छठ पूजा में क्यों होती है सूर्य की उपासना

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  onikamaheshwari | Date 25-10-2025
Why is the Sun worshipped during Chhath Puja?
Why is the Sun worshipped during Chhath Puja?

 

मंजीत ठाकुर
 
छठ का त्योहार आते ही देश के विभिन्न हिस्सों में लोग यह सवाल पूछने लग जाते हैं कि आखिर बिहार, झारखंड, पूर्वांचल या आसपास के क्षेत्र में ही छठ क्यों मनाया जाता है? यह पर्व कब से मनाया जा रहा है और हर वर्ग के लोगों में इस पूजा के विस्तार का राज क्या है? या फिर पूजा सूर्य की होती है तो छठि मैया के गीत क्यों गाए जाते हैं. 
 
छठ पर्व में कुछ बातें ऐसी हैं, जिन पर बारीकी से गौर करने की जरूरत है. पहली बात कि यह त्योहार सूर्य़ की पूजा का त्योहार है और इसमें उगते सूरज की ही नहीं, डूबते सूर्य की भी आराधना की जाती है.
 
 
इस त्योहार को मनाने के लिए किसी पुरोहित या कर्मकांड की जरूरत नहीं होती है और इस त्योहार में जातिगत भेदभाव से दूर होकर पूरे समाज की भागीदारी होती है. इसमें प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं, फल और बाकी के सामान जरूरी तौर पर स्थानीय प्रकृति के होते हैं. ऐसे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पर्व 'सभ्यता-पूर्व' पर्व है और इसकी जड़ें उस समय तक जाती हैं, जब समाज अपने ठोस रूप में संगठित होना शुरू नहीं हुआ था. शायद इसलिए भी इसमें सभी जाति-वर्ण के लोग एक जैसी श्रद्धा से भाग लेते हैं. 
 
देश के पूर्वी हिस्से खासकर मिथिला या देश के अन्य हिस्सों में ऐसे पर्व कई हैं, जूड़-शीतल, होली या खेती-किसानी से जुड़े बैशाखी जैसे त्योहार. ऐसे पर्वों को बाद में वैदिक साहित्यों से भी जोड़ दिया गया या उसमें उसे शामिल कर लिया गया हो- तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. छठ को भी कई लोग पौराणिक कहानियों से जोड़ते हैं, पर पूजा में पंडितों की जरूरत न होना या कम कर्मकांड ये साबित करते हैं कि छठ हमारी शास्त्रीय परंपरा का पर्व न होकर जनमानस से उपजा त्योहार है. 
 
प्रसिद्ध साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी किताब ''संस्कृति के चार अध्याय'' में संकेत दिया है कि हो सकता है इस प्रकार के पर्व उन अनार्य और जनजातीय महिलाओं द्वारा आर्यों की संस्कृति में प्रविष्ट किए गए हों जिनसे विवाह आर्य लोगों ने इन क्षेत्रों में आगमन के बाद किया था. लेकिन इस तर्क में एक पेच हैं-जनजातीय लोग प्रकृतिपूजक तो थे, लेकिन सूर्योपासक भी थे इस पर संदेह है! सूर्य तो आर्यों के देवता थे! 
 
 
सामाजिक विश्लेषक सुशांत झा के मुताबिक छठ से जुड़ा एक सिद्धांत शाकलद्वीपी ब्राह्मणों से भी संबद्ध है. कलद्वीपी ब्राह्मण बिहार के मगध और भोजपुर इलाकों में रहते हैं. संभवत: कुछ पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी. ये शाकलद्पीवी कौन थे? शाकलदीपी या शकद्वीपी ब्राह्मण वे थे जो शक द्वीप पर निवास करते थे जिसे आधुनिक समय में ईरान कहा जाता है. 
 
कहते हैं कि बहुत पहले इतिहास के किसी काल में कभी ये लोग मगध से ही शक द्वीप को गए थे और इसीलिए इन्हें मग भी कहा गया. लैटिन ग्रंथों में ईरान के प्राचीन निवासियों की एक जाति को मैगिज भी कहा गया है जो सूर्य के उपासक थे. गौर कीजिए कि ईरानी मूल के पारसी भी सूर्य के उपासक हैं. शाकलदीपी ब्राह्मणओं के कुलगीत को मगोपाख्यान कहा जाता है. 
 
लेकिन सवाल ये है कि ये शाकलदीपी ब्राह्मण ईरान से बिहार कैसे आए? सुशांत एक किस्सा सुनाते हैं कि कृष्ण के पुत्र थे साम्ब और साम्ब को कुष्ठ रोग हुआ तो वैद्यों ने उन्हें सूर्य की आराधना करने के लिए एक यज्ञ करने की सलाह दी. कुष्ठ रोग से जुड़ी भ्रांतियों की वजह से स्थानीय ब्राह्मणों ने इससे इनकार कर दिया तो कृष्ण ने शक द्वीप के ब्राह्मणों को द्वारका आमंत्रित किया जो सूर्य के उपासक भी थे और वैद्य भी. ऐसा भौगोलिक रूप से भी सही लगता है. 
 
कहते हैं कि साम्ब का रोग उन्होंने अपनी युक्तियों से दूर कर दिया और वहीं बस गए. इस प्रकार सूर्योपासक एक वर्ग गुजरात में बस गया. लेकिन बाद में भगवान श्रीकृष्ण के जीवनकाल में ही जब द्वारका का पतन हुआ और वह समुद्र में विलीन हो गई, तो ये शक-द्वीपीय ब्राह्मण मगध के इलाकों में बस गए जिसका महाभारत काल के बाद फिर से उदय हो रहा था. 
 
ये वही ब्राह्मण हैं जिनकी वजह से गंगा के दक्षिण भी सूर्य मंदिरों की एक श्रृंखला बनी और उनके पुरोहित ये शाकलदीपी ही होते हैं. शायद सूर्य की पूजा और छठ पूजा उस समय से शुरू हुई हो लेकिन यहां पर भी एक पेच है. ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा शुरू की गई सूर्योपासना में वैदिक मंत्र और कर्मकांड जरूर होने चाहिए थे लेकिन छठ पूजा में ऐसा नहीं है! 
 
 
एक बात और, गुजरात के भरुच में जो पहले भृगुकच्छ था, नर्मदा के तट पर है, और वहां सूर्य और उनकी पत्नी ऊषा की पूजा का बड़ा केंद्र था. वहां बाद में गुर्जर सम्राट जयभट्ट द्वीतीय ने एक विशाल सूर्य मंदिर की स्थापना भी की. गुर्जर राजागण वैसे भी बड़े सूर्योपासक हुए. यानी गुजरात में बसे शाकलदीपी ब्राह्मणों की वजह से वहां सूर्योपासना प्रचलित हुई जो बाद में मगध आई. हाल के कुछ शोध बताते हैं कि सूर्य मंदिरों की श्रृंखला गंगा से उत्तर मिथिला में थी. गंगा से दक्षिण ये श्रृंखला संभवत: उड़ीसा के कोणार्क तक पहुंच गई थी.
 
औरंगाबाद का देव, पटना का पुन्डारक , जिसका प्राचीन नाम पुण्यार्क था और झारखंड में कई जगह मिल रहे सूर्य मंदिर इस बात का संकेत करते हैं. ये बात सच है कि छठ पूजा सिर्फ मगध में ही नहीं होती, बल्कि मिथिला में भी उसी श्रद्धा से मनाई जाती है. सवाल यह है कि मिथिला में सूर्योपासना कब से शुरू हुई? सवाल यह भी है क्या कर्मकांडी विधि से सूर्योपासना और लोकाचार के रूप में छठ के तौर पर मनाई जाने वाली नदी और सूर्य की पूजा में कितनी साम्यता है और कितना अंतर है? 
 
महाभारत और विभिन्न पुराणों के आधार पर लिखे अपने ग्रंथ युगांधर में शिवाजी सावंत ने लिखा है कि एक बार स्यमंतक मणि को लेकर श्रीकृष्ण और बलराम में मतभेद हुआ और बलराम अपने समर्थकों के समूह के साथ मिथिला में आकर रहने लगे. उस जमाने में एक स्थान था प्राग्ज्योतिषपुर , जिसे आप आज के दौर का गुवाहाटी और आसपास का इलाका मान सकते हैं. तो श्रीकृष्ण ने जब प्रागज्योतिषपुर के राजा नरकासुर का वध किया तो फिर द्वारका वापसी के दरम्यान उन्होंने बलराम से मिथिला में मुलाकात की और उन्हें वापस लौटने के लिए मनाया. 
 
कहते हैं कि बलराम के बहुत सारे साथी उस प्रदेश में बस गए! क्या उस इलाके में यादवों की सघन आबादी का उस पौराणिक घटना से कोई संबंध है? क्या उस इलाके की भाषा मैथिली और गुजराती में कुछ समानता होने का यह कारण हो सकता है? क्या मैथिली, बांगला, नेपाली और गुजराती में कुछ सामानता के सूत्र उस पौराणिक घटना में निहित हो सकते हैं? यह गहन शोध का विषय है. हालांकि मौजूदा इतिहास लेखन में लोक-कथाओं और लोकगीतों को साक्ष्य के रूप में जगह नहीं दी जाती, लेकिन विद्वानों को इस दिशा में भी काम करना चाहिए. 
 
छठ पूजा के आसपास ही मिथिला में सामा-चकेबा का लोकपर्व मनाया जाता है जो भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है. सामा (या श्यामा!) कृष्ण की बेटी थी और साम्ब की बहन. भगवान श्रीकृष्ण का एक मंत्री था, नाम था चुरक या चुगला. चुगला वही जिसके नाम पर चुगली खाना कहावत है यानी पीठ पीछे शिकायत करना. सामा पर मंत्री चुरक ने एक ऋषि से अवैध संबंध के शिकायत भगवान श्रीकृष्ण से कर दी,  जिसपर श्रीकृष्ण ने सामा को पक्षी बनने का श्राप दे दिया. बाद में साम्ब ने तपस्या कर कृष्ण को इस बात के लिए मनाया कि वे सामा को श्राप मुक्त करे. 
 
 
भाई के प्रेम को देखकर कृष्ण ने कहा कि सामा साल में एक बार आठ दिनों के लिए मनुष्य रूप में सामने आएगी और उसी दौरान सामा-चकेबा का पर्व मनाया जाता है. मिथिला के लोकगीतों में मंत्री चुरक (चुगला) की निंदा की जाती है और उसकी मूंछ में आग लगा दी जाती है. गौरतलब है कि सामा-चकेबा छठ के खरना दिन शुरू होता है और पूर्णिमा दिन खत्म. सामा-चकेबा मिथिला में ही मनाया जाता है और छठ व्रत के बारे में कहते हैं कि असाध्य और गंभीर रोग जैसे कुष्ठ, विकलांगता, दाग, बदनामी, आपदा इत्यादि को दूर करने की प्रार्थना की जाती है. 
 
इससे पहले हम इस बारे में बता चुके हैं कि साम्ब को कुष्ठ रोग था जिसके लिए शाकलदीपी ब्राह्णमों को शक द्वीप से बुलाया गया था और जो बाद में मगध में बसे या फिर से बसे! यहां कुछ न कुछ ऐसा है जो साम्ब, कुष्ठ रोग, गुजरात (द्वारका), शाकलदीपी ब्राह्मण, सूर्य-मंदिरों की श्रृंखला, छठ और सामा-चकेबा में एक महीन संबंध दर्शाता है. हालांकि यह प्रश्न अब भी अनुतरित है कि सामा-चकेबा का त्योहार सिर्फ मिथिला में ही क्यों मनाया जाता है, गुजरात या ब्रज के इलाकों में क्यों नहीं! क्या ब्रज या गुजरात के लोकगीतों या देश के अन्य इलाके में इस तरह के किसी पर्व के संकेत हैं? संभवत: ये संकेत अभी तक नहीं मिले हैं.  
 
लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि अगर शाकलदीपी ब्राह्मणों की इसमें भूमिका थी या उनके प्रभाव में परवर्ती राजाओं ने सूर्यमंदिरों का निर्माण कराया तो एक सवाल फिर भी अनुतरित है: छठ पूजा में मंत्रों-कर्मकांडों और पुरोहितो का अभाव और समाज के हर वर्ग द्वारा इसे श्रद्धा से मनाया जाना. हालांकि एक धारणा बौद्ध धर्म से भी संबंधित है. सूर्य, बौद्ध और हिंदू परंपराओं में भी मिलते हैं और कई सारे सूर्य मंदिर उन राजाओं द्वारा बनवाए प्रतीत होते हैं जो बौद्ध भी थे. तो क्या सूर्योपासना की कोई ऐसी विधि विकसित कर दी गई जो पुरोहित और कर्मकांड-विहीन थी और जिसने बाद में छठ का रूप ले लिया? 
 
एक कथा के मुताबिक, बहुत संभव है कि छठ पूजा अंग-राज की कर्ण की वजह से लोक-पर्व में परिवर्तित हो गया हो. कर्ण को जीवनभर सूत-पूत्र का लांछन झेलना पड़ा था और उन्होंने सूर्य से खुद को मान्यता देने की प्रार्थना की थी ऐसा सूर्य ने किया भी. कर्ण का चरित्र एक विद्रोह का चरित्र है और ऐसा संभव है कि परवर्ती पीढ़ियों ने उस विद्रोह को एक प्रतीक के रूप में पुरोहित-विहीन और कर्मकांड विहीन कर लिया हो. छठ पूजा में वही वस्तुएं, फल या उत्पाद प्रयोग में लाए जाते हैं जो स्थानीय हैं. लेकिन उस दृष्टि से देखने पर तो लगता है कि छठ पूजा की शुरुआत तब की है जब मानव सभ्यता सिर्फ फल-फूल और कंदमूल पर जी रही था और मिठाई बनाना नहीं सीखा था या सुव्यवस्थित खेती का विकास नहीं हुआ था. समाज में वर्ण-व्यवस्था स्थापित नहीं हुई थी या अपने शुरुआती रूप में थी. 
 
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कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि छठ पर्व समाजिक समरसता और उदारता का बड़ा प्रतीक पर्व है और शायद यहीं इसकी लोकप्रियता का कारण भी है. इसमें अगर हम प्राचीन मिथिला की उदार जनक-परंपरा और बाद के युग में क्षेत्र का बौद्ध धर्म के प्रभाव में होना भी जोड़ दें-तो उदार परंपराओं की एक श्रृंखला बन जाती है. 
 
बहरहाल, छठ पर्व पर अभी कई दृष्टिकोण आने बाकी हैं. लेकिन एक सवाल अभी भी आपके मन में बचा ही रह गया होगा कि अगर छठ सूर्य उपासना का त्योहार है तो फिर गुहार छठि मैया की क्यों लगाई जाती है. कौन हैं ये छठि मैया?  धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं के मुताबिक छठी मैया यानी अदिति ब्रह्मा जी की मानस पुत्री हैं. ये सूर्य देव की बहन भी मानी जाती हैं. छठ व्रत में षष्ठी मैया की पूजा की जाती है, इसलिए इस व्रत का नाम छठ पड़ा. 
 
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पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना करने के लिए खुद को दो भागों में बांटा. जिसमें दाएं भाग में पुरुष और बाएं भाग में प्रकृति का रूप सामने आया. माना जाता है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक अंश को देवसेना कहा जाता है. चूंकि प्रकृति का छठ अंश होने की वजह से देवी का एक नाम षष्ठी भी है. जिन्हें छठी मैया के नाम से जानते हैं. छठ का त्योहार हमें पर्यावरण से, नदियों से प्रकृति से प्रेम सिखाता है इस संदेश को न भूलें. 
 
और हां, उगते सूरज की और चढ़ते सूरज की पूजा तो सब करते हैं छठ हमें सिखाता है कि डूबते सूर्य की पूजा भी की जानी चाहिए. आखिर कौन होते हैं वो लोग जिनन्हें आप डूबता सूरज कह सकते हैं,. जाहिर है घर के बुजुर्ग या वैसे लोग जो अभी जीवन के असफल दौर से गुज़र रहे हैं. तो प्रकृति के साथ घर के बुजुर्गों का ध्यान रखें, देखें कि आपके आसपास कौन है जिसका सूरज डूब रहा है.