मलिक असगर हाशमी/नई दिल्ली
दिल्ली की हवा में जब पतंगों का शोर गूंजता है या दिवाली के पटाखों की गूँज सुनाई देती है, तब सबसे ज़्यादा कीमत अगर कोई चुकाता है, तो वे हैं बेज़ुबान पक्षी.पतंगबाज़ी का हर मौसम और दिवाली का हर त्योहार, इन नन्हे जीवों के लिए मौत या भीषण चोट का पैग़ाम लेकर आता है.पतंग के धारदार मांझे से कटकर हर साल सैकड़ों पक्षी या तो मर जाते हैं या इतने बुरी तरह घायल हो जाते हैं कि उनका उड़ान भरना मुश्किल हो जाता है.वहीं, दिवाली के पटाखों का तीव्र शोर और ज़हरीला प्रदूषण, उनकी मौत के अलावा उनकी प्रजनन क्षमता को भी बुरी तरह प्रभावित करता है.
जैसे-जैसे दिवाली करीब आती है, पक्षियों पर मंडराता यह ख़तरा और गहरा हो जाता है.ऐसे में, पुरानी दिल्ली के वजीराबाद की एक संकरी गली में उम्मीद की एक किरण जगमगा रही है.यहाँ, वाइल्डलाइफ रेस्क्यू सेंटर चलाने वाले दो भाई— नदीम शहजाद और मोहम्मद सऊद—पिछले तीन दशकों से घायल पक्षियों को जीवनदान देने के एक अनोखे मिशन में जुटे हैं.
एक अस्वीकृति से उपजा मिशन: वाइल्डलाइफ रेस्क्यू की शुरुआत
नदीम और सऊद के इस असाधारण सफ़र की शुरुआत 1990के दशक के मध्य में हुई.उस समय वे किशोर थे, जब उन्हें पुरानी दिल्ली में एक घायल चील मिली.यह चील, पतंग के धारदार मांझे से ज़ख़्मी हो गई थी.मदद की उम्मीद में, वे उसे शहर के सबसे प्रतिष्ठित पक्षी अस्पताल, चांदनी चौक के जैन पक्षी अस्पताल ले गए.लेकिन, उन्हें तब गहरा झटका लगा, जब अस्पताल ने उस पक्षी का इलाज करने से साफ इनकार कर दिया.इनकार का कारण था,वह एक मांसाहारी पक्षी (रैप्टर) था, और जैन धर्मार्थ अस्पताल मांसाहारियों का इलाज नहीं करता था.
बिना मदद के, वे उस पक्षी को नहीं बचा पाए.इस घटना ने दोनों भाइयों के मन पर गहरा असर डाला.कुछ सालों बाद, 2003में, उन्हें एक और घायल काली चील मिली, जिसके पैर में फ्रैक्चर था.इस बार, उन्होंने इसे घर पर रखने और ख़ुद ही इसका इलाज करने का फ़ैसला किया.हालाँकि, तमाम कोशिशों के बावजूद, वह चील फिर कभी उड़ नहीं पाई और जीवन भर उनके साथ रही.
धातु के साबुन डिस्पेंसर बनाने का पारिवारिक व्यवसाय चलाने वाले शहजाद और सऊद ने अंततः पुरानी दिल्ली में अपने घर में ही ऐसे घायल पक्षियों के लिए एक अनौपचारिक बचाव और पुनर्वास केंद्र स्थापित किया.उन्होंने शुरू में घायल पक्षियों की देखभाल के लिए अपने सीमित संसाधनों का ही इस्तेमाल किया.2010में, उन्होंने औपचारिक रूप से 'वाइल्डलाइफ रेस्क्यू' नामक एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) की स्थापना की.चूँकि लोग घायल पक्षियों को उनके पास लाते रहे, इसलिए उनके काम का दायरा तेज़ी से बढ़ा.
शिकारी पक्षियों का आश्रय स्थल
आज, शहजाद और सऊद का केंद्र केवल चीलों तक ही सीमित नहीं है.उनके रेस्क्यू सेंटर में लाए जाने वाले सबसे ज़्यादा घायल पक्षी चील ही होते हैं, लेकिन उन्हें उल्लू, गिद्ध, और जलपक्षी जैसे एग्रेट्स (बगुले) और स्टॉर्क (सारस) भी मिलते हैं.प्रजनन के मौसम के दौरान, घोंसलों से गिरे हुए बहुत सारे बच्चे पक्षी भी यहाँ लाए जाते हैं.
यह केंद्र वज़ीराबाद में एक किराए की जगह पर संचालित होता है, जहाँ अब एक क्लीनिक और कार्यालय भी है.अपने काम में मदद के लिए, उनके साथ अब पशु चिकित्सक जय प्रकाश पांडे सहित तीन अन्य कर्मचारी भी जुड़े हुए हैं.चूंकि ये ज़्यादातर शिकारी पक्षी (रैप्टर्स) होते हैं, इसलिए उन्हें यहाँ मुर्गी और अन्य मांस खिलाया जाता है.पंख वाले इन निवासियों की देखभाल पर काफ़ी ख़र्च आता है.शहज़ाद बताते हैं कि पक्षियों की संख्या के आधार पर मासिक खर्च 1.5लाख रुपये तक जा सकता है.
संघर्ष और सफलता: फंडिंग से लेकर ऑस्कर नॉमिनेशन तक
करीब पंद्रह सालों तक, यह दोनों भाई अपने छोटे से पारिवारिक व्यवसाय की कमाई से ही इस केंद्र को चलाते रहे.पैसे की तंगी शुरू से ही उनके काम में एक बड़ी चुनौती रही.जैसा कि शहजाद बताते हैं, "लोग चीलों को अशुभ और ‘गंदा’ मानते हैं, इसलिए किसी को फंड देने के लिए राजी करना बहुत मुश्किल काम था."
2020 में, उन्हें विदेशी चंदे के लिए एफसीआरए (विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम) की मंजूरी मिली, जिससे उन्हें दुनिया भर से फंड जुटाने की अनुमति मिली.हालाँकि, कोविड-19लॉकडाउन के बाद, दान में भारी गिरावट आई है, और वे अभी भी कठिन समय से गुज़र रहे हैं.
उनकी इस निस्वार्थ सेवा ने न सिर्फ़ पक्षियों को जीवन दिया, बल्कि उनकी कहानी को भी विश्वव्यापी पहचान दिलाई.नदीम और सऊद की कहानी पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म "ऑल दैट ब्रीथ्स" ने 2022में सबका दिल जीत लिया.
शौनक सेन द्वारा निर्देशित इस फिल्म को ऑस्कर (95वें अकादमी पुरस्कार) में 'बेस्ट डॉक्युमेंट्री फीचर' कैटेगरी के लिए नॉमिनेशन मिला.फिल्म ने सनडांस में ग्रैंड ज्यूरी प्राइज और कान्स में 'गोल्डन आई अवॉर्ड' भी जीता.यह कहानी केवल पक्षियों के बचाव की नहीं, बल्कि इंसान और प्रकृति के बीच करुणा और संवेदनशील जुड़ाव की एक खूबसूरत मिसाल बन गई.
पुनर्वास और 'सॉफ़्ट रिलीज़' की तकनीक
नदीम और सऊद ने शुरू में बिना किसी औपचारिक ट्रेनिंग के स्थानीय पशु चिकित्सकों की मदद से काम शुरू किया.उन्होंने टूटी हुई हड्डियों को ठीक करना, मुश्किल सर्जरी करना और घावों को सिलना धीरे-धीरे सीख लिया.अपनी शुरुआत में, वे केवल 20%मामलों का ही प्रबंधन कर पाते थे, लेकिन अब वे इस दर को 50%तक ले आए हैं और 80%रिकवरी रेट का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं.
इलाज में समय एक महत्वपूर्ण कारक है.शहजाद कहते हैं, "घायल पक्षी के इलाज में देरी का मतलब यह हो सकता है कि वह फिर से उड़ान भरने में सक्षम न हो." गंभीर रूप से घायल पक्षियों को इच्छामृत्यु (Euthanasia) भी देनी पड़ती है.
पक्षियों को 'सॉफ्ट रिलीज' तकनीक से छोड़ा जाता है.यदि कोई पक्षी 10फुट आसानी से उड़ पाता है, तभी उसे आज़ाद करने का फ़ैसला लिया जाता है.शहजाद बताते हैं,"हम 24घंटे के लिए बाड़े का हिस्सा खुला रखते हैं ताकि अगर उन्हें भोजन और पानी के लिए वापस लौटना पड़े तो वे लौट सकें." कुछ पक्षी चले जाते हैं, जबकि कुछ भोजन के लिए वापस आते रहते हैं.आज, उनके पास लगभग 100पक्षी हैं, लेकिन शाम तक यह संख्या बढ़ जाती है क्योंकि छोड़े गए कई पक्षी भी भोजन और पानी के लिए लौट आते हैं.
पतंग का मांझा: उड़ान का सबसे बड़ा दुश्मन
वाइल्डलाइफ रेस्क्यू सेंटर में आने वाले पक्षियों, विशेष रूप से चीलों, के ज़ख़्मी होने की सबसे बड़ी वजह पतंगों का मांझा है.यह मांझा—चाहे वह साधारण हो या चाइनीज, जिसमें अक्सर कांच का पाउडर होता है—पंखों को चीर देता है, जिससे उनकी उड़ान हमेशा के लिए रुक सकती है.
नदीम की यह बात दिल को छू जाती है: "जब भी कोई घायल पंछी लेकर हमारे पास आता है, तो सबसे पहले हम उससे पूछते हैं- 'क्या आप पतंग उड़ाते हैं?' अगर जवाब हाँ होता है, तो हम उस पंछी के पंखों के गहरे घाव उसे दिखाते हैं.हर बार लोग चौंक जाते हैं.चीख़ सिर्फ़ चोटों की वजह से नहीं होती, बल्कि इसलिए कि उनके एक छोटे से शौक से किसी परिंदे की पूरी जिंदगी बदल सकती है."
नदीम और सऊद का मानना है कि भारत पक्षियों के इलाज के मामले में पिछड़ा हुआ है.शहजाद चिंता जताते हैं,"पालतू जानवरों या मवेशियों जैसे बड़े जानवरों को पशु चिकित्सकों के बीच प्राथमिकता मिलती है.शायद इसलिए क्योंकि मवेशियों का आर्थिक मूल्य होता है, जबकि पालतू जानवरों का अपने मालिकों के साथ संबंध होता है.लेकिन वन्य जीवन किसी के काम नहीं आता."
दिल्ली के कचरे के ढेर पर चीलों का देखा जाना एक आम दृश्य है.ये पक्षी शहर की गंदगी को खाकर हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को साफ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.जैसा कि उनका एक कर्मचारी उमर कहता है: "ये (चील)वही हैं जो हमारी गंदगी खा रही हैं.हम उनके बिना क्या करेंगे?"
नदीम शहजाद और मोहम्मद सऊद की कहानी मानवीय करुणा, अथक समर्पण और प्रकृति के प्रति प्रेम की एक दुर्लभ मिसाल है.उन्होंने उस शून्य को भरा, जिसे औपचारिक संस्थानों ने मांसाहारी पक्षियों का इलाज करने से इनकार करके पैदा कर दिया था.उनका काम हमें याद दिलाता है कि जब हम अपने शौक मनाते हैं, तो हमें बेज़ुबान जीवों की कीमत पर नहीं मनाना चाहिए.उनका छोटा सा 'मिनी हॉस्पिटल' हमें सिखाता है कि हर घायल पंख के लिए उम्मीद और प्यार की जगह हमेशा होनी चाहिए.
यह कहानी सिर्फ़ ऑस्कर नॉमिनेशन पाने तक की नहीं है, बल्कि 26,000 से अधिक पक्षियों को जीवनदान देने के निरंतर संघर्ष की है—एक ऐसा संघर्ष, जो आज भी फंड और जागरूकता की कमी के बावजूद, बेरोकटोक जारी है.
साबिर हुसैन की रिपोर्ट पर आधारित