-फ़िरदौस ख़ान
भारत एक ऐसा प्यारा देश है, जहां विभिन्न संस्कृतियां एक ही रूप धारण कर लेती हैं. मुहर्रम भी इसकी एक ज़िन्दा मिसाल है. मुहर्रम हमें कर्बला के शहीदों की याद दिलाता है. चूंकि इस्लामी साल के पहले महीने मुहर्रम में अल्लाह के आख़िरी रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथी शहीद हुए थे. इस माह उनका ग़म मनाया जाता है. इसी वजह से मुसलमान नये साल का जश्न नहीं मनाते. किसी ने क्या ख़ूब कहा है-
मेरी ख़ुशियों का सफ़र ग़म से शुरू होता है
मेरा हर साल मुहर्रम से शुरू होता है
जुलूस और धार्मिक यात्राओं में समानता
मुहर्रम से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं, जिनमें भारतीय संस्कृति प्रभाव साफ़ दिखाई देता है. मुहर्रम में जुलूस निकाला जाता है. यह जगज़ाहिर है कि भारत में जुलूस यानी धार्मिक यात्राएं निकालने की परम्परा सदियों से चली आ रही है.
उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी में हर साल जगन्नाथ यात्रा निकाली जाती है. पौराणिक कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारका जा रहे थे, तो उन्होंने राधा और व्रजवासियों को वचन दिया था कि वे हर साल उनसे मिलने ज़रूर आएंगे. उनके इसी वचन के अनुसार हर साल पुरी में जगन्नाथ यात्रा निकाली जाती है. इस तरह श्रीकृष्ण हर साल अपने भक्तों से मिलने आते हैं.
इसी प्रकार विजय दशमी पर पश्चिम बंगाल में दुर्गा देवी की शोभा यात्रा निकाली जाती है. दशहरे पर राम, लक्ष्मण और सीता की शोभा यात्रा निकाली जाती है. रामनवमी पर राम की शोभा यात्रा निकाली जाती है. जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण की शोभा यात्रा निकाली जाती है.
शिवरात्रि पर शिव की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इसे शिव का विवाह उत्सव भी कहा जाता है. गणेश चतुर्थी पर गणेश की शोभा यात्रा निकाली जाती है. कहने का मतलब यह है कि देश में सालभर किसी न किसी की शोभा यात्रा निकलती ही रहती है. दरअसल ये यात्राएं भारतीय संस्कृति की संवाहक हैं और परम्पराओं को जीवित रखने का एक सशक्त माध्यम भी हैं.
अंतर बस इतना है कि मुहर्रम का जुलूस ग़म में निकाला जाता है. इन दिनों में कर्बला के शहीदों की याद ताज़ा हो जाती है. लोग उनके दर्द को महसूस कर ज़ारो-क़तार रोते हैं. उन्हें दुनिया बेरंग नज़र आती है.इसके दूसरी ओर शोभा यात्राएं उल्लास का प्रतीक हैं. श्रद्धालु हर्षोल्लास से अपने इष्ट देवी-देवताओं की शोभा यात्राएं निकालते हैं.
आशूरा के दिन सभी ताज़िये ज़मीन में दफ़न कर दिए जाते हैं, बिल्कुल इस तरह जैसे मैयत को दफ़नाया जाता है. लोगों के चेहरे ग़मज़दा होते हैं. इसके दूसरी ओर देवी दुर्गा और गणेश की प्रतिमाओं को जल में विसर्जित किया जाता है. इस विसर्जन के बाद श्रद्धालु अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं. उनके मुख पर प्रसन्नता होती है.
उल्लेखनीय यह भी है कि भारत में प्राचीन काल से ही अपने मृतजनों को याद करने की परम्परा चली आ रही है. श्राद्ध इसका उदाहरण है. श्राद्ध में पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त की जाती है. मान्यता यह है कि जिन पूर्वजों के कारण हमारा अस्तित्व है यानी हम जिन पूर्वजों का अंश हैं, हम उनके ऋणी हैं.
इसीलिए श्राद्ध में लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति और शान्ति के लिए दान-पुण्य करते हैं. लोगों को खाना खिलाते हैं. इस दौरान कोई शुभ और मंगल कार्य नहीं किया जाता. श्राद्ध के बीतने के बाद ही शुभ और मंगल कार्य किए जाते हैं.
इसी तरह शिया और हज़रत अली अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से मुहब्बत करने वाले सुन्नी मुसलमान भी मुहर्रम से चेहलुम तक शादी-ब्याह और गृह प्रवेश जैसा ख़ुशी का कोई काम नहीं करते. वे नये कपड़े और ज़ेवर आदि की ख़रीददारी भी नहीं करते. इस दौरान सिर्फ़ रोज़मर्रा की ज़रूरतभर का सामान ही ख़रीदा जाता है.
मुहर्रम के महीने में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और कर्बला के दीगर शहीदों की याद में जुलूस निकाला जाता है. इस दौरान वे काले कपड़े पहनते हैं. जुलूस में अलम भी होते हैं. इसे हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के उस परचम की याद में बनाया जाता है, जो कर्बला में उनकी फ़ौज का निशान था.
परचम पर पंजे का निशान होता है. इस निशान का ताल्लुक़ पंजतन पाक यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हज़रत बीबी फ़ातिमा ज़हरा सलाम उल्लाह अलैहा, हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से है.
मलीदा व अन्य तबर्रुक
मुहर्रम में मजलिस के बाद तबर्रुक बांटा जाता है. तबर्रुक में मलीदा भी होता है. यह एक पारम्परिक व्यंजन है, जो दूध से बनी मीठी रोटी से बनाया जाता है. इसमें मेवे भी डाले जाते हैं. इसके अलावा मीठी रोटी, जलेबी, लड्डू और ज़र्दा भी बांटा जाता है.
मुहर्रम में खाना ख़ासकर बिरयानी भी बांटी जाती है. आजकल वेज बिरयानी बांटने का चलन बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि मुहर्रम के जुलूस में अन्य धर्मों ख़ासकर हिन्दू भी बढ़-चढ़कर शामिल होते हैं. बहुत से लोग नॉनवेज नहीं खाते, इसलिए वेज बिरयानी बांटी जाती है.
मुहर्रम के तबर्रुक के लिए हिन्दू महिलाओं के मन में बड़ी श्रद्धा और विश्वास है. वे तबर्रुक के चावलों को सुखाकर रख लेती हैं. जब उनका कोई परिजन बीमार होता है, तो वे चावल के कुछ दाने उसे खिला देती हैं. इससे वह ठीक हो जाता है. यह उनकी श्रद्धा का ही परिणाम है.
मुहर्रम की ही तरह देश में विभिन्न अवसरों पर भंडारे लगाए जाते हैं. इन भंडारों के ज़रिये बहुत से लोगों को भरपेट अच्छा खाना मिल जाता है.
सबीलें और छबीलें
मुहर्रम में शर्बत की सबीलें भी लगाईं जाती हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में सदियों से एकादशी के दिन ख़ासकर निर्जला एकादशी पर छबीलें लगाकर शर्बत बांटा जाता है. इस तरह भीषण गर्मी में प्यासे राहगीरों को शीतल जल और शर्बत पिलाकर राहत पहुंचाई जाती है.
मुहर्रम में सबीलों के लिए कुछ बच्चे घर-घर जाकर ठीक उसी तरह चन्दा इकट्ठा करते हैं, जैसे लोहड़ी से पहले हिन्दू बच्चे घर-घर जाकर पैसे इकट्ठे करते हैं. दरअसल मुहर्रम व अन्य अवसरों पर खाना बांटने और शर्बत पिलाने जैसे काम हमें जनसेवा की प्रेरणा देते हैं.
(लेखिका आलिमा हैं और उन्होंने फ़हम अल क़ुरआन लिखा है)