मलिक असगर हाशमी
क्या मध्य बिहार की तरह तेलंगाना, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से भी नक्सलियों के पांव पूरी तरह उखड़ चुके हैं? क्या सरकार और सुरक्षा बलों ने नक्सली संगठनों की कमर इस हद तक तोड़ दी है कि अब उनके लिए फिर से खड़ा होना लगभग नामुमकिन हो गया है? और क्या नक्सल प्रभावित इलाकों में इस कदर विकास और सुरक्षा ढांचा खड़ा कर दिया गया है कि अब कोई भी विद्रोही गतिविधि जड़ नहीं जमा सकती? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि पिछले एक दशक में भारत ने नक्सलवाद के खिलाफ जो उपलब्धियां दर्ज की हैं, वे अभूतपूर्व हैं.
साल 2014 से 2024 के बीच नक्सल-संबंधी हिंसक घटनाओं में 53 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है. सुरक्षाकर्मियों की मृत्यु में 73 प्रतिशत और आम नागरिकों की मौतों में 70 प्रतिशत की कमी आई है. अक्टूबर 2025 तक 1,225 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है और 270 मारे गए हैं. कभी नक्सल हिंसा से जूझ रहे राज्यों में आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं. तेलंगाना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहाँ इस वर्ष 427 माओवादी कैडरों ने हथियार डालकर मुख्यधारा का रास्ता चुना है.
तेलंगाना के पुलिस महानिदेशक बी. शिवधर रेड्डी के अनुसार, आत्मसमर्पण करने वालों में कई वरिष्ठ माओवादी नेता शामिल हैं . जैसे पी. प्रसाद राव उर्फ चंद्रन्ना, जो 45 साल से भूमिगत थे और बंदी प्रकाश उर्फ प्रभात, जो 42 साल से भूमिगत जीवन जी रहे थे. इन दोनों ने संगठन छोड़कर कानून व्यवस्था में विश्वास जताते हुए समाज की मुख्यधारा में लौटने का फैसला किया. प्रसाद पर ₹25 लाख और प्रकाश पर ₹20 लाख का इनाम था, जिसे तेलंगाना सरकार ने डिमांड ड्राफ्ट के जरिए उन्हें सौंपा. दोनों को पुनर्वास योजना के तहत अतिरिक्त लाभ भी दिए जा रहे हैं.
प्रसाद और प्रकाश जैसे नेताओं के आत्मसमर्पण के पीछे केवल सुरक्षा दबाव ही नहीं, बल्कि विचारधारात्मक मतभेद, संगठन के भीतर बढ़ती फूट और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी कारण बनीं. प्रसाद ने स्वयं कहा कि यह "आत्मसमर्पण नहीं, बल्कि नागरिक समाज में शामिल होने का निर्णय" है. उनका कहना है कि वे अब तेलंगाना के लोगों के लिए काम करेंगे और माओवादी आंदोलन के भीतर अब स्पष्ट विभाजन हो चुका है .एक धड़ा हथियार डालने के पक्ष में है, जबकि दूसरा सशस्त्र संघर्ष जारी रखने की बात कर रहा है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि सरकार का लक्ष्य मार्च 2026 तक देश को नक्सल-मुक्त बनाना है. इस दिशा में केंद्र ने एक समग्र और समन्वित नीति अपनाई है, जिसमें तीन प्रमुख तत्व हैं — सुरक्षा, विकास और पुनर्वास। अतीत की बिखरी हुई नीतियों की जगह अब संवाद, समन्वय और सटीक रणनीति पर आधारित एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है.
यह नीति केवल बंदूक के बल पर नहीं, बल्कि "विश्वास और अवसर" की नींव पर टिकी है. पिछले एक दशक में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर सिर्फ 18 रह गई है और इनमें भी अब केवल छह जिले सबसे अधिक प्रभावित हैं. सरकार ने पिछले दस वर्षों में 576 किलेबंद पुलिस स्टेशन बनाए हैं और 336 नए सुरक्षा कैंप स्थापित किए हैं. सुरक्षा अभियानों को तेज़ और कारगर बनाने के लिए 68 रात में उतरने योग्य हेलीपैड बनाए गए हैं, जिससे ऑपरेशनों की प्रतिक्रिया समय में उल्लेखनीय सुधार हुआ है.
नक्सल विरोधी अभियानों में आधुनिक तकनीक ने भी अहम भूमिका निभाई है. सुरक्षा एजेंसियाँ अब लोकेशन ट्रैकिंग, मोबाइल डेटा एनालिसिस, कॉल रिकॉर्ड जांच, सोशल मीडिया विश्लेषण और एआई-आधारित डेटा एनालिटिक्स जैसे अत्याधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल कर रही हैं. ड्रोन निगरानी और सैटेलाइट इमेजिंग ने जंगलों में छिपे नक्सल गढ़ों की पहचान को आसान बना दिया है. 2024 में हुए ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ और ‘ऑपरेशन कागर’ जैसे अभियानों में कई शीर्ष नक्सली कमांडर मारे गए या गिरफ्तार हुए.
नक्सलियों की वित्तीय रीढ़ पर भी निर्णायक प्रहार किया गया है. एनआईए ने ₹40 करोड़ से अधिक की संपत्ति जब्त की, ईडी ने ₹12 करोड़ कुर्क किए, जबकि राज्यों ने लगभग ₹40 करोड़ की परिसंपत्तियाँ जब्त कीं. इस वित्तीय नेटवर्क के टूटने से नक्सल संगठनों की भर्ती और हथियार खरीदने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई.
राज्य बलों को सशक्त बनाने के लिए केंद्र ने सुरक्षा संबंधी व्यय (SRE) योजना के तहत ₹3,331 करोड़ जारी किए, जो पिछले दशक की तुलना में 155 प्रतिशत अधिक है. इसके अलावा, विशेष बुनियादी ढांचा योजना (SIS) से ₹991 करोड़ किलेबंद पुलिस स्टेशनों के निर्माण के लिए स्वीकृत किए गए. विशेष केंद्रीय सहायता (SCA) के अंतर्गत नक्सल प्रभावित जिलों में विकास कार्यों के लिए ₹3,769 करोड़ समर्पित किए गए.
विकास नक्सलवाद पर काबू पाने की रणनीति का सबसे प्रभावी स्तंभ रहा है. 2014 से 2025 के बीच नक्सल प्रभावित इलाकों में 12,000 किलोमीटर से अधिक सड़कें बनाई गईं, जिससे दूरस्थ गांवों को जोड़ा जा सका. मोबाइल कनेक्टिविटी का विस्तार हुआ, 1,007 नई बैंक शाखाएँ और 937 एटीएम खुले, 37,850 बैंकिंग कॉरेस्पोंडेंट नियुक्त किए गए और 90 जिलों में 5,899 डाकघर कार्यरत हैं. इन पहलों ने वित्तीय समावेशन को नई ऊँचाई दी.
शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में भी सरकार ने बड़ा निवेश किया है. ₹495 करोड़ की लागत से 48 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (ITIs) और 61 कौशल विकास केंद्र (SDCs) स्थापित किए गए हैं, ताकि युवाओं को वैकल्पिक रोजगार के अवसर मिल सकें। यही कारण है कि अब उन क्षेत्रों के युवाओं के हाथों में बंदूक नहीं, बल्कि कलम और रोजगार का साधन है.
सुरक्षा अभियानों के साथ-साथ पुनर्वास नीति ने भी इस सफलता में अहम भूमिका निभाई है. आत्मसमर्पण करने वाले माओवादी कैडरों को न केवल इनाम राशि दी जा रही है, बल्कि उन्हें आवास, शिक्षा और रोजगार जैसी सुविधाएँ भी प्रदान की जा रही हैं. इस मानवीय दृष्टिकोण ने विद्रोहियों के मनोबल को तोड़ा और मुख्यधारा में लौटने का रास्ता आसान बनाया.
छत्तीसगढ़, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में स्थानीय युवाओं की सुरक्षा बलों में भर्ती से समाज में भरोसा बढ़ा है. “बस्तरिया बटालियन” इसका सशक्त उदाहरण है, जिसमें बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा के 400 स्थानीय युवाओं ने शामिल होकर यह संदेश दिया कि अब यह जंग जनता और सरकार के बीच नहीं, बल्कि शांति और विकास की स्थापना के लिए है.
आज की स्थिति यह है कि सुरक्षा बल न केवल पहले असंभव माने जाने वाले अबूझमाड़ जैसे क्षेत्रों में प्रवेश कर चुके हैं, बल्कि वहां प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित हो चुकी है. झारखंड का बुढ़ा पहाड़, पारसनाथ, बरमसिया और चक्रबंधा जैसे क्षेत्र अब लगभग पूरी तरह नक्सल मुक्त हो चुके हैं. 2024 में नक्सलियों का तथाकथित “टैक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैंपेन” बुरी तरह विफल रहा, जिससे स्पष्ट है कि उनकी रणनीतिक क्षमता अब टूट चुकी है.
आज भारत के लिए यह सिर्फ नक्सलवाद पर विजय की कहानी नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की दृढ़ता और जन-भागीदारी की मिसाल है. कभी बंदूकों की गूंज से दहशत फैलाने वाले जंगल अब विकास, शिक्षा और रोजगार की आवाज़ से गूंज रहे हैं. नक्सलवाद की जड़ें अब कमजोर पड़ चुकी हैं और विश्वास, संवाद तथा विकास की नई धारा उन क्षेत्रों में बह रही है, जहाँ कभी लाल आतंक का साया था.
भारत ने यह साबित कर दिया है कि जब नीयत मजबूत हो, नीति स्पष्ट हो और जनता साथ हो तो कोई भी आंतरिक विद्रोह स्थायी नहीं रह सकता. अब भारत का लक्ष्य स्पष्ट है, मार्च 2026 तक पूर्णतः नक्सल-मुक्त राष्ट्र, जहाँ बंदूकों की जगह विश्वास बोलेगा और आतंक की जगह विकास खिलेगा.