ईद उल अज़हा सिर्फ़ त्यौहार नहीं, ज़िम्मेदारी भी है: चलिए ज़रूरतमंदों की मदद करें

Story by  फिरदौस खान | Published by  [email protected] | Date 07-06-2025
Eid ul Azha is not just a festival, it is also a responsibility: Let us help the needy
Eid ul Azha is not just a festival, it is also a responsibility: Let us help the needy

 

-फ़िरदौस ख़ान         

तीज-त्यौहार ढेर सारी ख़ुशियां लेकर आते हैं. और ईद का मतलब ही ख़ुशी है. ईद उल फ़ित्र और ईद उल अज़हा दोनों ही ऐसे त्यौहार हैं, जो लोगों में ख़ुशियां बांटने का सबब बनते हैं. ख़ासकर ग़रीबों के लिए ये त्यौहार बहुत सी ख़ुशियां और राहत लेकर आते हैं. दरअसल, इन दोनों ही त्यौहारों का मक़सद ज़रूरतमंद लोगों को मदद मुहैया कराना है. 
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अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम में बार-बार ज़रूरतमंदों की मदद करने का हुक्म दिया है और ज़रूरतमंदों की मदद करने वाले लोगों को सच्चा कहा है.अल्लाह तआला फ़रमाता है- “नेकी सिर्फ़ यही नहीं है कि तुम अपना रुख़ मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर लो, बल्कि असल नेकी तो ये है कि कोई शख़्स अल्लाह और क़यामत के दिन और फ़रिश्तों और अल्लाह की किताब और नबियों पर ईमान लाए और अल्लाह की मुहब्बत में अपना माल रिश्तेदारों और यतीमों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों और मांगने वालों पर और ग़ुलामों को आज़ाद कराने में ख़र्च करे और पाबंदी से नमाज़ पढ़े और ज़कात देता रहे और जब कोई वादा करे, तो उसे पूरा करे और तंगी और मुसीबत और जंग की सख़्ती के वक़्त सब्र करने वाला हो. यही लोग सच्चे हैं और यही लोग परहेज़गार हैं. (क़ुरआन 2:117)

ईद उल फ़ित्र के मौक़े पर ज़रूरतमंदों को ज़कात, फ़ितरा और सदक़ा दिया जाता है. दरअसल, अल्लाह तआला ने हमारे माल व दौलत में ज़रूरतमंद लोगों के लिए ज़कात के तौर पर एक हिस्सा मुक़र्रर किया है.

ये पूरे साल की आमदनी में से बचत का अढ़ाई फ़ीसद हिस्सा होता है. दरअसल हमारे माल व दौलत पर सिर्फ़ हमारा ही हक़ नहीं है, बल्कि इसमें उन सबका हक़ है, जिन्हें इसकी ज़रूरत है. इनमें हमारे क़रीबी रिश्तेदार, यतीम, मिस्कीन, पड़ौसी, मुसाफ़िर और मांगने वाले भी शामिल हैं.
 
क़ुरआन करीम में लोगों की मदद करने का हुक्म देने के साथ-साथ उन्हें इस नेक काम के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है. अल्लाह तआला फ़रमाता है- “जो लोग अपना माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल उस दाने की मानिन्द है जिससे सात बालियां निकलें और हर बाली में सौ दाने हों. और अल्लाह जिसके लिए चाहता है, इज़ाफ़ा कर देता है. और अल्लाह बड़ा वुसअत वाला बड़ा साहिबे इल्म है. (क़ुरआन 2: 261)
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अल्लाह तआला फ़रमाता है- “बेशक जो लोग ईमान लाए और नेक अमल करते रहे और पाबंदी से नमाज़ पढ़ते रहे और ज़कात अदा करते रहे, तो उनके लिए उनके परवरदिगार के पास उनका अज्र है. और क़यामत के दिन उन्हें न कोई ख़ौफ़ होगा और न वे ग़मगीन होंगे. (क़ुरआन 2:277)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ! लेकिन उन लोगों में से पुख़्ता इल्म वाले और मोमिन उस वही पर, जो तुम पर नाज़िल की गई है और उस वही पर, जो तुमसे पहले नाज़िल की गई, दोनों पर ईमान लाते हैं और वे पाबंदी से नमाज़ पढ़ने वाले और ज़कात देने वाले हैं और अल्लाह और क़यामत के दिन पर ईमान रखने वाले हैं. ऐसे ही लोगों को हम अनक़रीब बड़ा अज्र देंगे. (क़ुरआन 4:162)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “ऐ ईमान वालो ! बेशक तुम्हारा कारसाज़ तो अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही हैं और वे मोमिन भी हैं, जो पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात अदा करते हैं और वे अल्लाह की बारगाह में रुजू करने वाले हैं.” (क़ुरआन 5:55)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक दूसरे के रफ़ीक़ हैं और वे भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं और पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात अदा करते हैं और अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इताअत करते हैं. यही वे लोग हैं, जिन पर अल्लाह रहम करेगा. बेशक अल्लाह बड़ा ग़ालिब बड़ा हिकमत वाला है.” (क़ुरआन 9:71)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम पाबंदी से नमाज़ पढ़ा करो और ज़कात देते रहो और अल्लाह के अहकाम को मज़बूती से थामे रहो. और अल्लाह ही तुम्हारा मौला है और वही बेहतरीन मौला और वही बेहतरीन मददगार है. (क़ुरआन 22:78)
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अल्लाह तआला फ़रमाता है- “अल्लाह के इस नूर के हामिल वे लोग हैं, जिन्हें तिजारत और ख़रीद-फ़रोख़्त न अल्लाह के ज़िक्र से ग़ाफ़िल करती है और न नमाज़ पढ़ने से और न ज़कात अदा करने से, बल्कि वे लोग उस दिन से ख़ौफ़ रखते हैं, जिसमें दहशत से दिल और आंखें सब उलट पलट हो जाएंगे.” (क़ुरआन 24:37)

हक़ीक़त ये है कि जो लोग ज़रूरतमंदों की मदद करते हैं, उन्हें अल्लाह बहुत देता है. अपने आसपास नज़र डालें, तो ऐसे बहुत से लोग और मिसालें मिल जाएंगी. क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और तुम जो माल अल्लाह की ख़ुशनूदी की चाह में ज़कात व ख़ैरात के तौर पर देते हो, तो वही लोग अपना माल बढ़ाने वाले हैं.” (क़ुरआन 30:39)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “जो लोग पाबंदी से नमाज़ पढ़ते हैं और ज़कात देते हैं और जो आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं. यही लोग अपने परवरदिगार की तरफ़ से हिदायत पर हैं और यही लोग कामयाबी पाने वाले हैं.” (क़ुरआन 31:4-5)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और नमाज़ पाबंदी से पढ़ो और ज़कात देते रहो. और अल्लाह को क़र्ज़े-हसना दिया करो यानी अल्लाह की राह में ख़र्च किया करो और उसकी मख़लूक़ से हुस्ने-सुलूक करो. और तुम जो नेक आमाल आगे भेजोगे, तो अल्लाह के हुज़ूर में उसका बड़ा अज्र पाओगे.” (क़ुरआन 73:20)

अल्लाह तआला फ़रमाता है- “और उन लोगों को सिर्फ़ यही हुक्म दिया गया था कि वे अल्लाह ही की इबादत करें. हर बातिल से जुदा होकर अपनी इबादत को ख़ालिस रखें और पाबंदी से नमाज़ पढ़ें और ज़कात देते रहें.” (क़ुरआन 98:5)

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है- “सदक़ा परवरदिगार के गु़स्से को बुझा देता है और बुरी मौत से बचाता है.” 
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है- “ख़ैरात मत रोको, वरना तुम्हारा रिज़्क़ भी रोक लिया जाएगा.” 

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आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है- “सदक़ा करके अपने और अपने परवरदिगार के दरम्यान ताल्लुक़ पैदा करो. तुम्हें रिज़्क़ दिया जाएगा, तुम्हारी मदद भी की जाएगी और तुम्हारे नुक़सान की भरपाई भी की जाएगी.”

इसी तरह ईद उल अज़हा का त्यौहार भी दूसरों को मदद करने का पैग़ाम देता है. क़ुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से किए जाते हैं. एक हिस्सा ख़ुद का होता है, एक हिस्सा रिश्तेदारों का और एक हिस्सा ज़रूरतमंद लोगों का होता है.

आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें दो वक़्त पेटभर खाना भी नहीं मिल पाता. गोश्त के दाम भी आसमान छू रहे हैं. ऐसे में जिन लोगों के लिए दाल-सब्ज़ियां ख़रीदना मुश्किल है, वे गोश्त कहां से खा पाएंगे.

ईद उल अज़हा के मौक़े पर इन लोगों को गोश्त मयस्सर हो जाता है और वे भी पेटभर और दिलभर अपनी पसंद के पकवान खा लेते हैं. बहुत से लोग कई क़ुर्बानियां करते हैं. ऐसे बहुत से लोग अपनी ज़रूरतभर का गोश्त रोककर बाक़ी ज़रूरतमंदों में तक़सीम करवा देते हैं.

मदरसों में भी गोश्त भेजा जाता है. बहुत से ऐसे लोग भी हैं, जो क़ुर्बानी का गोश्त इकट्ठा करके उन इलाक़ों में तक़सीम करते हैं, जहां के बाशिन्दे क़ुर्बानी करने की गुंजाइश नहीं रखते. 

बहुत से लोग क़ुर्बानी का गोश्त पकवाकर ज़रूरतमंदों में बांट देते हैं. इसके अलावा जानवरों की खालों के पैसे ज़रूरतमंदों पर ख़र्च किए जाते हैं.
    
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये दोनों ही त्यौहार ज़रूरतमंदों की मदद करने का एक ख़ूबसूरत ज़रिया हैं. बेशक ख़ुशी बांटने से बढ़ जाती है और ग़म बांटने से कम हो जाता है. बहरहाल, ख़ुशियां बांटने का ये सिलसिला यूं ही जारी रहे. आमीन !     

(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)