रांची शहर के हृदय स्थल कहे जाने वाले अल्बर्ट एक्का चौक से कुछ ही फासले पर गुदड़ी कुरैशी मोहल्ला बसा है.नगर निगम की फाइलों में यह क्षेत्र भले ही 'स्लम एरिया' घोषित हो, लेकिन यह बस्ती अब अपनी गरीबी से नहीं, बल्कि डॉ. शाहनवाज कुरैशी के दृढ़ संकल्प और शिक्षा क्रांति की कहानियों से जानी जाती है.यह मोहल्ला कभी तंग गलियों, कच्चे मकानों और जीवन-संघर्ष का दूसरा नाम था, जहाँ दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चों के हाथों में मजबूरी की ज़िम्मेदारियाँ होती थीं, किताबें नहीं.मगर इन्हीं कठिन हालातों से निकलकर डॉ. शाहनवाज कुरैशी ने यह साबित कर दिखाया कि सच्ची नीयत और अटूट संकल्प से जीवन और समाज का कोई भी परिवर्तन असंभव नहीं है.आवाज द वाॅयस की खास प्रस्तुति द चेंज मेकर्स सीरिज के लिए झारखंड की राजधानी रांची से हमारे सहयोगी जेब अख्तर ने डॉ. शाहनवाज कुरैशी पर यह विस्तृत न्यूज स्टोरी की है.
डॉ. कुरैशी का बचपन भी अभावों और चुनौतियों से भरा रहा.आर्थिक तंगी ने उनके सपनों को कई बार झकझोरा.महज 27 रुपये फीस जमा न कर पाने के कारण उन्हें संत पॉल स्कूल से ड्रॉपआउट होना पड़ा.
यह एक ऐसा झटका था जिसने किसी और को तोड़ दिया होता, लेकिन उनकी माँ आमना खातून ने उन्हें हिम्मत दी.इस हौसले के बल पर उन्होंने एक साल बाद फिर से पढ़ाई शुरू की.चौथी कक्षा में ही उनकी शैक्षणिक प्रतिभा को पहचान मिली और मोहल्ले की पंचायत ने उन्हें बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी.35 रुपये की यह मासिक आमदनी, भले ही छोटी थी, लेकिन यह उनके जीवन की वह पहला बीज था, जिसने आगे चलकर शिक्षा-संवर्धन के विशाल वृक्ष का रूप लिया.
कुरैश एकेडमी: उम्मीद की मशाल
शैक्षणिक यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ 1982 में आया, जब समाजसेवी हुसैन कासिम कच्छी के सहयोग से मोहल्ले की मस्जिद के पास 'कुरैश एकेडमी' की नींव रखी गई.
यह संस्था महज़ एक स्कूल नहीं, बल्कि वंचितों के लिए उम्मीद का प्रतीक थी.दो दशकों बाद जब एकेडमी पिछड़ने लगी, तब डॉ. शाहनवाज कुरैशी ने सचिव के रूप में इसकी कमान संभाली.उन्होंने केवल प्रशासनिक सुधार नहीं किए, बल्कि एक ज़मीनी स्तर का सामाजिक अभियान चलाया.
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इंडियन क्रिकेटर प्लेयर महेंद्र सिंह धोनी के साथ डाॅ कुरैशी की एक पुरानी तस्वीर
वह खुद मोहल्ले के हर घर तक गए, माता-पिता से व्यक्तिगत रूप से बात की.उनका विशेष ध्यान उन घरों पर रहा जहाँ बेटियों की पढ़ाई छूट चुकी थी.उन्होंने उन्हें समझाया कि केवल शिक्षा ही उनकी बेटियों की शादी और भविष्य को सुरक्षित कर सकती है.उनके प्रयास रंग लाए। बच्चियाँ धीरे-धीरे स्कूल लौट आईं और कुरैश एकेडमी की रौनक वापस आ गई.
उन्होंने शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए कई नवाचार किए.हर शनिवार को बच्चों को प्रेरक हस्तियों से मिलवाने की परंपरा शुरू की।.क्रिकेटर सबा करीम, कॉमेडियन एहसान कुरैशीऔर पत्रकार विजय पाठक जैसी हस्तियों ने स्कूल आकर बच्चों से संवाद किया, जिसने उनमें गज़ब का आत्मविश्वास भरा.
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इसका नतीजा यह हुआ कि स्कूल का मैट्रिक रिजल्ट लगातार शत-प्रतिशत आने लगा.स्कूल को सांसद सुबोधकांत सहाय की मदद से बड़ा हॉल मिला, डॉ. जावेद कुद्दुस के सहयोग से आधुनिक साइंस लैब स्थापित हुईऔर रोटरी क्लब ऑफ रांची साउथ ने छह शौचालयों का निर्माण करवाया.आज यह एकेडमी "झारखंड रत्न" जैसे सम्मान अर्जित कर चुकी है और यहाँ एक हज़ार से अधिक छात्राएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं.
रात्रि पाठशाला से सामाजिक नेतृत्व तक
डॉ. शाहनवाज कुरैशी की सामाजिक चेतना सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं रही.1993 में, उन्होंने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन से जुड़कर मोहल्ले में रात्रि पाठशाला की शुरुआत की.दिनभर की मज़दूरी के बाद, बड़े-बुज़ुर्ग भी मग़रिब की नमाज़ के बाद कॉपी-किताब लेकर पढ़ने आने लगे.
पेट्रोमैक्स की टिमटिमाती लौ और मोहल्लेवालों के सहयोग से यह रात्रि पाठशाला वास्तव में शिक्षा की क्रांति बन गई.उन्होंने इस मुहिम को "बस्ती विकास मंच" के तहत रांची के अन्य स्लम इलाकों में भी फैलाया और साक्षरता की एक सशक्त अलख जगाई.
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उनकी नेतृत्व क्षमता को वाईएमसीए (YMCA) के सचिव वु-हान-चू डेविड और शिवप्रसाद रवि ने पहचाना.वे इस्लाम नगर सेंटर के इंचार्ज बने और पाँच वर्षों तक यूनिवर्सिटी वाईएमसीए के अध्यक्ष रहे.
इस दौरान उन्होंने सेमिनार और युवा शिविरों के माध्यम से सामाजिक चेतना को नया आयाम दिया.'झारखंड यूथ एसोसिएशन' के ज़रिए उन्होंने 120 छात्राओं को छात्रवृत्ति दिलवाई, युवाओं में आत्मनिर्भरता की भावना जगाई और उन्हें सही दिशा दी.
लेखनी, पाठ्यपुस्तकें और खेल इतिहास
आर्थिक कठिनाइयों और लेखन के जुनून ने उन्हें 1997 में पत्रकारिता से जोड़ा.उन्होंने वनांचल प्रहरी से शुरुआत की और प्रभात खबर तक का सफर तय किया, जहाँ वह बारह वर्षों तक वरिष्ठ उपसंपादक रहे.उनकी लेखनी हमेशा सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत रही.कोविड काल में उनकी मार्मिक रिपोर्ट्स—“गर्त में भी चमकते हैं हिंदपीढ़ी के सितारे” और “कैसे मनेगी गरीबों की ईद”—ने समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की सच्चाइयों को उजागर कर पाठकों को झकझोर कर रख दिया.
2010 में पत्रकारिता को अलविदा कहकर उन्होंने शिक्षा विभाग का रुख किया.जेसीईआरटी (JCERT) के ग्रुप लीडर के रूप में उन्होंने कक्षा 6 से 8 तक की सामाजिक विज्ञान की नौ पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं, जो आज भी झारखंड के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं.उन्होंने विश्व बैंक पोषित “तेजस्विनी परियोजना” और “प्रोजेक्ट संपूर्णा” में भी अहम योगदान दिया.
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डॉ. कुरैशी की अकादमिक उत्कृष्टता यहीं नहीं रुकी.उन्होंने झारखंड के खेल इतिहास पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की और अपनी शोध पर आधारित पुस्तक “झारखंड में महिला हॉकी” लिखी.इस प्रतिष्ठित पुस्तक का लोकार्पण FIH के अध्यक्ष तैयब इकराम ने किया.
डॉ. शाहनवाज कुरैशी को झारखंड सरकार, रोटरी क्लब, सद्भावना मंच और दैनिक जागरण जैसी कई संस्थाओं ने सम्मानित किया है.मगर उनके लिए यह सम्मान केवल कागज़ का टुकड़ा नहीं है, बल्कि असली सम्मान तो वह है, जब किसी गरीब बच्चे के हाथ में किताब देख उनके चेहरे पर मुस्कान आती है.
गुदड़ी के इस लाल ने यह सिद्ध किया कि इरादे अगर नेक हों और नीयत साफ, तो अभावों का अंधकार भी छँट जाता है.डॉ. शाहनवाज कुरैशी ने शिक्षा को ही अपना हथियार बनाया और न केवल अपने मोहल्ले की तस्वीर बदली, बल्कि पूरे झारखंड को यह संदेश दिया कि बुझती लौ भी मशाल बन सकती है.