राकेश चौरसिया
भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक पुनर्जागरण में स्वामी विवेकानंद का योगदान अद्वितीय है. उन्हें प्रायः हिन्दू धर्म के एक प्रखर प्रतिनिधि और वेदांत दर्शन के महान प्रचारक के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह बहुत कम लोगों को पता है कि स्वामी विवेकानंद ने न केवल हिन्दू समाज के भीतर सुधारों की बात की, बल्कि भारत के बहुधार्मिक ताने-बाने में मुसलमानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को भी सराहा.
उनके भाषणों और पत्रों में अनेक बार इस्लाम के प्रति उनके सकारात्मक विचार सामने आते हैं. यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि स्वामी विवेकानंद ने मुसलमानों के बारे में क्या कहा था, वे उनके साथ किस तरह के संबंध बनाना चाहते थे और उन्होंने भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए क्या दृष्टिकोण रखा.
स्वामी विवेकानंद का जन्म 1863 में हुआ, जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था। सामाजिक स्तर पर जातिगत भेदभाव, धार्मिक संघर्ष और साम्राज्यवादी षड्यंत्रों ने हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को जटिल बना रखा था. ऐसे में उन्होंने सभी भारतीयों को अपनी आत्मिक एकता का स्मरण कराया. स्वामी विवेकानंद ने एक जगह लिखा है, “हमारा देश एक विशाल बगीचा है, जिसमें हर धर्म का फूल खिला है. इन्हें एक-दूसरे से तोड़कर नहीं देखा जा सकता.” संदर्भः उनके पत्रों का संकलन)
इस्लाम के प्रति दृष्टिकोण
स्वामी विवेकानंद ने इस्लाम की ताकत, अनुशासन और भाईचारे की भावना की खुले दिल से प्रशंसा की. 1897 में रामकृष्ण मिशन के एक संवाद में उन्होंने कहा था, “मुसलमानों में भाईचारा, एकता और कर्तव्य-भाव की अद्भुत शक्ति है.हिन्दुओं को उनसे यह गुण सीखना चाहिए.”
उनका मानना था कि हिन्दू समाज में जहाँ आत्मिक शक्ति है, वहीं इस्लाम में संगठन और बलिदान की भावना है. उन्होंने कहा था, “भारत के उत्थान के लिए हिन्दू धर्म की गहराई और इस्लाम की शक्ति, दोनों का मेल चाहिए.” (संदर्भः कोलंबो टू आलमोड़ा)
हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर
स्वामी विवेकानंद ने 1897 में कोलंबो से आलमोड़ा तक यात्रा के दौरान कई बार हिन्दू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता को रेखांकित किया. उन्होंने कहा था, “जब तक हिन्दू और मुसलमान मिलकर नहीं चलेंगे, भारत का उद्धार असंभव है.” उनका दृष्टिकोण किसी एक समुदाय को नीचा दिखाना नहीं था, बल्कि वे मानते थे कि दोनों समुदायों की विशेषताओं का समन्वय होना चाहिए.
इस्लाम को सराहा
स्वामी विवेकानंद ने इस्लाम की कुछ बातों को विशेष रूप से प्रशंसनीय माना. एकेश्वरवाद पर वे कहते थे कि इस्लाम का सख्त एकेश्वरवाद (‘तौहीद’) मनुष्य को मानसिक रूप से केंद्रित रखता है. समानता के संदर्भ में उन्होंने इस्लाम में जातिगत ऊँच-नीच को नकारने की परंपरा की तारीफ की.
संगठन शक्ति के विषय पर मुसलमानों में नमाज, रोजा जैसे अनुशासन ने उन्हें संगठित रहने में मदद की. भाईचारे पर उन्होंने कहा, “इस्लाम ने लाखों लोगों को एक झंडे के नीचे खड़ा किया. यह कम बड़ी बात नहीं।” उनके कुछ ऐतिहासिक उद्धरण इस संदर्भ को प्रामाणिक बनाते हैं. मसलन - “हमारे हिन्दू भाइयों को मुसलमानों से संगठन और दृढ़ निष्ठा सीखनी चाहिए.” “भारत में कोई पराया नहीं हैः हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी एक परिवार के सदस्य हैं.”
मुस्लिम मित्र और शिष्य
स्वामी विवेकानंद का जीवन मुसलमानों से घृणा से भरा नहीं था, बल्कि उनके कई मुस्लिम मित्र और शिष्य भी थे. उदाहरण के लिए, उनके रीतिकालीन मित्र अब्दुल करीम से उनका पत्राचार मिलता है, जिसमें वे मुसलमानों की शिक्षा और सामाजिक उत्थान की चिंता व्यक्त करते हैं.
स्वामी विवेकानंद ने उस समय हिन्दू-मुस्लिम समाज में फूट डालने वाली ब्रिटिश नीतियों पर भी हमला किया था. उन्होंने कहा था, “हमारे शत्रु हमारी एकता को तोड़ने में लगे हैं. यह समय एक-दूसरे को दोष देने का नहीं, बल्कि मिलकर खड़े होने का है.”
वर्तमान समय में जब धार्मिक असहिष्णुता की घटनाएँ सुर्खियाँ बन जाती हैं, स्वामी विवेकानंद का यह दृष्टिकोण हमें यह सिखाता है कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के शत्रु नहीं, बल्कि सहअस्तित्व के सहयोगी हैं. उनके अनुसार धर्म का सही मर्म मानवता को जोड़ना है, तोड़ना नहीं.
सुप्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार, लिखते हैं, “स्वामी विवेकानंद का हिन्दू राष्ट्रवाद कभी संकुचित नहीं था. उन्होंने इसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक स्वरूप में ही देखा.” अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के डॉ. अशफाक अहमद कहते हैं, “स्वामी विवेकानंद के विचारों को मुस्लिम युवाओं में भी समझना जरूरी है. उनका यह दृष्टिकोण आज के समय में धार्मिक सहिष्णुता को मजबूती देता है.”
असली धर्म
इतिहास में ऐसे महापुरुषों की दृष्टि प्रासंगिक तभी रहती है, जब उसे सामाजिक व्यवहार में अपनाया जाए. स्वामी विवेकानंद ने कभी भी धार्मिक एकता को केवल भाषण तक सीमित नहीं रखा. रामकृष्ण मिशन ने बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के मुस्लिम बहुल इलाकों में शिक्षा और सेवा कार्य चलाए.
यह उनकी दृष्टि की व्यावहारिक परिणति थी. स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनके कथनों से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को द्वंद्व के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्हें भारतीय समाज के दो मजबूत स्तंभ माना. उनके लिए धर्म आत्मा को ऊँचा उठाने का माध्यम था, न कि विवाद या नफरत का कारण.
आज जब चारों ओर धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति बढ़ रही है, स्वामी विवेकानंद का यह दृष्टिकोण और अधिक प्रासंगिक हो जाता है. उनकी वाणी हमें यह याद दिलाती है, “जहाँ धर्म मानवता को बाँटने लगे, समझो धर्म का पतन हो चुका है। असली धर्म वह है जो सबको साथ लेकर चले.”
इस प्रकार स्वामी विवेकानंद का हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे पर आधारित दृष्टिकोण, इस्लाम के प्रति उनकी सकारात्मक सोच और सहिष्णुता के सिद्धांत आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं. अगर हम चाहते हैं कि भारत सच्चे अर्थों में ‘विविधता में एकता’ को जिए, तो विवेकानंद की इन शिक्षाओं को केवल किताबों तक सीमित न रखें, बल्कि व्यवहार में उतारें.
(स्रोतः स्वामी विवेकानंद के भाषण, पत्र संकलन, ‘कोलंबो टू आलमोड़ा’, ‘कम्प्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद’ व विशेषज्ञ साक्षात्कार)