स्वच्छता की राह पर गांव कब आएंगे ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-11-2025
When will the villages come on the path of cleanliness?
When will the villages come on the path of cleanliness?

 

dसिलोचना स्वामी

भारत में जब भी स्वच्छता की बात होती है, तो सबसे पहले नाम आता है इंदौर का.वह शहर जो लगातार आठ वर्षों से देश का सबसे स्वच्छ शहर बना हुआ है.इंदौर की यह उपलब्धि सिर्फ सरकारी योजनाओं या निगम कर्मचारियों के प्रयासों का नतीजा नहीं है, बल्कि एक सामूहिक सोच और जिम्मेदारी की मिसाल है.यहां के लोगों ने यह साबित कर दिया कि सफाई केवल व्यवस्था का नहीं, बल्कि व्यवहार का सवाल है.लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह स्वच्छता केवल शहरों तक सीमित रहनी चाहिए? देश की आत्मा तो गांवों में बसती है, और जब तक गांव साफ नहीं होंगे, तब तक ‘स्वच्छ भारत’ का सपना अधूरा रहेगा.

राजस्थान के बीकानेर जिले के लूणकरणसर ब्लॉक का नाथवाना गांव इस हकीकत की एक झलक दिखाता है.यह गांव भी स्वच्छ भारत अभियान का हिस्सा है, लेकिन यहां सफाई की लड़ाई अभी अधूरी है.गांव के लगभग हर घर में शौचालय तो बन चुके हैं, परंतु कूड़े के निपटान की समस्या अभी भी जस की तस बनी हुई है.

नालियों का गंदा पानी सड़कों पर बहता है, जिससे दुर्गंध फैलती है और मच्छरों का प्रकोप बढ़ जाता है.सबसे ज़्यादा असर बच्चों और बुजुर्गों पर पड़ता है.गांव की 17 वर्षीय ममता बताती है, “हमारे यहां घर का कूड़ा किसी तय जगह पर नहीं डाला जाता.लोग अपने घरों के पास ही फेंक देते हैं, जिससे बदबू और मच्छरों का खतरा बढ़ता है.”

ममता की यह बात सिर्फ शिकायत नहीं, बल्कि एक सच्चाई है जो पूरे ग्रामीण भारत में दिखती है.सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय तो बना दिए, लेकिन ठोस कचरा प्रबंधन अब भी एक बड़ी चुनौती है.

ममता की सहेली निधि कहती है, “सफाई की गाड़ी आती है, लेकिन कई लोग घर का कचरा खुले में ही डाल देते हैं.उन्हें लगता है कि सफाई केवल सरकार का काम है.” उसकी यह बात उस गहरी मानसिकता को उजागर करती है जो गांवों की सफाई में सबसे बड़ी बाधा है,जिम्मेदारी से बचना.जब तक हर व्यक्ति यह नहीं समझेगा कि सफाई उसकी खुद की जिम्मेदारी है, तब तक कोई भी अभियान स्थायी नहीं हो सकता.

दूसरी ओर कालू गांव की सरिता बताती है कि कुछ लोग अपने घर का जैविक कचरा खेतों में डाल देते हैं, जिससे वह खाद बन जाता है.यह तरीका पर्यावरण के अनुकूल है, लेकिन समस्या तब आती है जब लोग प्लास्टिक जैसी गैर-अपघटनीय चीज़ें भी खेतों में डाल देते हैं.

सरिता कहती है, “प्लास्टिक मिट्टी की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर देती है.लोग सोचते हैं कि कचरा खेत में डाल दिया तो खत्म हो गया, लेकिन असल में वे अपनी जमीन को ज़हर दे रहे हैं.” उसकी यह बात बताती है कि सफाई के लिए केवल मेहनत नहीं, समझदारी की भी जरूरत है.

बीकानेर जिले के ही दुलमेरा गांव में युवाओं ने इस दिशा में एक नई पहल की है.सामाजिक कार्यकर्ता हीरा शर्मा बताती हैं कि गांव के युवाओं ने एक टोली बनाई है जो हर सप्ताह सफाई अभियान चलाती है.

यह टोली केवल झाड़ू लगाने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि लोगों को जागरूक भी करती है कि सफाई एक दिन का काम नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की आदत होनी चाहिए.वह बताती हैं, “हम लोगों से कहते हैं कि सफाई सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है.” उनकी टोली यह सुनिश्चित करती है कि कचरा उठाने की गाड़ी समय पर आए और लोग खुले में कचरा न फेंकें.

नाथवाना और दुलमेरा जैसे गांव यह संदेश दे रहे हैं कि बदलाव केवल योजनाओं से नहीं, बल्कि सामूहिक सोच से आता है। जब गांव के लोग खुद आगे बढ़ते हैं, तो प्रशासनिक व्यवस्थाएँ भी मजबूत हो जाती हैं.लेकिन समस्या यह है कि अधिकतर गांवों में आज भी सफाई के प्रति वही पुरानी सोच बनी हुई है.लोग सफाई को ‘सरकारी काम’ मानते हैं और खुद को इससे अलग रख लेते हैं.

स्वच्छ भारत अभियान ने निश्चित रूप से गांवों में शौचालय निर्माण को लेकर जागरूकता फैलाई है और खुले में शौच से मुक्ति दिलाने में सफलता पाई है, लेकिन अब दूसरी पारी की जरूरत है,जिसमें सफाई को जीवनशैली का हिस्सा बनाया जाए.सफाई का असली अर्थ सिर्फ शौचालय बनाना नहीं, बल्कि आसपास का वातावरण स्वच्छ रखना है.इसका मतलब है कि हर घर में कूड़े को अलग-अलग डिब्बों में रखना, प्लास्टिक का उपयोग कम करना, पानी बर्बाद न करना और सार्वजनिक स्थानों को साफ रखना.

इंदौर जैसे शहरों ने यह साबित किया है कि अगर लोग ठान लें तो सफाई कोई असंभव काम नहीं.वहां के नागरिकों ने “मेरे शहर की सफाई मेरी जिम्मेदारी” के नारे को सच्चाई में बदला.अब जरूरत है कि गांवों में भी यही सोच विकसित हो.नाथवाना, कालू और दुलमेरा जैसे गांव दिखा रहे हैं कि जब युवाओं में जागरूकता आती है, तो सफाई केवल सरकारी कार्यक्रम नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन बन जाती है.

आज भारत जिस मोड़ पर खड़ा है, वहां स्वच्छता सिर्फ स्वास्थ्य या सौंदर्य का सवाल नहीं, बल्कि सामाजिक विकास का प्रतीक बन गई है.स्वच्छ वातावरण न केवल बीमारियों को रोकता है, बल्कि आत्म-सम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना भी जगाता है.

ममता, निधि और सरिता जैसी युवा लड़कियाँ इस बदलाव की नई आवाज़ हैं.वे दिखा रही हैं कि नई पीढ़ी अपने गांवों को साफ-सुथरा देखने के लिए तैयार है — बस उन्हें दिशा और सहयोग की आवश्यकता है.

आखिरकार, यह सवाल सरकार से ज़्यादा समाज से है,“क्या हम अपने घर, गली या गांव की सफाई को अपनी जिम्मेदारी मानते हैं?” क्या हम अपने बच्चों को सिखा रहे हैं कि सफाई सिर्फ आदत नहीं, बल्कि संस्कार है? अगर हर नागरिक यह सोच ले कि “मेरे गांव की सफाई मेरी जिम्मेदारी है,” तो कोई कारण नहीं कि भारत का हर गांव इंदौर की तरह चमक न उठे.

भारत की पहचान सिर्फ अपने साफ-सुथरे शहरों से नहीं बनेगी, बल्कि उन गांवों से बनेगी जो स्वच्छ, हरित और जागरूक होंगे.क्योंकि गांव ही इस देश की आत्मा हैं.जब गांवों की गलियाँ चमकेंगी, जब वहां की मिट्टी से ताजगी की खुशबू आएगी, तभी सच्चे अर्थों में स्वच्छ भारत का सपना साकार होगा.सफाई किसी अभियान का अंत नहीं, बल्कि सभ्यता की शुरुआत है  और यह शुरुआत हर गांव, हर घर, हर व्यक्ति से होनी चाहिए.

(यह लेखिका के निजी विचार हैं।)