उलेमा को जिम्मेदारी लेनी होगी कि संघर्ष कम हो

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 19-06-2022
उलेमाओं को जिम्मेदारी लेनी होगी कि संघर्ष कम हों
उलेमाओं को जिम्मेदारी लेनी होगी कि संघर्ष कम हों

 

आतिर खान

ऐसे समय में जब मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व लगभग नगण्य हो गया है, बुद्धिजीवी बेमानी हैं, उलेमाओं को समुदाय का मार्गदर्शन करने में अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी. उन्हें मुसलमानों को केवल इस्लामी हुक्मों तक सीमित रखने के बजाय उनके संवैधानिक अधिकारों की ओर ले जाने पर ध्यान देना होगा.

असदुद्दीन ओवैसी, आजम खान और कुछ अन्य नामों के अलावा देश में शायद ही कोई मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व बचा हो. यहां तक ​​कि इन बचे हुए राजनैतिक नेताओं के भी विचार चरम हैं, जो केवल राजनैतिक हितों के अनुकूल हैं, न कि पूरे समुदाय के लिए.

मुस्लिम बुद्धिजीवी भारतीय मुस्लिम जनता से नहीं जुड़ते. उनके विचार कितने ही गहरे क्यों न हों, उनके पास ऐसा दृष्टिकोण नहीं है जो उन्हें देश में बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचने में मदद कर सके.

ऐसी परिस्थितियों में सवाल है कि देश में 17करोड़ से अधिक लोगों के समुदाय को कौन रास्ता दिखाएगा, जो हर गुजरते दिन कट्टरपंथी होते जा रहे हैं? कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब आप लोगों और समुदायों को निशाना बनाने वाली बातें नहीं सुनते.

अब समय आ गया है कि इस तथ्य को स्वीकार किया जाए कि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व विफल हो गया है, और इसके लिएसमझदार सहारा उलेमाओं पर निर्भर करता है, जिनमें से कुछ के पास संगठनात्मक ताकत और धन है, जिसका अधिक विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सकता है.

स्पष्ट रूप से, आज मुसलमानों को राजनैतिक नेताओं से अधिक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, जिन्होंने विभिन्न राजनैतिक दलों के लिए आधार की भूमिका निभाई है. दारुल-उलूम देवबंद, नदवतुल-उलेमा लखनऊ, जामिया सलाफिया, वाराणसी, सफ़ाक़त सुन्नत, मुल्लापुरम, जमाई-अल फलाह, आजमगढ़ जैसे भारतीय उलेमा इस्लामिक शिक्षा के केंद्र हैं, जो अभी भी बड़े पैमाने पर मुस्लिम समुदाय में प्रतिष्ठित हैं.

हो सकता है कि शहरी भारतीय मुसलमानों के बीच उनके बहुत अधिक अनुयायी न हो, लेकिन छोटे शहरों और गांवों में रहने वाली मुस्लिम जनता के बीच वे निश्चित रूप से बहुत असरदार हैं.

मुद्दा यह है कि उलेमा मुख्य रूप से मानव निर्मित कानूनों के बजाय खुद को शरिया कानूनों तक ही सीमित रखते हैं. समय आ गया है जब इन शिक्षण संस्थानों के जरिए शरिया की शिक्षाओं और देश के कानूनों के बीच संतुलन बनाया जाए. अन्य प्रयासों में केवल दैवीय व्यवस्था को स्पष्ट करने के बजाय संवैधानिक अधिकारों के बारे में व्यावहारिक जागरूकता पैदा करने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए.

इनमें से कई उलेमा इस्लामिक न्यायशास्त्र फ़िक़्ह पढ़ाते हैं. अगर हम दारुल-उलूम देवबंद का उदाहरण लें तो हर साल 30से 40मुफ्ती संस्थान से शिक्षा प्राप्त कर बाहर आते हैं, जिसे मुस्लिम दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक माना जाता है.

उलेमाओं की प्राथमिक रूप से अपनी शिक्षा प्रणाली है, जो आधुनिक शिक्षा प्रणाली से अलग है. वे भी अपने पाठ्यक्रम में शिक्षा की आधुनिक प्रणाली को शामिल करने की आवश्यकता को महसूस कर रहे हैं, लेकिन पूरे मन से नहीं, बल्कि उस शिक्षा के एक हिस्से के रूप में.

इन उलेमाओं में डिग्री की शैक्षिक प्रगति आलिम है, जो स्नातक के बराबर है, फाजिल स्नातकोत्तर के बराबर है और फिर मुफ्ती, जो पीएचडी के बराबर है. एक मुफ्ती के पास शरिया कानूनों की व्याख्या करने की शक्तियां हैं, जो मुख्य रूप से कुरान और हदीस के आदेश हैं. ऐसे कानूनों में इज्तिहाद (संशोधन) का दायरा बहुत सीमित है.

जब मुसलमान भारत आए तो मुस्लिम न्यायशास्त्र अपनी नियामक क्षमता में विकसित और स्थापित हो चुका था. इसलिए, अतीत की गलतियों से सबक लेने की जरूरत है. एक ब्रिटिश नौकरशाह मरे टी. टाइटस नेअपनी पुस्तक ‘इस्लाम इन इंडिया ऐंड पाकिस्तान’में लिखा है कि स्वतंत्रता-पूर्व युग के मुस्लिम बुद्धिजीवी मुल्लाओं की गतिविधियों से डरने लगे थे.

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द लिबरेशन ऑफ इस्लाम’से मुस्लिम बुद्धिजीवी फरीद एस जाफरी को यह कहते हुए उद्धृत किया: “मानवता को एक साथ लाने की बजाए मुल्लाओं के कट्टर दिमाग ने दुनिया के लोगों के बीच नफरत पैदा की, जो बिल्कुल गैर-इस्लामी और पैगंबर मोहम्मद का संदेश के उद्देश्य के खिलाफ था.”

आज हम मुल्ला से न केवल इन महान शिक्षकों के खिलाफ बल्कि स्वतंत्र विचारकों और हमारे धर्म के विद्वानों के खिलाफ भी प्रवचन और चुनौतियां सुनते हैं. एक मुल्ला दूसरे से बहुत ईर्ष्या करता है... अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए वह लोगों के बीच अपने लिए एक अंधविश्वासी श्रद्धा पैदा करता है.वह जितना संभव हो सके, अपने अलावा अन्य विश्वासों और विचारों को नीचा दिखाता है.

जहां तक ​​इस्लाम का सवाल है... यह लगभग पूरी दुनिया में बिजली की तेजी से विस्तारित हुआ है. यह पूर्व से पश्चिम तक आश्चर्यजनक गति से विस्तृत हुआ है. अचानक ऐसा क्या हुआ कि यह ठिठक कर खड़ा हो गया है? क्या इसके लिए मुल्ला जिम्मेदार नहीं था... आइए हम इस्लाम को मुल्लों के चंगुल से आजाद कराएं.

इसी तरह, टाइटस कवि-दार्शनिक सर मुहम्मद इकबाल को उद्धृत करते हैं, जब उन्होंने 21मार्च, 1932को लाहौर की बैठक में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग को इसके अध्यक्ष के रूप में संबोधित किया था, उन्होंने कथित तौर पर कहा था: 'पूरे समुदाय को अपनी वर्तमान मानसिकता में पूरी तरह बदलाव की जरूरत है ताकि यह फिर से नई इच्छाओं और आदर्शों के आग्रह को महसूस करने में सक्षम हो सके. मुसलमान ने लंबे समय से अपने आंतरिक जीवन की गहराई का पता लगाना बंद कर दिया है, और इसके परिणामस्वरूप उन ताकतों के साथ अमानवीय समझौता करने का खतरा है जो उसे लगता है कि वह खुले संघर्ष में जीत नहीं सकता है.”

यह मुल्ला संकट बताता है कि मदरसों के पाठ्यक्रम में आमूल-चूल संशोधन की तत्काल आवश्यकता है जो मौजूदा समय में उनके छात्रों को अधिक व्यावहारिक और सराहनीय समझ प्रदान करेगा. इससे उन्हें अल्लाह के नाम पर जिस समुदाय की सेवा करने का वह कौल लेते हैं उसके बेहतर तरीके भी पता चलेंगे.

स्पष्ट रूप से उन मुस्लिम बुद्धिजीवियों के मन में मुल्लाओं के खिलाफ विचार थोड़े कड़े थे. यह सच है कि मदरसों में पाठ्यक्रम समय और स्थान के हिसाब से अस्त-व्यस्त हो गया है. उनमें तुलनात्मक धार्मिक अध्ययन जैसे विषयों को शामिल करने की आवश्यकता है. कुछ मदरसों ने हाल ही में इन विषयों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करने में सराहनीय काम किया है. और तटस्थ होकर कहा जाए तो भारतीय उलेमाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी राष्ट्र की महान सेवा की है.

जाहिर है, विकसित होने की तरफ भी झुकाव है. लेकिन इन संस्थानों का हाथ पकड़ कर राह दिखाने की जरूरत है. उन्हें समझने और समायोजित करने की जरूरत है. किसी भी राजनैतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति में अब उनके पास वर्तमान समय की आवश्यकताओं के लिए समुदाय के साथ समन्वय की एक बड़ी जिम्मेदारी है.

यदि हम अपने इतिहास पर नजर डालें तो ईरानी दार्शनिक नासिर अल दीन अल तुसी और बरनी जैसे इतिहासकारों ने अपने-अपने कार्यों अखलाक-ए-नासिरी और फतवा में 16वीं और 19वीं शताब्दी के बीच मुगल शासन का विस्तृत विवरण दिया था जिसमें उन्होंने राजनीति से नैतिकता के मापदंडी को ओर बदलाव को दर्ज किया था.

राजनैतिक विवेक को उस पैमाने से मापा जाता था जिस हद तक शासक शरीयत को लागू करने के बजाय सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने और बनाए रखने में सक्षम था. अपेक्षया यह उदारवादी रुख मुख्य रूप से एक बड़ी और विविधतापूर्ण राजनीति को प्रभावी ढंग से संचालित करने की व्यावहारिक खोज के कारण अपनाया गया था, लेकिन शुरुआत से ही प्रभावशाली उलेमाओं और शरीयत सूफियों द्वारा इसका जोरदार विरोध किया गया था.

लागू किए गए तर्क लगभग विशेष रूप से इस्लामी ग्रंथों से प्राप्त किए गए थे, कुरान में भगवान के शब्दों के रहस्योद्घाटन को वास्तविकता की एक उच्च डिग्री प्रदान करते हैं जिसने सरकार को तत्कालीन परिस्थितियों में समायोजित करने की आवश्यकता को खारिज कर दिया.

परिवर्तन अपरिहार्य है. सदियों की अवधि में परिस्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं. हम शरिया द्वारा शासित नहीं हैं; हम अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानूनों और आज हमारी संसद में बनाए गए कानूनों द्वारा शासित हैं.

इसलिए, यह उलेमाओं, विशेष रूप से फ़िक़्ह की ज़िम्मेदारी है कि वे जागरूकता पैदा करें और समुदाय को वर्तमान कानूनों के साथ एकरूपता कायम करें ताकि मानवता के इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों के साथ समझौता किए बिना संघर्ष को कम किया जा सके, जो कुरान में निहित हैं.

खुतबा, या शुक्रवार की प्रार्थना उपदेश समुदाय तक पहुंचने के लिए एक प्रभावी माध्यम है. लेकिन उपदेश देने वाले इमामों की गुणवत्ता में सुधार की जरूरत है. एक समय था जब एक इमाम ज्ञान और ज्ञान का अग्रदूत हुआ करता था.

उन्हें सबसे गहन विचारकों में से एक माना जाता था, जो अपने आस-पास की दुनिया से अवगत होंगे और समुदाय को प्रबुद्ध करेंगे. लेकिन इन दिनों खुतबा केवल इमामों तक ही सीमित है, जो बिना किसी सकारात्मक संदर्भ के पढ़े गए धार्मिक छंदों को निकालते हैं.

मस्जिद स्तर पर धार्मिक नेतृत्व की गुणवत्ता में एक महत्वपूर्ण सुधार की आवश्यकता है ताकि उस समय व्यवस्था को फिर से जीवंत किया जा सके जब राजनीतिक दलों की मुस्लिम समुदाय में कोई दिलचस्पी नहीं है या बहुत कम है.