मुस्लिम महिला घुड़सवार, इस्लामिक इतिहास से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी तक
फ़िरदौस ख़ान
घुड़सवारी एक खेल ही नहीं,कला भी है. यह बहादुरी की गाथा भी है और यह गाथा इस्लामिक इतिहास से लेकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तक फैली हुई है. पुरूष हो या महिला, जब घोड़े की पीठ पर सधकर बैठते हैं और उसकी सवारी करते हैं, तो कुछ अलग ही दिखते हैं. इसमें सवार को पूरी तल्लीनता से काम लेना होता है, क्योंकि जरा सी चूक से वह घोड़े की पीठ से नीचे गिर सकता है.
घुड़सवारी कब शुरू हुई, इसकी कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है. लेकिन इतना जरूर है कि इंसान हजारों सालों से घोड़े की सवारी करता आ रहा है. कुरान में भी इसका जिक्र है और इस्लामिक इतिहास से लेकर आज तक अनेक मुस्लिम घुड़सवार हुई हैं.
दक्षिण लंदन की खदीजा मल्लाह की गिनती इस समय दुनिया की चुनिंदा महिला घोड़सवारों मंे होती है. 21 वर्षीय मुस्कान बिखेरने वाली यह घुड़सवार ब्रिटिश मुस्लिम महिलाओं की प्रेरणा बनी हुई हैं. कमाल यह है कि यह हिजाब में घुड़सवारी करती हैं.
खदीजा मल्लाह
इस्लामी तारीख में बेमिसाल घुड़सवार औरतें
घुड़सवारी सिर्फ मर्दों का शगल नहीं है. औरतें भी बखूबी घुड़सवारी करती रही हैं. इस्लामी तारीख में ऐसी औरतों का जिक्र बड़ी इज्जत से किया गया है, जो बहुत उम्दा घुड़सवार थीं. इनमें हजरत नुसायबह बिन्त काब रज़ियल्लाहु अन्हा का नाम प्रमुख है.
उन्हें उम्म और अम्मारा नाम से भी जाना जाता है. वे मदीना के बानू नज्जर कबीले से ताल्लुक रखती थीं. वे बेहद उम्दा घुड़सवार थीं. उन्होंने दूसरी बैत-उल-अकाबा, जंगे-उहुद, जंगे-हुनैन, जंगे-यमामा और जंगे-हुदैबिया की संधि जैसी कई जंगों में शिरकत की थी.
वे जंगे-उहुद में अल्लाह के पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की साथी थीं. उन्होंने पैगंबर को दुश्मनों के हमले से बचाया था. इसी तरह हजरत खौला बिन अल अजवार रजियाल्लाहु अन्हा भी अपनी बेमिसाल घुड़सवारी और बहादुरी के लिए जानी जाती हैं.
घुड़सवारी में तीन मूव होते हैं, जिनमें शो जंपिंग, इवेंटिंग और ड्रैसेस
जब उनके भाई को दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया, तो वे अपने भाई को छुड़ाने के लिए निकलीं. वे इतनी तेज घुड़सवारी करती थीं कि दुश्मनों के पसीने छूट जाते थे. उन्हें देखकर कोई ये नहीं कह सकता था कि वह औरत हैं. वह मर्दों की तरह तेज घुड़सवारी करती थीं.
सबको यही लगता था कि कोई मर्द घुड़सवारी कर रहा है. जब उनके चेहरे से नकाब हटा तो दुश्मन उन्हें देखकर दंग रह गए. उन्होंने इससे पहले किसी औरत को इतनी उम्दा घुड़सवारी करते नहीं देखा था. ये औरतें एक हाथ में तलवार लेकर घुड़सवारी किया करती थीं. दाएं हाथ में तलवार होती और बाएं हाथ में घोड़े की लगाम.
इस्लामी तारीख में ऐसी औरतों की बहुत सी मिसालें हैं, जो बेहद शानदार घुड़सवारी किया करती थीं. उन्हें बाकायदा घुड़सवारी सिखाई जाती थी, ताकि जरूरत पड़ने पर उनके काम आ सकंे. यह इस बात की भी दलील है कि इस्लाम ने औरतों को किसी भी जायज काम से रोका नहीं है.
आज जो लोग लड़कियों और औरतों पर बिना वजह की पाबंदियां लगाते हैं, दरअसल वे इस्लाम को जानते नहीं. औरतों को कमतर समझने की सोच ने मुस्लिम औरतों की काबिलियत के किस्सों को पुरानी किताबों में दफन करके रख दिया है.
वे औरतों की दानिशमंदी, उनकी बहादुरी और उनकी काबिलियत की तारीफ करना नहीं चाहते. उन्हें लगता है कि शायद ऐसा करने से वे औरतों को घर की चारदीवारी तक कैद करके नहीं रख पाएंगे. आज इस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है कि इस्लाम की बुनियादी तालीम को जन-जन तक पहुंचाया जाए. लोगों को बताया जाए कि इस्लाम में भी औरतों को अपनी काबिलियत दिखाने का पूरा मौका दिया गया है.
शानदार घुड़सवारी करती बेटियां
यह खुशनुमा बात है कि तमाम पाबंदियों के बावजूद आज मुस्लिम समाज की लड़कियां आगे आ रही हैं. वे अपनी कामयाबी के परचम लहरा रही हैं. ऐसी ही एक घुड़सवार हैं साइमा सैयद, जो राजस्थान के सीकर जिले के कस्बे खाटू की रहने वाली हैं.
साइमा ने एक्वेस्ट्रियन फेडरेशन ऑफ इंडिया और ऑल इंडिया राजस्थानी हॉर्स सोसाइटी के गुजरात चैप्टर के तत्वावधान में 17-18 फरवरी 2021 को अहमदाबाद में आयोजित ऑल इंडिया ओपन एंड्यूरेंस प्रतियोगिता में शिरकत की थी.
उन्होंने 80 किलोमीटर के इस मुकाबले में देश के कई विख्यात घुड़सवारों को टक्कर देते हुए कांस्य पदक जीता था. इसके साथ ही उन्होंने इस मुकाबले में क्वालीफाई भी किया था. अपने शानदार प्रदर्शन के दम पर वह देश की ऐसी पहली महिला घुड़सवार बन गईं, जिसने वन स्टार केटेगरी हासिल है.
इससे पहले उन्होंने 40 किलोमीटर, 60 किलोमीटर और 80 किलोमीटर के मुकाबलों में पदक हासिल करते हुए क्वालीफाई किया था. वन स्टार राइडर बनने के लिए 40 और 60 किलोमीटर की एक-एक और 80 किलोमीटर के दो मुकाबलों में क्वालीफाई करना होता है.
काबिले- गौर बात यह है कि घुड़सवारी के एंड्यूरेंस मुकाबले में पुरुषों और महिलाओं के अलग-अलग मुकाबले नहीं होते, बल्कि महिलाओं को भी पुरुषों के साथ ही जद्दोजहद करके जीत हासिल करनी होती है.
महिला घुड़सवारी की गाथा इस्लामिक इतिहास से अलीगढ़ यूनिवर्सिटी तक फैली हुई है
इससे पहले साइमा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए ‘वंडर वूमेन’ का खिताब हासिल किया था. इसके साथ ही वह शो जम्पिंग और हेक्स आदि मुकाबलों में भी हिस्सा लेकर कई पदक जीत चुकी हैं. साइमा को बचपन से ही घुड़सवारी का शौक था.
उन्हें बखूबी आता है कि कैसे घोड़ों को दौड़ाना है और कैसे उन्हें काबू में करना है. घुड़सवारी की उनकी शुरुआत स्कूल से हुई थी. उन्होंने बाकायदा घुड़सवारी का प्रशिक्षण लिया है. उन्होंने महज दस साल की उम्र में 100 मीटर की दौड़ में अपना पहला पदक जीता था.
उसके बाद उन्होंने बहुत से मुकाबलों में हिस्सा लिया और तकरीबन 50 पदक जीतकर अपने खानदान और शहर का नाम रौशन किया.
एएमयू की कुलुम हैं उभरती घुड़सवार
इसी दिसंबर में गाजियाबाद में आयोजित उत्तर प्रदेश राज्य स्तरीय घुड़सवारी प्रतियोगिता में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की छात्रा कुलसुम सलाहुद्दीन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए स्वर्ण पदक हासिल किया.
दरअसल, लड़कियों और महिलाओं की कामयाबी में इनके परिवार वालों का भी बहुत बड़ा योगदान होता है. उनकी मां और घर की दूसरी औरतें उन पर घर के कामकाज का बोझ नहीं डालतीं. इस तरह उन्हें अपनी पढ़ाई के साथ-साथ दूसरी चीजों के लिए भी काफी वक्त मिल जाता है.
उनके पिता, भाई व परिवार के अन्य पुरुष भी उन पर पाबंदियां नहीं लगाते, बल्कि जरूरत पड़ने पर उनकी मदद ही करते हैं. इस तरह परिजनों का साथ मिलने पर उनके कुछ कर गुजरने के उनके जज्बे को पंख मिल जाते हैं.
कुलसुम उत्तर प्रदेश हॉर्स शो, राज्य स्तरीय घुड़सवारी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक और क्षेत्रीय गाजियाबाद हॉर्स शो में रजत पदक जीत चुकी हैं.वह कहती हैं,“इन आयोजनों में भागीदारी शीर्ष स्तर पर एएमयू का प्रतिनिधित्व करने का एक अवसर मिला. पदक जीतने वाले प्रदर्शन बड़े आयोजनों के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं. मुझे अभी भी बहुत कुछ सीखना है और यूनिवर्सिटी के लिए और जीतना है.”
कुलसुम इससे पहले कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर की घुड़सवारी प्रतियोगिताएं जीत चुकी हैं. वह एएमयू हॉर्स राइडिंग क्लब में सेक्शन कमांडर और भूगोल विभाग में पीएचडी की छात्रा हैं.
घुड़सवारी में पुरूषों का वर्चस्व, पर महिलाएं भी पीछे नहीं
पुरुषों के वर्चस्व वाले इस खेल में महिलाएं बहुत कम हैं. लेकिन कहते हैं कि वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता. वक्त के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है. अब घुड़सवारी में भी लड़कियां आगे आ रही हैं.
देश में ऐसी कई महिला घुड़सवार हैं, जो अपने शानदार प्रदर्शन से अपने घर, शहर, राज्य और देश का नाम रौशन कर रही हैं. पिछले सितंबर में भारतीय घुड़सवारी टीम ने जॉर्डन की वादी रम में आयोजित महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय टेंट पेगिंग चौंपियनशिप में पदार्पण में कांस्य पदक जीतकर देश का नाम रौशन किया.
भारतीय टीम में रितिका दहिया, प्रियंका भारद्वाज और खुशी सिंह शामिल थीं. भारतीय घुड़सवारी महासंघ के मुताबिक इस प्रतियोगिता में कुल 14 देशों ने हिस्सा लिया था. भारतीय टीम ने पदार्पण में ही अपनी मौजूदगी दर्ज कराई और 136 अंक हासिल किए.
इस प्रतियोगिता में 170.5 अंक के साथ दक्षिण अफ्रीका की टीम पहले और 146 अंक के साथ ओमान की टीम दूसरे स्थान पर रही. प्रतियोगिता के पहले दिन कप्तान दहिया और भारद्वाज ने व्यक्तिगत और पेयर्स लांस स्पर्धा में हिस्सा लिया.
टीम पहले दिन के आखिर में सातवें स्थान पर चल रही थी. दूसरे दिन भारत ने व्यक्तिगत और टीम स्वॉर्ड मुकाबले में हिस्सा लिया और 24 अंक से दूसरा स्थान हासिल कर लिया. व्यक्तिगत स्पर्धा में खुशी सिंह ने 18 अंक से पहला स्थान हासिल किया. उन्होंने ने भारत के लिए एक स्वर्ण पदक, रजत पदक और एक कांस्य पदक जीता.
ज्योतिका हसन
महज 14 साल की उम्र से घुड़सवारी करने वाली ज्योतिका हसन वालिया भी अंतरराष्ट्रीय स्तर की घुड़सवार हैं. वह साल 1996 में जूनियर भारतीय टीम की कप्तान रह चुकी हैं. उत्तराखंड की रहने वाली ज्योतिका ने दिसंबर 2019 में दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड जंपिंग चौंपियनशिप में 130 मीटर की ऊंचाई में घुड़सवारी करके कांस्य पदक जीता था.
इससे पहले उन्होंने अप्रैल 2017 में बेल्जियम में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में चौथा स्थान हासिल किया था.ये सब महिला घुड़सवार लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी हुई हैं. इस मुकाम तक पहुंचने के लिए इन्होंने कड़ी मेहनत की है.
पुरूषों के खेल में महिला घुड़सवार भी कुछ कम नहीं
अगर लड़कियों को खेलों व अन्य क्षेत्रों में काम करने का मौका मिले, तो वे साबित कर देती हैं कि वह भी किसी से कम नहीं हैं. बस जरूरत होती है उन्हें काम करने का मौका देने की और उनका हौसला बढ़ाने की.
उन्हें बस रास्ते पर चलने की इजाजत भर मिल जाए. फिर वह खुद रास्ता तय कर लेती हैं और रास्ते में आने वाली तमाम तरह की रुकावटों का सामना भी कर लेती हैं. वे जानती हैं कि वे अपनी मंजिल हासिल कर सकती हैं.