बच्चों का ग़ुस्सा एक भाषा है — क्या हम सुन पा रहे हैं?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 03-07-2025
Children's anger is a language—are we listening?
Children's anger is a language—are we listening?

 

भाग- दो

सपना वैद्य

"मुझे नहीं पता मैं क्यों ग़ुस्से में हूँ, लेकिन मैं ग़ुस्से में हूँ."

अगर आज के बच्चे अपनी भावनाओं को खुलकर कह पाते, तो शायद यही सबसे आम वाक्य होता. और सच पूछिए, तो क्या हम उन्हें दोष दे सकते हैं?

वे एक ऐसी दुनिया में पल रहे हैं जहाँ उनसे बहुत कुछ माँगा जाता है, लेकिन बहुत कम समझाया जाता है. एक ओर उन्हें दयालु, संवेदनशील और समझदार बनने को कहा जाता है, और दूसरी ओर वे ऑनलाइन क्रूरता, दिखावे और सतही लोकप्रियता को इनाम की तरह हासिल होते देखते हैं.

स्कूल उन्हें मेहनत और अनुशासन सिखाता है, लेकिन सोशल मीडिया उन्हें यह दिखाता है कि शरारत, विद्रोह और ग्लैमर अधिक प्रभावशाली है. इस दोहराव और विरोधाभास में उनका मन एक सवाल उठाता है – अगर अच्छाई का कोई इनाम नहीं है, तो मैं अच्छा क्यों बनूं ?

आज के बच्चे थके हुए हैं. उनके दिमाग़ लगातार सक्रिय रहते हैं — स्कूल, कोचिंग, हॉबी क्लास, घर की अपेक्षाएं, और फिर वह अनगिनत डिजिटल कंटेंट, जो कभी ख़त्म नहीं होता. इंस्टाग्राम, यूट्यूब, व्हाट्सएप, स्नैपचैट — ये केवल ऐप्स नहीं हैं, ये ऐसे शोर से भरे मंच हैं जहाँ बच्चे अपने अस्तित्व की पुष्टि ढूँढते हैं.

स्क्रॉल करना अब मनोरंजन नहीं रहा, बल्कि सामाजिक अस्तित्व की एक अनकही मजबूरी बन चुका है. और इस सब के बीच, हम वयस्क उन्हें “आलसी”, “आदी” या “बिगड़े हुए” कहकर टाल देते हैं.

पर क्या वे वाकई आलसी हैं ? या फिर वे बस एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जो हर मोर्चे पर उन्हें अभिभूत कर रही है ?

स्कूल, घर और ऑनलाइन दुनिया — तीनों अलग-अलग भूमिकाएं निभाने को कहती हैं. घर में परंपराएं निभाओ, स्कूल में सिस्टम को अपनाओ, और इंटरनेट पर अलग दिखो. हम कहते हैं, “अपने जैसा बनो”, लेकिन जैसे ही वो कुछ नया सोचते या करते हैं, हम तुरंत उन्हें “सही रास्ता” दिखाने लगते हैं. यह विरोधाभास उन्हें गहराई से भ्रमित करता है.

उनकी भावनाएं भी सवालों के घेरे में हैं. अगर वे आहत हों, तो कहा जाता है, “इतने संवेदनशील क्यों हो ?” या “हमारे ज़माने में तो…” लेकिन हम भूल जाते हैं कि उनका ज़माना हमारे ज़माने से अलग है. उनका बचपन वह नहीं है जो हमने जिया — यहाँ हर पल स्क्रीन, सोशल तुलना और साइबर दबाव का सामना है.

और जब शब्द कम पड़ जाते हैं, तो ग़ुस्सा, चुप्पी और विद्रोह बोलने लगते हैं. हो सकता है, यह “विद्रोह” नहीं — एक विनती हो: “मैं ठीक नहीं हूँ, बस सुनो.”

आज उनके सिर पर साथियों का दबाव केवल स्कूल तक सीमित नहीं है. वे उन प्रभावशाली चेहरों को फॉलो करते हैं, जिनसे वे कभी नहीं मिले, लेकिन जिनका प्रभाव उनके आत्मविश्वास और सोच पर भारी पड़ता है. अगर वे ट्रेंड नहीं पकड़ते, तो उन्हें उबाऊ कहा जाता है. अगर वे ट्रेंड पकड़ते हैं, तो “कॉपीकैट”. चाहे जो करें, हर विकल्प में जजमेंट है.

और ऐसे में, वे चाहते हैं — सिर्फ़ एक जगह — जहाँ वे साँस ले सकें, जहाँ उनसे प्रदर्शन न माँगा जाए, जहाँ वे असमंजस में भी स्वीकार किए जाएँ.

यहीं हम वयस्कों की भूमिका शुरू होती है — समझाने वालों की नहीं, सुनने वालों की.

बच्चों को हर समस्या का हल नहीं चाहिए, कभी-कभी बस यह भरोसा चाहिए कि कोई उन्हें देख और समझ रहा है. वे प्रोजेक्ट नहीं हैं; वे व्यक्ति हैं. वे थक सकते हैं, सवाल कर सकते हैं, अलग सोच सकते हैं — बिना इस डर के कि उन्हें ‘बिगड़ा’ कहा जाएगा.

दरवाज़े पटकना, नज़रें फेरना, चुप्पी ओढ़ लेना — ये नखरे नहीं, संवाद हैं. ये संकेत हैं कि “मैं संघर्ष में हूँ, मुझे समझो.”

हम अक्सर कहते हैं कि बच्चों ने गैजेट्स की वजह से घर से दूरी बना ली है. लेकिन शायद असल कारण यह है कि उन्हें लगता है — असली दुनिया में उनकी बात सुनी नहीं जाती. वहाँ उन्हें नियंत्रण नहीं, केवल निर्देश मिलते हैं. वहीं स्क्रीन पर, वे कम से कम यह तय कर सकते हैं कि अगला वीडियो क्या देखना है.

अब वक़्त है कि हम यह पूछना बंद करें — “बच्चों को क्या हो गया है?”
और यह पूछना शुरू करें — “वे हमें क्या कहना चाह रहे हैं जो हम नहीं सुन पा रहे?”

पेरेंटिंग अब केवल नियमों और निर्देशों का काम नहीं रहा। यह एक नई भाषा सीखने का काम है — वह भाषा, जो आदेश नहीं, करुणा से बनी हो; जो प्रतिक्रिया नहीं, उत्सुकता से भरी हो.

हो सकता है कि बच्चे विद्रोह नहीं कर रहे हों — वे शायद बस इतना कह रहे हों:"मुझे मत छोड़ो। मुझे सुनो। मुझे समझो."

और शायद अब वक़्त आ गया है कि हम उनकी चुप्पी पर ग़ुस्सा करने के बजाय — बस उनके पास बैठ जाएँ.

जारी.....