गाली और आत्मसम्मान: शब्दों में छिपा अस्तित्व का संघर्ष

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-10-2025
Abuse and self-respect: The struggle for existence hidden in words.
Abuse and self-respect: The struggle for existence hidden in words.

 

अब्दुल्लाह मंसूर

गालियाँ हर समाज और हर ज़ुबान में मिलती हैं.उन्हें केवल गुस्से या अपमान का प्रतीक मानना अधूरा दृष्टिकोण है.गालियाँ समाज के भीतर मौजूद सत्ता, असमानता और कुंठा का आईना होती हैं.जिस समाज में जितनी गहरी असमानता होती है, उसकी गालियाँ उतनी ही हिंसक होती हैं.ज़्यादातर गालियाँ जाति और औरत के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि समाज किसे नीचा और किसे ऊँचा मानता है.

गाली दरअसल एक सामाजिक हथियार है — समाजशास्त्री पियरे बोरदियू के अनुसार, यह “symbolic violence” है, यानी बिना मार-पीट के किसी को नीचा दिखाने का तरीका.भारत जैसे जातिवादी समाज में गालियाँ सत्ता को बनाए रखने का औज़ार हैं.जब कोई किसी को “चमार” या “जुलाहा” कहकर गाली देता है, तो वह केवल व्यक्ति नहीं, पूरी जाति को उसकी जगह याद दिलाता है.

अक्सर कहा जाता है कि सिनेमा या साहित्य में गालियों का इस्तेमाल “यथार्थवाद” है.यह तर्क आधा सच है, क्योंकि यह गालियों की सामाजिक भूमिका को अनदेखा करता है.जब गालियाँ फिल्मों या पॉप संस्कृति में मनोरंजन का हिस्सा बनती हैं, तो मर्द शर्म नहीं, बल्कि आनंद महसूस करता है.

वह अपनी हिंसक भाषा को वैध ठहरता देखता है.यह “मज़ा” राजनीतिक है — यह उसी व्यवस्था को मज़बूत करता है जो असमानता पर टिकी है.गालियों को समझने के लिए उन्हें “बुरे शब्द” नहीं बल्कि “सामाजिक क्रिया” के रूप में देखना होगा.

वे शारीरिक नहीं, मानसिक हिंसा करती हैं और सत्ता के ढाँचे को टिकाए रखती हैं.मर्दों द्वारा औरतों के लिए बनाई गई गालियाँ पितृसत्ता का भाषाई रूप हैं.लगभग हर भाषा की गालियाँ स्त्री-देह से जुड़ी होती हैं, जो उसे शर्म, वस्तु या भोग के प्रतीक में बदल देती हैं.

समाज ने औरत को इतना नियंत्रित किया कि उसने भी अपने अपमान के शब्दों यानी गालियों को दोहराना सीख लिया यही “internalized oppression” है.फ़ूको के अनुसार, सत्ता सबसे प्रभावी तब होती है जब लोग उसे स्वेच्छा से स्वीकार कर लेंऔर औरतों के मामले में यही हुआ.औरतों ने पुरुषों की बनाई भाषा को अपनाया क्योंकि उनके पास अपनी कुंठा व्यक्त करने का कोई और माध्यम नहीं था.उन्हें लगा कि उन्हीं गालियों का प्रयोग करना भी “सशक्तिकरण” है, जबकि वे उसी ढांचे का हिस्सा बनी रहीं जो उनका दमन करता है.

भारत के अशराफवादी-ब्राह्मणवादी समाज में जब कोई “साले जुलाहे ” या “भंगी” कहता है, तो वह व्यक्ति नहीं, पूरे समुदाय को अपमानित करता है.यह प्रतीकात्मक हिंसा (symbolic violence) है, जिसे पीड़ित वर्ग अक्सर हिंसा मानता ही नहीं.

वह इसे मज़ाक या जीवन की सच्चाई समझकर स्वीकार कर लेता है.यही मानसिक दासता है, जिसने पसमांदा, दलितों और औरतों के आत्मसम्मान को नष्ट किया ताकि वे विद्रोह न करें.

गालियाँ बचपन से ही लोगों के मन में यह भर देती हैं कि वे “छोटे” या “अशुद्ध” हैं.यह उन्हें शोषक की दृष्टि से खुद को देखने पर मजबूर करती हैं.यह मानना भूल होगी कि यह केवल हिंदू समाज की समस्या है.मुस्लिम समाज भी इससे अछूता नहीं है.यहाँ भी “अशरफ” और “पसमांदा” के बीच जातिगत दीवारें हैं.पसमांदा चिंतक खालिद अनीस अंसारी बताते हैं कि “कुंजड़ा”, “धुनिया”, “जोलाहा” या “भटियारा” जैसे शब्द केवल पेशों के नहीं, बल्कि अपमान के प्रतीक बन चुके हैं.

कुछ इस तरह की कहावतें भी हैं-‘खेत खाये गदहा, मार खाए जोलहा’, ‘कोदो-महुआ अन्न नहीं, जोलहा-धुनिया जन नहीं’, ‘मारला बिना जोलहा बैरागी’.धुनिया को जहां ‘मियां धुनधुन’, तो डफाली को ‘मियां पोंपो’ कह कर मज़ाक उड़ाया जाता है.इस सब से थक कर कई जातियों ने अपना नया नाम रखा.जैसे- बुनकरों ने अंसारी, हज्जामों ने सलमानी, धुनियों ने मंसूरी, कसाइयों ने कुरैशी आदि, मगर इस के बाद भी उन्हें फब्तियों और उपहास से आज़ादी नहीं मिली.

समाज को नियंत्रित करने के लिए केवल बाहरी हिंसा नहीं, मानसिक कब्ज़ा ज़रूरी होता है.स्टीवन बीको ने लिखा था — “दमनकारी के हाथ में सबसे ताकतवर हथियार पीड़ित का दिमाग होता है.” गालियाँ इसी मानसिक कब्ज़े का परिणाम हैं.

जब कोई औरत या दलित अपने ही खिलाफ प्रयोग की जाने वाली गालियों को सामान्य मान लेता है, तो वह उस व्यवस्था को मज़बूत करता है जो उसे दबाए रखती है.

गालियाँ सिर्फ मज़ाक नहीं, एक राजनीतिक हथियार हैं — “शक्ति का विमर्श” (Discourse of Power)। जो सत्ता में है, वही तय करता है कि “सही भाषा” क्या है.हमारी लगभग हर गाली अंततः औरत को नीचा दिखाती है.मर्द दूसरे मर्द को नीचा दिखाने के लिए उसकी माँ या बहन को गाली देता है, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में औरत को मर्द की “इज़्ज़त” माना गया है.भारतीय समाज में जाति और मर्दानगी का रिश्ता गहराई से जुड़ा है

.मर्द अपनी “मर्दानगी” साबित करने के लिए दूसरे की जाति या औरत की देह को निशाना बनाता है — चाहे शब्दों में, हँसी में या फिल्मों में.समाजशास्त्री एर्विंग गोफमैन के “stigma” सिद्धांत के अनुसार, समाज जब किसी समूह पर कलंक चिपका देता है, तो वह खुद को कमतर मानने लगता है.

जातीय गालियाँ इसी कलंक का रूप हैं — वे व्यक्ति के आत्मसम्मान को धीरे-धीरे मिटाती हैं.जब जाति और लिंग मिलते हैं, तो उत्पीड़न और जटिल हो जाता है — यही “इंटरसेक्शनैलिटी” है.

एक पसमांदा महिला को जातिगत और लैंगिक दोनों स्तरों पर भेदभाव झेलना पड़ता है.उसकी लड़ाई दोहरे मोर्चे पर होती है — अशरफ समाज से जातिगत दमन और अपने समुदाय से पितृसत्तात्मक दमन। ग्राम्शी के अनुसार, “शासक वर्ग केवल आर्थिक नहीं, सांस्कृतिक प्रभुत्व से भी राज करता है.” गालियाँ उसी सांस्कृतिक प्रभुत्व का हिस्सा हैं जो ऊँच-नीच को “स्वाभाविक” बना देती हैं.

लेकिन हर सत्ता के भीतर प्रतिरोध का बीज भी होता है.जब दलितों ने “दलित” शब्द को सम्मान में बदला, जब औरतों ने “bad woman” जैसे शब्दों को नए अर्थ दिए, तब भाषा मुक्ति का साधन बन गई.यही काम पसमांदा आंदोलन कर रहा है — उस परत को आवाज़ देना जिसे सदियों से “कमतर” कहकर चुप कराया गया था.

क्या गालियाँ खत्म होंगी? शायद नहीं, क्योंकि जब तक असमानता रहेगी, भाषा में हिंसा बनी रहेगी.पर जिस दिन सत्ता संबंध बदलेंगे, भाषा भी बदलेगी.तब अपमान की जगह आत्मसम्मान के शब्द जन्म लेंगे.

गालियों को मिटाने के लिए शब्द नहीं, वह मानसिक ढांचा बदलना ज़रूरी है जो उन्हें जन्म देता है.जैसे-जैसे पसमांदा, दलित और स्त्री अपनी भाषा में बोलने लगते हैं, गालियाँ अपना असर खोती जाती हैं.तब शब्द केवल हथियार नहीं, प्रतिरोध बन जाते हैं.

भाषा तटस्थ नहीं होती; वह या तो दमन के पक्ष में होती है या मुक्ति के. गालियों को समझना समाज को समझना है.और जब समाज अपने शब्दों की सफाई शुरू करता है, तो समझिए बदलाव आ चुका है.दो दोस्तों के बीच मज़ाक में दी गई गालियाँ भी उसी हिंसक ढांचे को दोहराती हैं.जब तक समाज में जाति और लिंग के आधार पर ऊँच-नीच है, भाषा भी हिंसा से मुक्त नहीं हो सकती.असली लड़ाई बुरे शब्दों से नहीं, उस बुरे सिस्टम से है जो उन्हें ज़हर से भरता है.

(अब्दुल्लाह मंसूर,लेखक और पसमांदा बुद्धिजीवी हैं। वे ‘पसमांदा दृष्टिकोण’ से लिखते हैं.)