Muslim Leadership in Independent India: Struggle, Unity and Political Contribution
आवाज द वॉयस/ नई दिल्ली
भारत की राजनीति में जब मुस्लिम नेतृत्व का ज़िक्र होता है, तो सबसे पहले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम ही सामने आता है, जो स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और देश के पहले शिक्षा मंत्री थे. उनके योगदान को आज भी सम्मानित किया जाता है. हालांकि, आज़ाद के बाद नये भारत में जो मुस्लिम नेता उभरे हैं, उनमें किसी का भी नाम उनके बराबर नहीं रखा जा सकता. फिर भी कई ऐसे प्रमुख मुस्लिम नेता रहे हैं, जिन्होंने देश की एकता को बढ़ावा दिया, सांप्रदायिक सौहार्द की रक्षा की और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के लिए संघर्ष किया.
इन नेताओं ने न केवल अल्पसंख्यकों की आवाज़ उठाई, बल्कि सड़कों से लेकर संसद तक अपने हक़ के लिए संघर्ष किया. राजनीतिक विभाजन के बावजूद, यह नेता कभी-कभी एक ही मंच पर भी एकजुट हो जाते हैं.
ये नेता अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के सदस्य होते हुए भी, मुसलमानों की आवाज़ बनने का काम करते रहे हैं. उत्तर प्रदेश, जो भारत के राजनीतिक केंद्र के रूप में जाना जाता है, ने कई महान मुस्लिम राजनेताओं को जन्म दिया है, जिन्होंने अपने संघर्षों से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया.
डॉ. अब्दुल जलील फरीदी
इनमें डॉ. अब्दुल जलील फरीदी, रफी अहमद किदवई, जनरल शहनवाज़ खान, मोहसिना किदवई, हाफिज़ इब्राहीम, मौलाना हिफ्ज़ुर रहमान, सलीम शिरवानी, आज़म खान, राशिद अल्वी, सलमान खुर्शीद और मुख्तार अब्बास नक़वी जैसे नाम प्रमुख हैं.
आम धारणा है कि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक कांशीराम पहले नेता थे जिन्होंने सभी धर्मों की 85% पिछड़ी जातियों को 15% ऊंची जातियों के प्रभुत्व के खिलाफ एक राजनीतिक मोर्चा बनाने का विचार दिया.
लेकिन समय की धुंध में छिपी सच्चाई यह है कि लखनऊ के डॉ. अब्दुल जलील फरीदी ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ऊंची जातियों के वर्चस्व के खिलाफ सभी वंचित और पिछड़े वर्गों की राजनीतिक एकता का सपना देखा था.
डॉ. अब्दुल जलील फरीदी (1913–1974) लखनऊ के एक प्रसिद्ध हृदय और तपेदिक विशेषज्ञ थे. वे न केवल शहर के अग्रणी चिकित्सकों में से एक थे बल्कि एक उत्साही सामाजिक सुधारक और राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे.
चिकित्सा क्षेत्र में उपलब्धियों के बावजूद, उनका झुकाव मुसलमानों और आज़ादी के बाद वंचित वर्गों की सेवा की ओर था. जब उन्होंने देखा कि मुसलमानों को राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेला जा रहा है, तो वे उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलनों में कूद पड़े.
शुरुआत में वे मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत से जुड़े रहे, बाद में 1968 में उन्होंने मुस्लिम मजलिस की स्थापना की, जो अल्पसंख्यकों की शिक्षा, रोजगार, सांस्कृतिक संरक्षण और राजनीतिक स्वायत्तता के लिए संघर्ष करती रही. 1974 में एक कड़ी चुनावी मुहिम के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया.
मोहसिना किदवई
भारतीय राजनीति में मोहसिना किदवई एक गरिमामयी और सुलझी हुई नेता रही हैं. वे पूर्व केंद्रीय मंत्री और इंडियन नेशनल कांग्रेस की सांसद थीं जिनका ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले से है. उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों में कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाला.
वे उत्तर प्रदेश के मेरठ से 6वीं लोकसभा के लिए चुनी गईं और 7वीं व 8वीं लोकसभा तक लगातार सीट पर बनी रहीं. उन्होंने 2004 से 2016 के बीच छत्तीसगढ़ से राज्यसभा सदस्य के रूप में भी सेवा दी. आपातकाल के बाद जब कांग्रेस देशभर में पिछड़ गई थी, उस दौर में मोहसिना किदवई ने जीत हासिल की थी.
फारूक अब्दुल्ला
भारत के ताज यानी कश्मीर ने भी राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभाई है. कश्मीर को मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ना आसान नहीं था. अब्दुल्ला परिवार, मुफ्ती परिवार के साथ-साथ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सैफुद्दीन सोज़, मुज़फ्फर हुसैन बेग, शफी कुरैशी, अब्दुल राशिद शाहीन और कई अन्य नेताओं के नाम भी महत्वपूर्ण हैं.
लेकिन इस संघर्ष में अब्दुल्ला परिवार ने अहम भूमिका निभाई. यह सिलसिला देश के बंटवारे के समय शेख अब्दुल्ला से शुरू हुआ, जिन्हें 'शेर-ए-कश्मीर' के नाम से जाना गया.
वे नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक थे. कश्मीरी जनता की नब्ज़ को पहचानते थे, इसलिए राजनीति में सफल रहे. उनके उत्तराधिकारी फारूक अब्दुल्ला रहे, जो कश्मीर से दिल्ली तक की राजनीति में सक्रिय रहे.
वे 1996 से 2002 तक जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे और बाद में केंद्र सरकार में शामिल हुए. फिर दो बार राज्यसभा सदस्य रहे, 2009 में उन्होंने लोकसभा का चुनाव जीता और यूपीए सरकार में शामिल हुए. हालांकि 2014 में हार गए, लेकिन 2017 के उपचुनाव में जीत गए और 2019 में फिर से लोकसभा पहुंचे.
गनी खान चौधरी
जब बात बंगाल की होती है तो गनी खान चौधरी का नाम अपने आप ज़ुबां पर आ जाता है. वे पहली बार 1957 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य बने. उन्होंने 1962, 1967, 1971 और 1972 में भी जीत दर्ज की. वे 1972 से 1977 तक राज्य सरकार में मंत्री रहे.
1984, 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 में लोकसभा के लिए चुने गए. 1982 से 1984 तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों में रेल मंत्री रहे. उन्होंने कोलकाता मेट्रो और सर्कुलर रेलवे की नींव रखी और मालदा टाउन स्टेशन को एक प्रमुख जंक्शन के रूप में स्थापित किया. उन्हें 'आधुनिक मालदा' का निर्माता कहा जाता है.
अब्दुल ग़फ़ूर बिहार
बिहार की बात करें तो यहां भी मुस्लिम नेताओं की लंबी सूची है—गुलाम सरवर, अब्दुल ग़फ़ूर, सैयद शाहाबुद्दीन, तस्लीमुद्दीन, शकील अहमद, सैयद शहनवाज़ हुसैन, इसरारुल हक़ और मोहम्मद अली अशरफ फातमी.
अब्दुल ग़फ़ूर बिहार के 13वें मुख्यमंत्री (1973–1975) रहे और बाद में राजीव गांधी की सरकार में मंत्री बने. वे कांग्रेस और समता पार्टी दोनों से लोकसभा सदस्य रहे. वे बिहार विधान परिषद के चेयरमैन भी रहे. 1952 में पहली बार विधायक बने और आज़ादी की लड़ाई में भी सक्रिय भागीदारी की. उनका निधन 10 जुलाई 2004 को हुआ.
गुलाम नबी आज़ाद
गुलाम नबी आज़ाद एक वरिष्ठ भारतीय राजनेता हैं, जिनका राजनीतिक करियर पाँच दशकों से अधिक समय पर फैला हुआ है. उनका जन्म 7 मार्च 1949 को हुआ था. उन्होंने 1973 में जम्मू-कश्मीर के भलेसा क्षेत्र में ब्लॉक कांग्रेस कमेटी के सचिव के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की
वे जल्दी ही राजनीति में उभरे और जम्मू-कश्मीर प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने, फिर 1980 में उन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया.
उसी वर्ष वे महाराष्ट्र के वाशिम लोकसभा क्षेत्र से 7वीं लोकसभा के लिए चुने गए और 1982 में उन्हें केंद्र सरकार में कानून, न्याय और कंपनी मामलों के उप मंत्री का पद दिया गया.
समय के साथ वे लोकसभा और राज्यसभा दोनों के सदस्य रहे और केंद्र सरकार में संसदीय कार्य, नागरिक उड्डयन, और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाला.
नवंबर 2005 में वे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री नियुक्त किए गए और जुलाई 2008 तक इस पद पर रहे. उनके कार्यकाल के दौरान राज्य में विकास और आधारभूत ढांचे पर ज़ोर दिया गया, लेकिन बाद में जब गठबंधन सहयोगी पीडीपी ने समर्थन वापस ले लिया, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
इसके बाद वे यूपीए-2 सरकार में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बने, जहाँ उन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) का विस्तार किया और शहरी गरीबों की स्वास्थ्य जरूरतों को देखते हुए राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM) की शुरुआत की.
2014 से 2021 तक वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे, जहाँ उन्होंने संसद में महत्वपूर्ण बहसों और नीतिगत चर्चाओं में प्रमुख भूमिका निभाई. वे अपनी वक्तृत्व कला, प्रशासनिक दक्षता और भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की गहरी समझ के लिए जाने जाते हैं.
अगस्त 2022 में, उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया. अपने त्यागपत्र में उन्होंने राहुल गांधी के नेतृत्व में परामर्श प्रक्रिया के विघटन को मुख्य कारण बताया. 4 सितंबर 2022 को उन्होंने नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की और कहा कि पार्टी का नाम और झंडा जम्मू-कश्मीर की जनता तय करेगी.
26 सितंबर 2022 को उन्होंने अपनी पार्टी का नाम डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी (Democratic Progressive Azad Party) घोषित किया. इस पार्टी का झंडा तीन रंगों में है: सरसों पीला, सफेद और नीला — जो शांति, एकता और प्रगति का प्रतीक हैं.
जन सेवा के क्षेत्र में उनके दशकों लंबे योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 2022 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया, जो देश का तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है.

सीके जाफर शरीफ
कर्नाटक से जाफर शरीफ एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता थे. वे केंद्र में कर्नाटक की मज़बूत आवाज़ माने जाते थे. कांग्रेस में विभाजन के समय उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ दिया. रेल मंत्री के रूप में उन्होंने देशभर में रेलवे को एकल गेज (यूनिगेज) में परिवर्तित किया, जिससे उन्हें राष्ट्रीय लोकप्रियता मिली.
आर्थिक संकट के समय उन्होंने रेलवे के स्क्रैप लोहा बेचकर 2000 करोड़ रुपये जुटाए और उनका इस्तेमाल पूरे देश में गेज परिवर्तन के लिए किया. आज भी उन्हें भारतीय रेलवे के विकास में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है.
असदुद्दीन ओवैसी
असदुद्दीन ओवैसी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. वे तेलंगाना के ओवैसी परिवार की राजनीतिक विरासत के तीसरे वारिस हैं और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
1994 में उन्होंने चारमीनार विधानसभा सीट से राजनीति की शुरुआत की, जहां उनकी पार्टी 1967 से जीतती आ रही है. 2004 में उनके पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी की अस्वस्थता के कारण उन्होंने लोकसभा में कदम रखा और अब तक पांच बार सांसद चुने जा चुके हैं.
वे भारतीय मुसलमानों की बुलंद आवाज़ हैं और पाकिस्तान के प्रखर विरोधी. ऑपरेशन सिन्दूर के बाद पाकिस्तान के खिलाफ भारत की कूटनीतिक आवाज़ के रूप में वे सामने आए. 2013 में उन्हें उनकी संसदीय कार्यक्षमता के लिए 'संसद रत्न अवॉर्ड' से नवाज़ा गया. वे विरोधियों के बीच भी आदर प्राप्त करते हैं.
नजमा हेपतुल्ला
नजमा हेपतुल्ला कांग्रेस से जुड़ीं रहीं, बाद में बीजेपी में शामिल हो गईं. वे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान से चार बार राज्यसभा सदस्य चुनी गईं. वे 16 वर्षों तक राज्यसभा की उपसभापति रहीं.
2004 में बीजेपी में शामिल होकर 2007 में पार्टी की उपाध्यक्ष बनीं. नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में 2014–2016 तक मंत्री रहीं. 2016 से 2021 तक मणिपुर की राज्यपाल रहीं. 2007 में वे उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनीं लेकिन हामिद अंसारी से हार गईं. 2017–2023 तक वे जामिया मिलिया इस्लामिया की कुलाधिपति रहीं. उन्हें एक गरिमामयी राजनेता के रूप में जाना जाता रहा.
सैयदा अनवरा तैमूर
असम की राजनीति में कई मुस्लिम चेहरे हैं लेकिन सैयदा अनवरा तैमूर का नाम विशेष रूप से लिया जाता है. वे असम कांग्रेस की नेता और एआईसीसी की सदस्य थीं. वे 1972, 1978, 1983 और 1991 में विधायक बनीं.
वे असम की पहली महिला और एकमात्र मुस्लिम मुख्यमंत्री रहीं. 6 दिसंबर 1980 से 30 जून 1981 तक उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला. किसी भी भारतीय राज्य की पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है.
उनकी मुख्यमंत्री पद की अवधि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने के कारण समाप्त हुई. 1988 में वे राज्यसभा के लिए नामित की गईं. उनका निधन 28 सितंबर 2020 को ऑस्ट्रेलिया में हुआ.