अभिषेक कुमार सिंह /पटना/ वाराणसी
बिहार की मिथिला की धरती हमेशा से कला, भक्ति और सौहार्द की त्रिवेणी रही है. यहाँ मिट्टी से लेकर रंग तक, लोक परंपराएँ सामूहिकता और सहअस्तित्व की मिसाल रचती आई हैं. इसी परंपरा को नई ऊर्जा दे रही हैं मधुबनी की युवा मुस्लिम कलाकार — सरवरी बेगम, सालेहा शेख और साजिया बुशरा, जिनकी कूची से निकलती रेखाएँ न सिर्फ़ मिथिला कला का भविष्य रच रही हैं, बल्कि सांप्रदायिक सद्भाव की एक सुंदर मिसाल भी पेश कर रही हैं.
सरवरी बेगम: रेखाओं में समाज की कहानी
मधुबनी जिले के रांटी गांव में स्थित एक सादा से स्टूडियो में बैठी सरवरी बेगम जब अपनी तूलिका उठाती हैं, तो कैनवास पर सिर्फ़ आकृतियाँ नहीं बनतीं — बल्कि समाज की चुप आवाज़ें उभरती हैं. वह कहती हैं, “इस कला के माध्यम से मैं हमारे जीवन और समाज की कहानी को चित्रित करती हूँ. घर की लड़कियों के साथ जो भेदभाव होता है, उसे मैं अपनी पेंटिंग्स में उकेरती हूँ.”
सरवरी बेगम कचनी शैली की चित्रकार हैं — यह शैली रेखाओं और बिंदुओं के संयोजन से गहराई और लय रचती है. उनकी पेंटिंग्स में मिथिला की परंपरा तो है, पर साथ ही सामाजिक चेतना की नई धार भी है.
सांप्रदायिकता, शराबखोरी, दहेज प्रथा और बेरोज़गारी जैसे विषय उनके चित्रों में नए रंगों की तरह उभरते हैं. उनका यह प्रयास मधुबनी कला को उस दायरे से निकाल रहा है, जहाँ यह केवल पौराणिक आख्यानों तक सीमित रही थी.
उनकी एक चर्चित रचना “ईद मुबारक”, जिसे उन्होंने अविनाश कर्ण के साथ मिलकर बनाया, पारंपरिक मधुबनी रूपरेखा में ईद का उत्सव दर्शाती है. इस चित्र में दीप, चाँद, और इबादत के दृश्य एक ही फ्रेम में हैं — जो यह संदेश देते हैं कि कला का कोई धर्म नहीं होता, उसका धर्म केवल सौंदर्य और संवाद है.
कला में नई दृष्टि: गुरु-शिष्य की परंपरा
सरवरी बेगम के प्रशिक्षण की कहानी भी उतनी ही प्रेरक है. वह कहती हैं कि उन्हें बचपन से चित्रकला का शौक था, लेकिन अवसर नहीं मिला. जब कलाकार अविनाश कर्ण ने उन्हें प्रशिक्षण दिया, तो यह उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ. वह कहती हैं, “जब मैं पाँचवीं कक्षा में थी, तब से ही मिथिला शैली में चित्रकारी करना चाहती थी, लेकिन कभी मौका नहीं मिला. अब अविनाश सर ने जब यह अवसर दिया, तो मैं इसे अपने जीवन में आगे ले जाना चाहती हूँ.”
उनकी प्रेरणा मधुबनी की दिग्गज कलाकारों — महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्ता, और दुलारी देवी से आती है. महासुंदरी देवी, जिन्हें 2011में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था, ने मधुबनी की परंपरा को एक पहचान दी थी. सरवरी ने स्वयं कहा था कि दुलारी देवी को उन्होंने इस कला में संघर्ष करते देखा है और यह देखा कि “कला केवल भक्ति नहीं, बल्कि धैर्य की साधना है.”
आज सरवरी बेगम की कृतियाँ आर्ट बोले स्टूडियो और मेमेराकी जैसी प्रदर्शनियों में प्रदर्शित हो रही हैं, जो यह दर्शाती हैं कि मिथिला की यह कला अब सीमाओं से परे पहुँच रही है.
अविनाश कर्ण: मिथिला कला के नए सूत्रधार
युवा कलाकार अविनाश कर्ण ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ललित कला में प्रशिक्षण प्राप्त किया है और अब मिथिला में सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक समावेशन की दिशा में एक नई पहल का नेतृत्व कर रहे हैं.
आर्टरीच इंडिया जैसे संगठनों की मदद से, उन्होंने रांटी और आस-पास के गाँवों की मुस्लिम लड़कियों को मधुबनी कला का प्रशिक्षण देना शुरू किया है. कोविड-19लॉकडाउन के दौरान वह बनारस से अपने गाँव लौटे, और वहीं से इस सामुदायिक कला परियोजना की शुरुआत हुई.
अविनाश कहते हैं, “मुस्लिम लड़कियों में हमेशा से पेंटिंग करने की इच्छा रही है, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिला. मैं चाहता हूँ कि मिथिला कला का प्रशिक्षण वंचित समुदायों तक पहुँचे और सब मिलकर नई कहानियाँ रचें.”
यह पहल मधुबनी कला के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ है — क्योंकि यह पहली बार है जब मुस्लिम महिलाएँ इस परंपरा का हिस्सा बनी हैं. और यह केवल कला नहीं, बल्कि समाज में संवाद और सह-अस्तित्व का माध्यम भी बन रही है.
मधुबनी कला का विस्तार: परंपरा से परिधान तक
मिथिला की यह कला, जो कभी दीवारों और कोहबरों तक सीमित थी, अब साड़ियों, स्कार्फ़, पेपर और अन्य माध्यमों पर उतर आई है. यह विस्तार न केवल आर्थिक अवसर दे रहा है, बल्कि कला के लोकतंत्रीकरण का प्रतीक भी है.
अब यह कला केवल ब्राह्मण, कायस्थ या दलित महिलाओं तक सीमित नहीं रही — बल्कि यह विविध समुदायों में पनप रही है. मुस्लिम कलाकार, पिछड़े वर्गों की महिलाएँ, और यहाँ तक कि शहरी युवा भी इसे अपनाने लगे हैं.
यह परिवर्तन बिहार की सांप्रदायिक एकता और साझी संस्कृति का ही विस्तार है — जहाँ कला अब पहचान से ऊपर उठकर साझे अनुभव का माध्यम बन रही है.
छठ पूजा और सांप्रदायिक सहयोग: एक गहरी परंपरा
यह कोई नई बात नहीं कि बिहार में मुस्लिम कारीगर हिंदू पर्वों में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. छठ पूजा के दौरान मिट्टी के चूल्हे और अन्य पूजा सामग्री बनाने में मुस्लिम परिवारों की पीढ़ियाँ काम करती आ रही हैं.
वे इस अवधि में धार्मिक पवित्रता का पालन करते हुए मांस, मछली, लहसुन और प्याज से परहेज़ करते हैं, यह इस परंपरा के प्रति सम्मान और आस्था का प्रतीक है.एक बुज़ुर्ग कारीगर ने बताया, “हम बचपन से यही करते आए हैं. छठ के लिए चूल्हा बनाना हमारे लिए रोज़गार से बढ़कर एक सम्मान की बात है.
लोग हमें भरोसे से बुलाते हैं, और यह भरोसा ही हमारी पूँजी है.”अब जब मधुबनी कला में मुस्लिम कलाकार साड़ियाँ और पेंटिंग बना रहे हैं — यह उसी साझे विश्वास का कलात्मक रूपांतरण है.
साड़ियों पर मधुबनी: रंगों में भक्ति और एकता
छठ पूजा में महिलाएँ जब सूर्य देव को अर्घ्य देती हैं, तो उनकी साड़ियों पर चित्रित रूपांकन केवल सजावट नहीं, बल्कि श्रद्धा की अभिव्यक्ति होते हैं. इन साड़ियों में पारंपरिक मधुबनी आकृतियाँ सूर्यदेव, कमल, नदियाँ, और अर्घ्य देती महिलाएँ, सब दिखाई देती हैं.
अब इन साड़ियों पर मुस्लिम कलाकारों के हाथों के रंग भी जुड़ गए हैं और यह बिहार के सामाजिक सौहार्द की अनूठी मिसाल है.इस प्रक्रिया में यह भी देखा गया है कि कलाकार एक-दूसरे के त्यौहारों में भी शामिल होते हैं. जैसे अविनाश कर्ण के स्टूडियो में दीपावली के समय ईद की बधाइयाँ और ईद पर दीपों की रोशनी दोनों मिलकर जगमगाती हैं.
सांप्रदायिक सौहार्द की मिट्टी से उगती कला
बिहार की मिट्टी हमेशा समावेशी रही है. चाहे वह संगीत हो, मृदभांड कला हो, या मिथिला पेंटिंग में किसी धर्म की सीमा नहीं रही. यहाँ के शिल्प में वह सहज साझेदारी दिखती है, जहाँ भक्ति और इबादत साथ चलती हैं.
छठ पूजा के समय मिट्टी का चूल्हा बनाने वाले हुसैन अली या मधुबनी साड़ी पर चित्र बनाती सरवरी बेगम, दोनों एक ही परंपरा के हिस्से हैं.यह उस संस्कृति का प्रमाण है जहाँ मिट्टी की लकीरें नहीं बाँटतीं, जोड़ती हैं.
मिथिला से दुनिया तक: कला का संदेश
आज सरवरी बेगम और उनके साथ काम करने वाली नई पीढ़ी की कलाकारों की पेंटिंग्स ऑनलाइन प्लेटफॉर्म और अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में प्रदर्शित हो रही हैं.उनकी “ईद मुबारक”, “शराबखोरी का दंश” और “साझेपन की रोशनी” जैसी पेंटिंग्स केवल कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक दस्तावेज़ हैं.उनकी कृतियों में देवी-देवताओं के साथ मज़दूर, किसान, और सामान्य जीवन की स्त्रियाँ भी स्थान पा रही हैं — यानी मिथिला कला अब एक जनसरोकार बन चुकी है.
रेखाओं में रिश्तों का रंग
मिथिला की कला, बिहार की परंपरा, और मुस्लिम कलाकारों का समर्पण, इन तीनों ने मिलकर एक नई सांस्कृतिक संवेदना रची है. यह केवल चित्रकला नहीं, बल्कि भारत के उस शिल्प-आत्मा की कहानी है जो हर समय “सर्व धर्म संभाव” की भावना में सांस लेती है.
सरवरी बेगम कहती हैं, “रंग तो सबके हैं, फर्क बस यह है कि कौन-सा रंग किस कहानी को कहता है.”आज मधुबनी की नई पीढ़ी की ये रेखाएँ बिहार के सामाजिक ताने-बाने में एकता, संवेदना और आशा की सबसे सुंदर तस्वीर उकेर रही हैं.