के तरीके अलग हैं, लेकिन इमाम हुसैन का बलिदान दोनों समुदायों को एक साझा नैतिक मूल्यों की विरासत देता है. इमाम हुसैन की सच्चाई, न्याय और अत्याचार के खिलाफ डट कर खड़े होने की भावना आज भी दुनियाभर के लोगों के दिलों को झकझोर देती है – चाहे वे मुस्लिम हों या ना हों.
आशूरा हमें यह सिखाता है कि सच के लिए मर जाना झूठ के साथ जीने से बेहतर है. यह आत्मनिरीक्षण, नैतिकता और ईमान की परीक्षा का दिन है – एक ऐसी विरासत, जो सदियों बाद भी ज़िंदा है और प्रेरणा देती है.
हर ज़माने के लिए हर इन्सान के लिए, हुसैन एक मिशाल हैं.