दस्तावेज़/ ज़ाहिद ख़ान
डॉ. मुल्कराज आनंद अंग्रेज़ी के उन महत्वपूर्ण भारतीय लेखकों में हैं, जिन्होंने ब्रिटिश राज में भारतीय समाज के यथार्थ और विद्रूप को हुक्मरानों की ज़बान में लिखा और ख़ूब लिखा. अपनी निन्यानवे साल की ज़िंदगी में उन्होंने सौ से ज़्यादा किताबें लिखीं. दुनिया की बाईस ज़बानों में उनकी किताबों का तर्जुमा यह समझने के लिए काफ़ी है कि लोग उनसे किस क़दर मुतासिर हुए.
पेशावर में जन्मे मुल्कराज आनंद पंजाब यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने के बाद उन्नीस बरस की उम्र में स्कॉलरशिप पर लंदन चले गए. यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में उन्होंने फ़िलॉसफ़ी में पीएचडी के लिए दाख़िला लिया. लंदन में जल्दी ही वह भारत के आज़ादी आंदोलन और वामपंथी राजनीति वाले ग्रुपों के संपर्क में आ गए. पीडब्ल्यूए के वह संस्थापक सदस्य थे और इसके घोषणा-पत्र का पहला मसौदा तैयार करने में भी उनकी अहम भूमिका रही.
साल 1935 में उनका पहला उपन्यास ‘अनटचेबल’ छपकर आया था. लंदन में रहते हुए ही वह ई.एम.फॉस्टर, वर्जीनिया वुल्फ़, जॉर्ज रसेल, इलियट, यीस्ट, हरबर्ट रीड, जॉर्ज ऑरवेल के संपर्क में आए और उनसे दोस्ताना तआल्लुक बने.
‘अनटचेबल’ मुल्कराज आनंद का पहला उपन्यास है.इस उपन्यास पर उन्हें गाँधी की सम्मति भी हासिल हुई.‘अनटचेबल’ ऐसे शख़्स ‘भाखा’ की कहानी है, जो मैला ढोता है. उसके संघर्षों और अपमानजनक हालात के हवाले से ब्रिटिश उपनिवेश के दौर में भारत के दलितों के हालात की भयावहता इस उपन्यास में बख़ूबी ज़ाहिर हुई हैं.
अलग विषय और संवेदनशील तरीके से उसकी प्रस्तुति को बहुत सराहना मिली मगर इसे छपाना उनके लिए आसान नहीं रहा. ख़ुद मुल्कराज आनंद ने इस बारे में लिखा है कि उपन्यास का विषय सुनकर एक ब्रिटिश आलोचक ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि ग़रीबों के बारे में कोई उपन्यास नहीं लिखा जा सकता. उसकी इस टिप्पणी से हताश मुल्कराज आनंद आयरलैंड जाकर जॉर्ज रसेल और डब्ल्यू.बी.यीस्ट से मिले. रसेल ने उन्हें हिन्दुस्तान जाकर साल भर गाँधी के साथ रहने का मशविरा दिया.
रसेल ने उनकी ओर से गाँधी को ख़त भी लिख भेजा. गाँधी का ज़वाब आया, ‘‘मार्च के आख़िर तक आ जाएं.’’ यह साल 1927की बात है. आनंद साबरमती आश्रम आ गए और उन्होंने गाँधी को ‘अनटचेबल’ का मसौदा दिखाया. अगले रोज़ गाँधी ने उनसे कहा कि उन्होंने उपन्यास पढ़ा. उसकी भाषा में बहुत भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल हुआ है. गाँधी ने कहा, ‘‘हरिजन तड़पते हैं, चीख़ते और कराहते हैं, वे इस तरह की भाषा नहीं बोलते.’’
उन्होंने उपन्यास को सरल भाषा में लिख़ने के साथ ही सुझाया कि हरिजनों के हवाले से कही जाने वाली बातों में वैसी भाषा इस्तेमाल करें, जैसी कि वे बोलते हैं. गांधी जी की इस्लाह पर मुल्कराज आनंद ने साबरमती आश्रम में ही रुककर ‘अनटचेबल’ फिर से लिखा. दोबारा तैयार पाण्डुलिपि पर गाँधी की रज़ामंदी के बाद ही उन्होंने उसे छापने के लिए प्रकाशकों को भेजना शुरू किया, मगर 19 प्रकाशकों ने ‘अनटचेबल’ छापने से इंकार कर दिया. आख़िरकार एक अपेक्षाकृत छोटे प्रकाशक लॉरेंस एंड विशआर्ट ने साल 1935में इसे छापा. इस उपन्यास ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी. चौबीस भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ.
किताब की प्रस्तावना में ई.एम. फॉस्टर ने लिखा, ‘‘शब्द आडम्बर और वाक्-जाल से बचते हुए, किताब सीधे पाठक के दिल तक जाती है और उसे शुद्ध कर देती है. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है. यदि होते, तो हम जीवित न होते. निष्कपट व्यक्ति के लिए सब कुछ शुद्ध हो सकता है और यही उसके लेखन की निष्कपटता है, जिसमें लेखक पूरी तरह से कामयाब हुआ है. ‘अनटचेबल’ जैसा उपन्यास कोई भारतीय ही लिख सकता है और वह भी ऐसा भारतीय जिसने अछूतों का भली-भांति अध्ययन किया हो. कोई यूरोपियन भले ही कितना सहृदय क्यों न हो, भाख़ा जैसे चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता. क्योंकि वह उसकी मुसीबतों को इतनी गहराई से नहीं जान सकता. और कोई अछूत भी इस पुस्तक को नहीं लिख सकता.’’
मुल्कराज आनंद ने साल 1929 में पीएचडी पूरी करने के बाद ‘लीग ऑफ़ नेशंस स्कूल ऑफ इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन’ जिनेवा में अध्यापन किया. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने लंदन में बीबीसी के लिए स्क्रिप्ट लेखक के तौर पर काम किया. ब्रॉडकास्टर भी रहे.
जॉर्ज ऑरवेल भी उस वक़्त बीबीसी से जुड़े हुए थे. देश की आज़ादी का संघर्ष जब चरम पर पहुंचा, तो कुछ योजनाओं और नए विचारों के साथ मुल्कराज आनंद साल 1946 में भारत लौट आए. साल 1948 से 1966 तक उन्होंने देश के कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया. अंग्रेजी पत्रकारिता की.
मुल्कराज आनंद इंसानियत और वैश्विक भाईचारे के तरफ़दार थे. उनके उपन्यास और कहानियों के किरदारों में अलग तरह की जिजीविषा और जीवट दिखाई देता है. अन्याय, अत्याचार और ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ वे संघर्ष करते हैं. उनका दूसरा उपन्यास ‘कुली’ (1936) भी सर्वहारा वर्ग के दुःख-दर्द, उनकी ज़िंदगी की दारुण स्थितियों का बयान है.
साल 1937 में आया उनका एक और चर्चित उपन्यास ‘टू लीव्ज़ एण्ड अ बड’ ब्रिटिश हुकूमत को इस क़दर नाग़वार गुज़रा कि उस पर प्रतिबंध लगा दिया. उपन्यास चाय बाग़ान के एक ऐसे अंग्रेज़ प्लांटर पर चले मुक़दमे का बयान है, जिसने अपने एक कुली की हत्या इसलिए कर दी, क्योंकि वह अंग्रेज़ के बलात्कार की कोशिश से अपनी बेटी को बचा रहा था.
अंग्रेज़ ज्यूरी ने प्लांटर को इस मुक़दमे में रिहा कर दिया. ‘टू लीव्ज़ एण्ड अ बड’ भारत के अलावा ब्रिटेन और अमेरिका में भी एक साथ छपा. ख़्वाजा अहमद अब्बास को भी यह उपन्यास बहुत भाया. इसमें उन्हें भारतीय समाजवाद के उभार का एक पहलू दिखाई दिया. इस एक नुक़्ते का छोर पकड़कर, अब्बास ने साल 1956 में फ़िल्म ‘राही’ बनाई.
जॉर्ज ऑरवेल मुल्कराज आनंद के बड़े प्रशंसक थे. ‘द सोर्ड एंड द सिकल’ के बारे में ऑरवेल ने कहा था, ‘‘आनंद का नॉवेल (भारतीय) सांस्कृतिक जिज्ञासा जगाता है.’’ मुल्कराज आनंद ने अंग्रेज़ी में ज़रूर लिखा, लेकिन वे हमेशा भारतीय बने रहे. अंग्रेज़ी के वे पहले लेखक हैं, जिन्होंने अपने लेखन में पंजाबी और हिंदी शब्दों का ख़ूब इस्तेमाल किया. भारतीय ज़बानों को लेकर उनमें हीनता का कोई बोध नहीं था.
पं. जवाहरलाल नेहरू और मुल्कराज आनंद
उनके दोस्त सज्जाद ज़हीर ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की यादें’ में लिखते हैं, ‘‘आनंद स्वभाव से बड़ी जोशीली तबीयत के आदमी हैं. उनकी लेखनी जिस तेज़ी से चलती है, उससे ज्यादा तेज़ी के साथ उनकी ज़बान चलती है. अगर उनमें किसी बात की धुन हो जाए, तो फिर वे अपनी बात को मनवाने के लिए या अपने काम को अंज़ाम देने के लिए ज़मीन-आसमान के कलाबे मिला देते हैं. वे उन गिनती के चंद लेखकों में से हैं, जो किताब लिखने पर ही नहीं उसके मुद्रण और प्रकाशन पर भी उतनी ही मेहनत करते हैं. एक भारतीय लेखक के लिए इंग्लैंड में अंग्रेज़ी में नॉवेल लिखकर इंग्लैंड की किताबों की मंडी में अपने लिए एक ऊंची जगह बना लेना, आनंद का ही काम था.’’
मुल्कराज आनंद, दर्शन और इतिहास के विद्वान थे. साथ ही भारतीय साहित्य, कला, पुरातत्व और संस्कृति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. वी.के. कृष्ण मेनन के साथ उन्होंने इंडिया लीग में काम किया. साल 1965से लेकर 1970 तक वे ललित कला अकादमी के अध्यक्ष रहे. 1967-68 में इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज़, शिमला के विजिटिंग प्रोफेसर रहे. ‘मार्ग’ पत्रिका शुरू की और ‘कुतुब पब्लिशर्स’ के निदेशक रहे.
साहित्य के अलावा कला, संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर भी ख़ूब लिखा. मुल्कराज आनंद अपने साहित्यिक लेखन के लिए कई पुरस्कार-सम्मान से नवाज़े गए. साल 1972में उनकी किताब ‘मॉर्निंग फ़ेस’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो भारत सरकार ने साल 1967 में मुल्कराज आनंद को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किया.
विश्व शांति परिषद् ने उन्हें ‘अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ से नवाज़ा. इतनी विराट शख़्सियत होने के बाद भी मुल्कराज आनंद सादा जीवन ज़ीने में यक़ीन करते थे. अपना आख़िरी समय उन्होंने महानगरों के शोरगुल से दूर महाराष्ट्र के ख़ंडाला में बिताया. जहां का प्राकृतिक वातावरण उन्हें बहुत रास आता था. 28 सितम्बर, 2004 को मुल्कराज आनंद हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए.
(ज़ाहिद ख़ान वरिष्ठ आलोचक हैं और 'तरक्कीपसंद तहरीक' पर दो अहमतरीन किताबों के लेखक हैं. लेखन का दायरा हिंदी-उर्दू अदब से लेकर हिंदुस्तानी तहज़ीब, कला, नाट्य शैलियों, गीतों और सिनेमा तक. आप हर हफ्ते बुधवार को आवाज- द वॉयस पर उनका नियमित स्तंभ 'दस्तावेज' पढ़ पाएंगे.)